आधार सुनवाई [12वां दिन सत्र-1] : गोपाल सुब्रमण्यम ने कहा, कौन सोच सकता है कि मिड-डे मील के लिए भी बच्चों को पहचान की प्रक्रिया से गुजरना होगा
LiveLaw News Network
21 Feb 2018 8:36 PM IST
बुधवार को वरिष्ठ एडवोकेट गोपाल सुब्रमण्यम ने आधार अधिनियम, 2016 पर अपनी दलील को सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ के समक्ष आगे बढ़ाया।
उन्होंने पीठ को मानवीय गरिमा पर घोष बनाम भारत संघ (2016) मामले का उल्लेख किया और सुब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत संघ मामले का जिक्र किया जो कि प्रतिष्ठा के अधिकार से संबंधित है। उन्होंने इन दोनों मामलों को न्यायमूर्ति केएस पुत्तस्वामी मामले में नौ जजों की पीठ के फैसले से जोड़ा।
सुब्रमण्यम ने कहा, “कोई व्यक्ति कनवर्जेंस का बिंदु नहीं हो सकता; यह राज्य और व्यक्ति दोनों के लिए खतरनाक है”।
शीला बरसे मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिक्र करते हुए सुब्रमण्यम ने कहा, “यह फैसला अनुच्छेद 21 को सुप्रीम कोर्ट का सबसे बड़ा योगदान है। मानसिक रूप से बीमार लोगों को जेलों में डाला जा रहा था। इस कोर्ट के हस्तक्षेप से इन लोगों के इलाज के लिए एक नया अस्पताल अब बनाया गया है।”
उन्होंने आगे कहा, “अनुच्छेद 13 मौलिक अधिकारों को प्रधानता देता है। यह क़ानून के निर्माण या किसी नीतिगत निर्णय में विधायिका और कार्यपालिका से बचाव के रूप में कार्य करता है”।
“क्या राज्य पूरे समाज को एक प्रजाति के रूप में देख सकता है? आधार अधिनियम के प्रावधान व्यक्ति को वस्तु का दर्जा दे रहा है।
मुख्य न्यायाधीश ने पूछा था कि क्या यह किसी व्यक्ति को ‘अव्यक्ति’ बना रहा है।
मैं कहूंगा, “यह एक व्यक्ति को व्यक्ति-विहीन कर रहा है”।
राज्य की कार्रवाई के औचित्य का निर्धारण के सिद्धांत के बारे उन्होंने कहा, “पहला, तर्कसंगतता; दूसरा, आनुपातिकता; और देशी कानूनों मतलब अनुच्छेद 14, 19 और 21 के साथ उनका अनुकूल होना है”।
उन्होंने कहा, “हमने अपने संविधान में आईसीसीपीआर और यूडीएचआर को शामिल किया है...मौलिक अधिकारों की बहुत ही व्यापक व्याख्या होनी चाहिए”।
उन्होंने कहा, “फोटो, आयरिस स्कैन और उँगलियों के निशान बहुत ही महत्त्वपूर्ण डाटा होते हैं और उनको कहीं बचाकर रखना असंवैधानिक है”।
न्यायमूर्ति एके सिकरी के एक प्रश्न के जवाब में उन्होंने कहा, “नागरिकता अधिनियम 1955 को 2003 में संशोधित किए जाने के बाद यह सोचा गया कि सीमावर्ती क्षेत्रों के नागरिकों को एक स्मार्ट कार्ड या चिप दिया जाए ताकि वे अपनी पहचान बता सकें ताकि उनको किसी और नागरिकता वाला नहीं मान लिया जाए। पर इसके पीछे भी विचार इस डाटा को बचा कर रखने का नहीं था”।
सुब्रमण्यम ने कहा, “पहचान के तरीकों को उसके अनुपालन की क्षमता, कम से कम आक्रमणकारी, और उसके लिए सहमति स्वाभाविक होने जैसी परीक्षा पर खड़ा उतरना चाहिए। पर किसने यह सोचा भी था कि मध्याह्न भोजन के लिए भी बच्चों को पहचान की प्रक्रिया से गुजरना होगा? एक शिशु को उसका जन्म प्रमाणपत्र मिलने से पहले ही नक़्शे पर डाल दिया जाएगा?”
