न्यायाधीन होने का सिद्धांत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नकार नहीं सकता : सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़ें]
LiveLaw News Network
5 March 2018 4:22 PM IST
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जैसे ही प्रहार किया जाता है, इससे न केवल वह अधिकार बल्कि वह व्यक्ति भी अचेतन अवस्था में चला जाता है जो उस अधिकार का हकदार है : सुप्रीम कोर्ट
फिल्म ‘अय्यारी’ की रिलीज़ पर रोक लगाने के खिलाफ आदर्श कोआपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी की अपील को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया। अपील में कहा गया था कि इस फिल्म में इस सोसाइटी को कथित तौर पर गलत तरीके से दिखाया गया है और कोर्ट में इस बारे में चल रहे मुकदमे पर इसका असर हो सकता है।
मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली तीन सदस्यीय पीठ ने कहा, “ किसी मामले के बारे में ‘न्यायालय के विचाराधीन’ के सिद्धांत को इस हद तक न उठाया जाए कि सोसाइटी के किसी सदस्य से मिलते जुलते संदर्भ की परिणति अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और बोलने की आजादी पर पाबंदी के रूप में सामने आए जो कि संविधान के तहत आम लोगों को मिला एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण अधिकार है”।
वरिष्ठ एडवोकेट संजय आर हेगड़े ने सोसाइटी की पैरवी की और कहा कि अगर फिल्म रिलीज होती है तो यह उस सोसाइटी की स्थापित प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाएगा और फिर आनेवाली पीढी उसकी उसी छवि को ध्यान में रखेगी जैसी उस फिल्म में दिखाई गई है न कि वह वास्तविक छवि जो इसके लोगों की है। उन्होंने पीठ से कहा कि इस फिल्म की रिलीज़ न्याय की धारा को प्राभावित करेगा और इसलिए इस पर रोक लगाए जाने की जरूरत है।
कोर्ट ने कहा कि सेंसर बोर्ड ने पहले ही इस फिल्म को अपना प्रमाणपत्र दे दिया है और सेना के उचित अथॉरिटी से भी इस बारे में वह मशविरा के लिए संपर्क कर चुका है। जहाँ तक न्यायालय में इस बारे में लंबित मामले की बात है, तो पीठ ने कहा, “किसी विशेष परिस्थिति के बारे में कोई फिल्म किसी मामले की सुनवाई को प्रभावित नहीं करता। अदालत के समक्ष लाए गए साक्ष्य के आधार पर मुकदमे का फैसला होता है न कि कल्पना के आधार पर जैसा कि फिल्मों की भाषा या स्क्रिप्ट के माध्यम से फिल्मों में दिखाया जाता है”।
कोर्ट ने वायकॉम 18 मीडिया प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य बनाम भारत संघ और नचिकेता वाल्हेकर बनाम केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के फैसले का भी जिक्र किया। कोर्ट ने कहा, “एक परिकल्पना की अभिव्यक्ति के हजारों तरीके हो सकते हैं। कोई निस्तब्धता को दृष्टात्मक रूप से वाचाल होने के रूप में निरूपित कर सकता है जबकि कोई अन्य अर्ध-नाटकीय तरीका अपना सकता है जिसका कि दर्शकों पर प्रभाव हो। यह व्यक्तिगत सोच और तरीका है जिस पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता है”।
कोर्ट ने फिल्म में किसी तरह का डिस्क्लेमर डाले जाने की अपील भी अनसुनी कर दी और कहा कि इसकी जरूरत है कि नहीं इसका निर्णय सेंसर बोर्ड को करना है और पीठ ने यह याचिका खारिज कर दी।