एक देश-एक चुनाव : सरकार इसके लिए पहले जनमत बनाए और पूरा होमवर्क करके ही इस पर कोई निर्णय ले
LiveLaw News Network
8 Feb 2018 7:35 AM GMT
बजट सत्र की शुरुआत के मौके पर संसद के संयुक्त अधिवेशन में राष्ट्रपति ने अपने अभिभाषण में एक बार पुनः लोकसभा तथा विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की आवश्यकता पर बल दिया. प्रधानमंत्री ने भी पिछले कई मौकों पर “एक देश-एक चुनाव” के लिए जनमत बनाने की अपील की है. कहा जा रहा है कि 28 राज्यों वाले देश में हमेशा कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं,जिससे दैनिक कार्यों में रुकावट आती है और विकास बाधित होता है. सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों एलेक्शन मोड में रहते हैं, आरोपों-प्रत्यारोपों का सतत दौर चला करता है तथा आदर्श चुनाव संहिता लगने के कारण सरकारी कामकाज की गति प्रभावित होती है. यही नहीं, इन चुनावों के नतीजे केंद्र सरकार के कामकाज का प्रतिबिम्ब करार दिए जाते हैं तथा हर विजेता इसको अपने पक्ष में प्रचारित करता पाया जाता है. यूं तो जनतंत्र में चुनाव रूटीन की बात होनी चाहिए लेकिन हर हार जीत को राजनीतिक पार्टियाँ जिस तरह जनता के सामने परोसती हैं उससे यह बहुआयामी बन जाता है और मीडिया के अपनी भूमिका से भटककर किसी न किसी पक्ष का साथ देने के कारण पूरा परिदृश्य बहुत ही असंयत हो जाता है और माहौल बिगड़ जाता है.
सन 1967 तक, अपवादों को छोड़कर, लोकसभा तथा विधानसभाओं के चुनाव साथ ही होते थे. लेकिन 1971 में इंदिरा गाँधी ने लोकसभा भंग कर समय से पूर्व चुनाव कराये थे. कांग्रेस विभाजन के बाद हुए इस चुनाव में उन्हें भारी बहुमत मिला था. 1975 में आपातकाल के समय लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाया गया लेकिन जब 1977 में चुनाव हुए तो जनता पार्टी प्रचंड बहुमत से जीती. उस समय उत्तर भारत के नौ राज्यों में कांग्रेस की सरकारें थीं लेकिन सभी में कांग्रेस का सफाया हो गया था और राष्ट्रपति ने इनकी विधानसभाओं को भंग कर नया जनादेश प्राप्त करने की सलाह दी जिसे न्यायलय में चुनौती दी गयी. राजस्थान राज्य बनाम भारत संघ (1977) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति की सलाह को राजनीतिक प्रश्न मानते हुए इसमें दखल देने से मना कर दिया था. केंद्र सरकार का मत था कि लोकसभा चुनाव में हार का अर्थ है कि कांग्रेस आम नागरिकों का विश्वास खो चुकी है अतः उसे सत्ता में बने रहने का अधिकार नहीं है. बाद में हुए चुनावों में इन सभी राज्यों में जनता पार्टी की जीत हुई और उसकी सरकार बनी.
केंद्र में किसी दल की जीत होने पर राज्य की विधानसभा को भंग कर चुनाव कराने का यह सिलसिला चलता रहता यदि 1994 में एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ के सुप्रसिद्ध मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने इस पर रोक नहीं लगाया होता. इस वाद में आए फैसले से निर्धारित किया गया कि एक संघीय संविधान में केंद्र और राज्यों के चुनाव अलग-अलग आधारों पर होते हैं. अतः राज्य सरकार को इस आधार पर बर्खास्त नहीं किया जा सकता कि लोकसभा में वह दल पराजित हो गया है जिसकी सरकार है. इस निर्णय के बाद से राज्य सरकारों को बर्खास्त कर मध्यावधि चुनाव की परिपाटी पर लगाम लग गया. सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय उन दलों के लिए संजीवनी बन कर आया जो क्षेत्रीय हैं और प्रायः राज्य विशेष तक ही सीमित हैं. “एक देश-एक चुनाव” का मुखर विरोध भी यही दल कर रहे हैं.