“अगर कोई एक अपराध करता है, क्या वह यह कह सकता है कि उसको गिरफ्तार नहीं किया जाएगा? यह अवश्य ही प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए”, सुब्रमण्यम ने कहा। व्यापम घोटाले का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, “कम्पूटर के साथ छेड़छाड़ के कारण यह घोटाला हुआ। इसलिए राज्य के प्रति उत्तरदायित्व महत्त्वपूर्ण है। पर राज्य को भी यह चाहिए कि वह अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्ति की गरिमा का आदर करे”।
उन्होंने कहा कि अधिनियम 2016 की धारा 7 के तहत सरकारी प्राधिकरणों द्वारा जारी 139 अधिसूचना को प्रशासित कर पाने की एक जिला मजिस्ट्रेट की शक्ति को नजरअंदाज किया गया। “यह आरोप लगाना कि समाज के सर्वाधिक गरीब तबके ने पहचान के वर्तमान प्रूफ का दुरुपयोग किया है, गलत है”, उन्होंने कहा। इस पर न्यायमूर्ति सिकरी ने कहा, “चलिए हम कहते हैं कि सर्वाधिक गरीबों में गरीब इसके लक्ष्य हैं और वे बिचौलिए थे जिन्होंने फर्जी आईडी के बल पर लाभ ले उड़े”।
न्यायमूर्ति केएस पुत्तस्वामी फैसले की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा, “हमारी समझ में, यह कहना कि निजता का अधिकार एक संभ्रांत विचार है और यह समाज के एक बड़े हिस्से की आशाओं और आकांक्षाओं से अलग है, उचित नहीं है...अंततः यह अवश्य ही समझा जाना चाहिए कि सवाल उठाने, जांचने परखने और असहमत होने का अधिकार सजग आम नागरिकों को सरकार के कार्यों की पड़ताल में मदद करता है...”
उन्होंने इस फैसले के उस हिस्से की ओर पीठ का ध्यान खींचा जिसमें कहा गया है कि निजता कोई विशेषाधिकार नहीं है, व्यापक और प्रक्रियात्मक तर्कसंगतता तथा निष्पक्षता के नियम में स्थिरता किसी भी ऐसे क़ानून के लिए अपरिहार्य है जो किसी व्यक्ति को अनुच्छेद 21 के तहत मिले अधिकारों से वंचित करता है या न्यायिक पुनर्विचार की महत्ता से उसको वंचित करता है. उन्होंने कहा, “दो तरह के अल्गोरिथम हैं – निर्धारणात्मक जिसके तहत एटीम कार्ड आते हैं और लाइव अल्गोरिथम। आधार परियोजना के अंतर्गत यह निश्चित नहीं है कि कब सत्यापन को कहा जाएगा और यह किस तरह का होगा”।
उन्होंने कहा कि “पहचान साबित करने की जिम्मेदारी सरकार की है न कि किसी व्यक्ति की”। आधार अधिनियम पसंद पर टिका है”।
श्रेया सिंघल मामला, 2015 में उन्होंने न्यायमूर्ति रोहिंटन नरीमन को उद्धृत किया जिसमें सूचना तकनीक अधिनियम 2002 की धारा 66A को निरस्त कर दिया गया। उन्होंने कहा, “सरकार आएगी और जाएगी; पर क़ानून बचा रहता है”।
निजता के फैसले के संदर्भ में अपेक्षाओं की तर्कसंगतता के बारे में न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ के बयान पर सुब्रमण्यम ने इस फैसले के उस हिस्से को पढ़ा जिसमें एक वैध राज्य द्वारा निजता पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए उसके तीन मानदंडों की चर्चा है – “एक क़ानून का होना जरूरी है; यह नियम उचित लक्ष्य के अधीन हो; और लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन भी अवश्य ही उचित होना चाहिए।”