अप्रतिरोधी इच्छा मृत्यु और लिविंग विल पर फैसला देते हुए पाँचों जजों में किसने क्या कहा

LiveLaw News Network

10 March 2018 3:03 PM GMT

  • अप्रतिरोधी इच्छा मृत्यु और लिविंग विल पर फैसला देते हुए पाँचों जजों में किसने क्या कहा

    शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए अप्रतिरोधी इच्छामृत्यु और जीवित रहते हुए अपने इलाज के बारे में वसीयत तैयार करने को वैध घोषित कर दिया।

    इस फैसले को सुनाने वाली पीठ की अगुवाई कर रहे थे मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और इसमें शामिल अन्य जज थे एके सिकरी, एएम खानविलकर, डीवाई चंद्रचूड़ और अशोक भूषण। गिआन कौर बनाम पंजाब सरकार के इस मामले की सुनवाई पहले तीन जजों की पीठ ने किया पर बाद में इसे पांच जजों की पीठ को सौंप दिया गया।

    मुख्य न्यायाधीश मिश्रा और खानविलकर

    खुद अपने और न्यायमूर्ति खानविलकर के संयुक्त फैसले को लिखते हुए न्यायमूर्ति मिश्रा ने कहा कि गिआन कौर के मामले में कोर्ट ने आयरडेल एनएचएस बनाम ब्लांड मामले के फैसले को सही नहीं माना था जिसमें हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स ने कहा था कि इच्छामृत्यु आम क़ानून के मुताबिक़ वैध नहीं है। उन्होंने कहा कि गिआन कौर मामले में आयरडेल का उल्लेख संक्षिप्त रूप में किया गया था जबकि अरुणा शानबाग के मामले में विपरीत फैसला देने की गलती की गई थी।

    न्यायमूर्ति मिश्रा ने कहा कि सहमति देने की क्षमता रखने वाले सभी वयस्कों को मेडिकल इलाज प्राप्त करने से इनकार करने और स्वनिर्धारण का अधिकार है। हालांकि उन्होंने सावधान किया कि डॉक्टर मरीज के स्वनिर्धारण के विकल्प से बंधे होंगे और उनको यह आश्वस्त होना होगा कि मरीज की बीमारी लाइलाज है।

    उन्होंने कहा कि राज्य का हित किसी व्यक्ति के हित पर भारी नहीं पड़ना चाहिए और व्यक्ति को शांति से मरने की अनुमति दी जानी चाहिए न कि तकनीक की मदद से उसकी इच्छा के खिलाफ इस प्रक्रिया को लंबा कर दिया जाए।

    न्यायमूर्ति मिश्रा ने अग्रिम निर्देश तैयार करने और अप्रतिरोधकारी इच्छामृत्यु के बारे में दिशानिर्देश जारी किया :

    (i) अरुणा शानबाग (सुप्रा) मामले के बाद विधि आयोग ने अपनी 241वीं रिपोर्ट में अप्रतिरोधक इच्छामृत्यु को स्वीकार किया पर इस बारे में कोई क़ानून नहीं बनाया गया।

    (ii) जहाँ किसी मरीज ने कोई अग्रिम निर्देश तैयार कर दिया है और जिसके बारे में कोई संदेह नहीं है और इस बात का उल्लेख किया है कि वह इलाज नहीं कराना चाहता/चाहती है, तो इस तरह के निर्देश को लागू किया जाएगा।

    (iii) संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार तबतक अर्थहीन है जबतक वह व्यक्तिगत गरिमा को स्थान नहीं देता। समय के साथ इस अदालत ने अनुच्छेद 21 के दायरे को बढ़ाया है और गरिमा के साथ जीने के अधिकार को जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का हिस्सा माना है।

    (iv) बिना किसी संदेह के, गरिमा के साथ जीवन जीने के अधिकार में आसन्न मृत्यु का ख़तरा झेल रहे या जिसके स्वस्थ होने की संभावना नहीं है ऐसे लोगों को चैन से मरने देने का अधिकार भी समाहित है।

    (v) किसी व्यक्ति के बिगड़ते चिकित्सकीय स्थिति को कानूनी तौर पर स्वीकार नहीं कर पाना मरने की प्रक्रिया को आसान बनाने के अधिकार और गरिमा के साथ जीने के अधिकार को सफल नहीं बनाना है।

