इलाहाबाद हाई कोर्ट ने गोरखपुर दंगे में योगी आदित्यनाथ की भूमिका की स्वतंत्र जांच की मांग खारिज की; कार्रवाई की अनुमति नहीं देने के राज्य के फैसले को सही बताया

LiveLaw News Network

23 Feb 2018 2:23 PM GMT

  • इलाहाबाद हाई कोर्ट ने गोरखपुर दंगे में योगी आदित्यनाथ की भूमिका की स्वतंत्र जांच की मांग खारिज की; कार्रवाई की अनुमति नहीं देने के राज्य के फैसले को सही बताया

    इलाहाबाद हाई कोर्ट ने वृहस्पतिवार को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ वर्ष 2007 के गोरखपुर दंगे में कार्रवाई की अनुमति नहीं देने के राज्य के निर्णय को सही ठहराया।

    न्यायमूर्ति कृष्णा मुरारी और अखिलेश चन्द्र शर्मा की पीठ ने इस दंगे में आदित्यनाथ की भूमिका की स्वतंत्र जांच की मांग वाली याचिका भी ख़ारिज कर दी।

    क्या है मामला

    सामाजिक कार्यकर्ता परवेज परवाज नवंबर 2007 में गोरखपुर में हुए दंगे के सिलसिले में गोरखपुर के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास आवेदन दिया था कि योगी आदित्यनाथ घृणा भरे भड़काऊ भाषण दे रहे हैं। पर सीजेएम ने 2008 में इस आवेदन को यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि ऐसे ही कई और एफआईआर भी दर्ज कराए गए हैं और इन पर गौर किया जा रहा है।

    परवाज ने इस आदेश को हाई कोर्ट में चुनौती दी जिसने सीजेएम को इस आवेदन पर ताजा आदेश देने को कहा। इसके बाद आवेदन स्वीकार किया गया और आईपीसी की कई धाराओं के तहत एक मामला दायर करने का आदेश दिया गया जिसमें हत्या, हत्या के प्रयास, आपराधिक षड्यंत्र, गैरकानूनी तरीके से एकत्र होने और दंगा फैलाने की धाराएं शामिल हैं।

    नवंबर 2008 को राज्य सरकार ने राज्य पुलिस की खुफिया विभाग की अपराध शाखा (सीबीसीआईडी) को मामले की जांच करने को कहा। इस बीच एक आरोपी अंजू चौधरी ने सुप्रीम कोर्ट में हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील की। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में आगे की कार्रवाई पर रोक लगा दी और फिर 2012 में इसे अंततः खारिज कर दिया।

    परवाज इलाहाबाद हाई कोर्ट से इस मामले की सीबीआई जांच कराने की मांग की पर इसे अस्वीकार कर दिया गया। 2010 में उन्होंने रेस्टोरेशन याचिका दायर की जिसे 2015 में खारिज कर दिया गया। इसके बाद उन्होंने एक रिकॉल याचिका दायर की जिसे गत वर्ष मई में स्वीकार किया गया।

    कार्रवाई की मनाही

    मई 2017 में उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव ने कोर्ट को बताया कि राज्य के प्रधान सचिव, गृह ने आरोपी के खिलाफ कार्रवाई की अनुमति नहीं दी। इसके खिलाफ फिर अपील की गई।

    सितम्बर 2017 में एक आवेदन दायर कर योगी आदित्यनाथ, डॉ. राधा मोहन दस अग्रवाल, वाईडी सिंह, अंजू चौधरी और शिव प्रताप शुक्ला को सजा दिलाने की मांग की गई।

    पर कोर्ट ने इसे भी अस्वीकार कर दिया और कहा, “...अभियोजन की अनुमति एक विशुद्ध प्रशासनिक कार्य है, ...प्रस्तावित आरोपी के खिलाफ कार्रवाई की याचिकाकर्ता की अपील अनावश्यक है...इसलिए इस आवेदन को रद्द किया जाता है”.  

    इसके बाद कोर्ट ने गौर करने लायक निम्न तीन मुद्दे गिनाए :




    • संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत क्या हाई कोर्ट इस मामले की जांच को स्थानांतरित कर सकता है?

    • क्या राज्य इस मामले की निष्पक्ष जांच कराने में विफल रहा है?

    • क्या राज्य सीआरपीसी की धारा 196 के तहत एक ऐसे आरोपी के खिलाफ आदेश दे सकता है जो इस बीच मुख्यमंत्री बन गया है?


    कोर्ट ने मामले के स्थानान्तरण के बारे में कहा कि हाई कोर्ट मामले की जांच किसी स्वतंत्र एजेंसी से कराने का आदेश दे सकता है।

    इसके बाद कोर्ट ने कहा कि उसके पास ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि इस मामले की जांच निष्पक्ष, स्वतंत्र तरीके से नहीं हुई सो इसकी जांच का काम किसी अन्य एजेंसी को सौंप दिया जाए।

    कोर्ट ने याचिकाकर्ता के इस आरोप को मानने से इनकार कर दिया कि योगी आदित्यनाथ के कथित घृणास्पद भाषणों की डीवीडी जिसको विश्लेषण के लिए भेजा गया था, वह वो नहीं था जो उसने सौंपा था।

    अभियोजन की अनुमति नहीं देने के फैसले पर उठाई गई आपत्ति के बारे में कोर्ट ने कहा कि मुख्यमंत्री को इसके बारे में कोई रिकॉर्ड कभी भी नहीं भेजा गया। कोर्ट ने कहा :

    “इस मामले में प्रधान सचिव द्वारा दिया गया आदेश जिसकी जानकारी विशेष सचिव ने दी, वह रूल्स ऑफ़ बिजनेस, 1975 और उत्तर प्रदेश (आवंटन) नियम, 1975 के अनुरूप है। मूल रिकॉर्ड को पढने के बाद यह स्पष्ट है कि जांच पूरी होने के बाद इस रिकॉर्ड को कभी भी राज्य के मुख्यमंत्री के पास नहीं भेजा गया।

    यह मामला गृह विभाग अनुभाग-14 के पास रहा और उक्त आदेश गृह विभाग के प्रधान सचिव ने क़ानून विभाग से परामर्श के बाद जारी किया। हमें रिकॉर्ड में ऐसा कुछ नहीं मिला जिसे यह पता चल सके कि गृह विभाग में डीएफआर प्राप्त होने के बाद से इस बारे में आदेश पारित होने तक राज्य के मुख्यमंत्री किसी स्तर पर इस मुद्दे से जुड़े थे”।

    कोर्ट ने कहा:

    ... इस कोर्ट द्वारा संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अपने विशिष्ट अधिकारों का प्रयोग करने के दौरान हमें जाँच में या कार्रवाई के लिए आदेश देने से इनकार के बारे में निर्णय लेने की प्रक्रिया में कोई प्रक्रियात्मक भूल का ऐसा मामला नहीं दिखा है जिसकी वजह से इस अदालत को इसमें दखल देना पड़े”।

    कोर्ट ने इसलिए इस याचिका को रद्द कर दिया।

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