एक संघीय संविधान में राज्य तथा केंद्र दो इकाई हैं. सातवीं अनुसूची में इनके मध्य विधायी शक्तियों का बंटवारा है. अन्य उपबन्धों में प्रशासकीय तथा वित्तीय सम्बंधों का प्रावधान है. तर्क की कसौटी पर यह कहना सही हो सकता है कि दोनों के क्षेत्र अलग-अलग हैं तथा जनादेश भी उन्ही कार्यों के लिए होगा लेकिन जमीनी हक़ीकत यह है कि नगरपालिका या जिला पंचायतों तक के चुनावों की हार-जीत का विश्लेषण केंद्र में सत्तासीन दल के परिप्रेक्ष्य में किया जाता है. अमेरिका या इंग्लैंड की भांति भारत में दो ही राष्ट्रीय दल नहीं हैं. यहाँ विभिन्न दलों के गठबन्धन हैं तथा विभिन्न दल अपने स्थानीय हितों के लिए अधिक संवेदनशील हैं. चुनावों में अक्सर दल की बजाय व्यक्ति विशेष की महत्ता होती है. अमेरिका की भांति भारत में किसी भी दल में प्राइमरी या दलीय चुनाव नहीं होते हैं.
संसदीय प्रणाली तथा अध्यक्षीय प्रणाली की अपनी विशेषताएं हैं. यह माना जाता है कि संसदीय प्रणाली एक उत्तरदाई शासन देती है जब कि अध्यक्षीय प्रणाली स्थायित्व देती है. अमेरिका में राष्ट्रपति तथा संसद दोनों का कार्यकाल निश्चित होता है तथा वहां चुनाव तय समय पर ही होता है जबकि इंग्लैंड में संसद भंग करना कोई विशेष बात नहीं होती. वहां माना जाता है कि जैसे ही आवश्यकता महसूस हो नया जनादेश लेना ही बेहतर विकल्प है. अक्सर सत्तारूढ़ दल में नेतृत्व परिवर्तन चुनाव की सीटी बजा देता है. संविधान निर्माताओं ने अपने यहाँ स्थायित्व से अधिक उत्तरदाई शासन पर विश्वास व्यक्त किया है. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इंग्लैंड हमारे उत्तर प्रदेश से भी छोटा है, संघीय नहीं बल्कि ऐकिक है तथा वहां राज्यों की स्थिति वही है जो हमारे यहाँ नगरपालिकाओं की है.
इसमें कोई संदेह नहीं कि बार-बार चुनावों से आर्थिक बोझ ज्यादा पड़ता है, प्रशासकीय दिक्कतें आती हैं तथा सरकारी कामकाज थम सा जाता है. आचार संहिता लागू होते ही ओपीनियन पोल पर रोक लगा दी जाती है और नीति संबंधी नई घोषणाओं पर पाबंदी लग जाती है. यदि कई जगह चुनाव हो रहे हैं तो वोट पड़ने के बाद मतपेटियां हफ़्तों बंद रहती हैं क्योंकि परिणामों से अगले चरण के चुनाव या दूसरे राज्य में होने वाले चुनाव प्रभावित हो सकते हैं. चुनाव परिणामों का राजनीतिक ही नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक प्रभाव होता है जो देश के अन्दर ही नहीं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बहस का मुद्दा बनता है. भारत जैसे विकासशील देश को हमेशा चुनावी मोड में रखने की वकालत नहीं की जा सकती. लेकिन जैसा संघ हमने बनाया है उसमें क्षेत्रीय दलों की अनदेखी भी नहीं की जा सकती. यह क्षेत्रीय दल लोकसभा में अपनी स्थिति के कारण राजनीतिक मोल-भाव करते हैं और सत्तासीन सरकारें अक्सर उनके सामने निरीह सिद्ध हुईं हैं.
मीडिया में कयास लगाए जा रहे हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव के साथ किस प्रकार अधिक से अधिक राज्यों के चुनाव कराये जा सकते हैं. कतिपय क्षेत्रों में संविधान में संशोधन करने की भी बात कही जा रही है, लेकिन यह इतना आसान नहीं है क्योंकि क्षेत्रीय दल विरोध कर रहे हैं.
एक साथ चुनाव कराने से राजनीति में धनबल तथा अपराधीकरण पर अंकुश लगेगा तथा स्थानीय कार्यकर्ताओं की अहमियत बढ़ेगी. 1967 तक संसद का चुनाव लड़ने वाले स्थानीय नेताओं पर ही निर्भर रहते थे. तब राजनीति नीचे से ऊपर होती थी जबकि अब यह मामला उलट गया है. “एक देश-एक चुनाव” के लिए जनमत बनाने की जरूरत है तथा इस पर पूरा होमवर्क करके ही कोई निर्णय लिया जाना बेहतर होगा. स्थायित्व तथा उत्तरदायित्व को एक दूसरे का प्रतिस्पर्धी नहीं बल्कि एक दूसरे का पूरक बनना चाहिए.
(पूर्व अधिष्ठाता एवं अध्यक्ष, विधि विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय तथा बनस्थली विद्यापीठ)