    (xi) यद्यपि जीवन की पवित्रता को बहुत ही ऊंचे स्तर पर रखा जाता है लेकिन किसी मरणासन्न व्यक्ति या पीवीएस रोगी के संदर्भ में जहाँ पर व्यक्ति के जिंदा रहने की संभावना नहीं है, वहाँ पर व्यक्ति के अपने जीवन और चिकित्सा प्राप्त करने के बारे में अग्रिम वसीयत और स्वनिर्धारण के अधिकार को वरीयता दिया जाएगा।

    (xii) अग्रिम निर्देश अगर नहीं है, तो उस दिशा में इस मामले में वह प्रक्रिया लागू होगी जिसका जिक्र पहले किया जा चुका है।

    (xiii) जब एक परिस्थितिजन्य उपशामक के रूप में अप्रतिरोधी इच्छामृत्यु को लागू किया जाता है तो मरीज का सर्वोत्तम हित राज्य के हित के ऊपर होगा।

    न्यायमूर्ति सिकरी

    न्यायमूर्ति सिकरी ने सीजेआई द्वारा लिखे फैसले से इत्तफाक जताया। उन्होंने कहा, “...मुद्दे पर मैं पीठ के अन्य सदस्यों के अरुणा रामचंद्र शानबाग मामले में फैसले के समर्थन से इत्तफाक रखता हूँ।”

    अग्रिम निर्देश के बारे में उन्होंने कहा कि इस व्यवस्था का दुरूपयोग हो सकता है। उन्होंने आशा जताई कि विधायिका बहुत शीघ्र इस मुद्दे पर व्यापक क़ानून बनाएगी ताकि इच्छामृत्यु के बारे में जो आशंकाएं व्यक्त की गई हैं उसको रोका जा सके।

    न्यायमूर्ति चंद्रचूड़




    • जीवन की पवित्रता: संविधान जीवन के मूल्य को स्वीकार करता है...पवित्रता के सिद्धांत की जीवन्तता गरिमा, स्वायत्तता और स्वतंत्रता पर आधारित है।

    • गरिमापूर्ण जीवन: गरिमापूर्ण अस्तित्व, निर्णय लेने की स्वतंत्रता और व्यक्ति की स्वायत्तता अर्थपूर्ण जीवन का केंद्रीय तत्त्व है। स्वतंत्रता, गरिमा और स्वायत्तता खुशी की खोज और मानवीय अस्तित्व में अर्थ ढूँढने के लिए जरूरी है।

    • चिकित्सा से इनकार करने का अधिकार: हर व्यक्ति के गरिमापूर्ण अस्तित्व के लिए यह जरूरी है कि ऐसा व्यक्ति जो कि स्वतंत्र है और उसकी मानसिक स्थिति ऐसी है कि वह यह निर्णय करने में सक्षम है कि उसे चिकित्सा लेना चाहिए या नहीं, उसको संवैधानिक मान्यता मिलनी चाहिए। चिकित्सा प्राप्त करने से मना करने का उसका निर्णय शर्तहीन है।

    • अग्रिम निर्देश: ऐसा व्यक्ति जिसकी मानसिक दशा ठीक है, वह इस बात का निर्णय कर सकता है कि ऐसे समय में जब उसकी मानासिक स्थिति ठीक नहीं रहेगी,  वह भविष्य में किस तरह की चिकित्सा प्राप्त करना चाहता है। इस तरह का अग्रिम निर्देश उनका इलाज करने वाले डॉक्टर द्वारा सम्मान का अधिकारी है। अग्रिम निर्देश पर अमल करने वाला डॉक्टर आपराधिक दायित्व से मुक्त होगा।


    उन्होंने गिआन कौर और अरुणा शानबाग के मामले में अन्य जजों के निष्कर्ष से इत्तफाक जताया।

    न्यायमूर्ति अशोक भूषण

    सहमति वाले एक अलग फैसले में न्यायमूर्ति भूषण ने गिआन कौर मामले में तीन जजों की पीठ के फैसले से सहमति जताई कि पीठ ने इच्छामृत्यु पर कोई बाध्यकारी विचार नहीं रखे। फिर उन्होंने कहा कि अरुणा शानबाग मामले में कोर्ट ने कहा था सिर्फ कोर्ट को ही यह अधिकार है कि वह निर्णय करे कि किसी मरणासन्न व्यक्ति को मिल रहे इलाज को जारी रखा जाए या बंद कर दिया जाए। हालांकि उन्होंने कहा कि इस तरह का निर्णय चिकित्सकीय विशेषज्ञ को लेने की जरूरत है।

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