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कर्नाटक में कंबाला दौड़ पर अंतरिम रोक लगाने से सुप्रीम कोर्ट ने किया इंकार, सुनवाई 14 मार्च को

LiveLaw News Network
12 Feb 2018 9:19 AM GMT
कर्नाटक में कंबाला दौड़ पर अंतरिम रोक लगाने से सुप्रीम कोर्ट ने किया इंकार, सुनवाई 14 मार्च को
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चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस ए एम खानविलकर और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड की बेंच ने कर्नाटक में होने वाली कंबाला दौड़ पर अंतरिम रोक लगाने से इंकार कर दिया।

सोमवार को पीपल फॉर एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल ( PETA) द्वारा दाखिल याचिका के लिए पेश वरिष्ठ वकील सिद्धार्थ लूथरा ने कहा कि फिलहाल कंबाला दौड़ चल रही है और इस पर रोक लगाई जानी चाहिए।

लेकिन चीफ जस्टिस ने अंतरिम रोक से इंकार करते हुए कहा कि वो 14 मार्च को इस मामले की सुनवाई करेंगे।

इसमें कंबाला को कानूनी जामा पहनाने के लिए लाए गए प्रिवेंशन ऑफ क्रूअल्टी टू एनिमल्स (( कर्नाटक अमेंडमेंट) ऑर्डिनेंस, 2017 को चुनौती दी गई है। दरअसल कंबाला खेल कर्नाटक के तटीय इलाकों में जमींदारों व लोगों द्वारा खेला जाता है जो आमतौर पर नवंबर में शुरू होकर मार्च तक चलता है। इसमें भैसों की दौड लगाई जाती है।

दरअसल नवंबर 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक सरकार पर नाराजगी जाहिर करते हुए टिप्पणी की थी कि राज्य ने कंबाला खेल को लेकर विधेयक लाकर संविधान के साथ धोखाधडी कैसे की जबकि विधानसभा द्वारा पास बिल को राष्ट्रपति ने दोबारा से विचार करने के लिए वापस भेज दिया था।

सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस ने अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल से कहा था कि एक तरफ राष्ट्रपति विधानसभा द्वारा पास बिल को मंजूर करने से इंकार करते हैं और इसे फिर से विचार के लिए वापस भेजते हैं। दूसरी तरफ राज्य विधेयक ले आता है। क्या संविधान में इसकी इजाजत है ? क्या कर्नाटक संविधान के साथ धोखाधडी कर सकता है ? AG ने कहा कि ये बिल वापस ले लिया गया था और राष्ट्रपति ने जो तथ्य उठाए थे उनका ध्यान विधेयक में रखा गया। उन्होंने कहा कि क्या राज्य को विधेयक लाने का अधिकार नहीं है ?

PETA की ओर से वरिष्ठ वकील सिद्धार्थ लूथरा ने दलील दी थी कि विधेयक तीन जुलाई को लाया गया जबकि राज्य सरकार ने बिल को 1 अगस्त को वापस लिया। ये जाहिर करता है कि ये विधेयक उस वक्त लाया गया जब बिल लंबित था और इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती।

उन्होंने कहा कि बिल और विधेयक बिल्कुल समान हैं उनके प्रावधानों में कोई बदलाव नहीं है। उन्होंने विधेयक पर रोक लगाने की मांग की। वहीं चीफ जस्टिस ने कर्नाटक सरकार के वकील देवदत्त कामत से पूछा था कि क्या राज्य सरकार की इस खेल में क्या दिलचस्पी है ?

क्या वो ऐसा कुछ कर सकती है जिसकी इजाजत संविधान में नहीं दी जा सकती। इस दौरान जस्टिस चंद्रचूड ने कहा कि प्रिवेंशन ऑफ क्रूअल्टी टू एनिमल्स एक्ट एक केंद्रीय कानून है। जब राज्य सरकार ने बिल पास कर राष्ट्रपति के पास भेजा तो उन्होंने इस आधार पर इसे वापस लौटा दिया क्योंकि ये केंद्रीय कानून से अलग था। क्या राज्य सरकार राष्ट्रपति के इंकार के बाद  विधेयक ला सकती है ? चिंता की बात है कि क्या राज्य के पास ऐसा विधेयक लाने का अधिकार है ?

जब AG ने कहा कि विधेयक के लिए एक तरह से राष्ट्रपति की सहमति थी, तो जस्टिस चंद्रचूड ने कहा कि जब राष्ट्रपति ने बिल लौटा दिया और वो वैध नहीं है तो विधेयक कैसे वैध हो सकता है ?

वहीं कामत ने कहा कि ये खेल करीब 1000 साल से कर्नाटक के दो जिलों में खेला जाता है और इसे लेकर राज्य सरकार ने दिशा निर्देश जारी किए हैं। इसमें कोई अत्याचार नहीं है। उन्होंने PETA पर सवाल उठाते हुए कहा कि ये अमेरिका की है और ये नहीं सिखा सकते कि जानवरों से कैसा व्यवहार किया जाए। AG ने कहा कि राज्य को अपने लोगों की भावनाओं का भी ध्यान रखना होता है और ये खेल सैंकडों सालों से चल रहा है। वो 16 साल तक मंगलौर में रहे और उन्होंने देखा है कि लोग इस खेल से कितना प्यार करते हैं। कोर्ट को इस मामले में दखल नहीं देना चाहिए जब तक कोई अत्याचार ना हो। कोर्ट इसके लिए कोई कडे दिशा निर्देश जारी कर सकता है।

दरअसल पिछले साल फरवरी में कर्नाटक सरकार ने पारंपरिक भैसों की दौड कंबाला को कानूनी बनाने के लिए संशोधन बिल पास किया था। ये तमिलनाडू सरकार द्वारा जलीकट्टू की इजाजत देने के लिए बिल पास करने के बाद किया गया। नवंबर 2016 में कर्नाटक हाईकोर्ट ने PETA की याचिका पर अंतरिम आदेश के जरिए इस खेल पर रोक लगा दी थी। इसके खिलाफ लोगों के गुस्से को देखते हुए सरकार को बिल और विधेयक लाना पडा।

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