आधार पर 7वें दिन भोजनावकाश के बाद की बहस : सिबल ने कहा, आधार अधिनियम नागरिकों के लिए वैसा ही है जैसा सूचना का अधिकार सरकार के लिए

LiveLaw News Network

7 Feb 2018 9:11 AM GMT

  • आधार पर 7वें दिन भोजनावकाश के बाद की बहस : सिबल ने कहा, आधार अधिनियम नागरिकों के लिए वैसा ही है जैसा सूचना का अधिकार सरकार के लिए

    भोजनावकाश के बाद मंगलवार को जब आधार पर सुनवाई शुरू हुई तो वरिष्ठ एडवोकेट कपिल सिबल ने अपनी दलील में कहा, “आधार अधिनियम नागरिकों के लिए वैसा ही है जैसा सूचना का अधिकार सरकार के लिए”।

    उन्होंने कहा, “कोई तकनीक ऐसी नहीं है जो पूरी तरह सुरक्षित हो और उसमें कोई कमी नहीं हो।”

    न्यायमूर्ति एके सिकरी ने पूछा, “तो क्या आप यह सुझाव दे रहे हैं कि हमें तकनीक का प्रयोग करना बंद कर देना चाहिए?”

    सिबल ने कहा, “नहीं। पर आधार का मामला कुछ और है क्योंकि इस परियोजना के तहत जिन तकनीकों के प्रयोग की बात है वह संवेदनशील डाटा के प्रेषण की बात करता है। मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाल में दिए गए बयान से सहमत हूँ कि जो डाटा को नियंत्रित करता है उसी के पास दुनिया पर धाक जमाने की ताकत होती है। इसी वजह से किसी खोज का पेटेंट कराने की जरूरत होती है। ऊबर और गूगल जैसे निगमों के लिए सूचना बहुत बड़ी परिसंपत्ति है”।

    “अनुच्छेद 21 यह कहता है कि सरकार का कोई भी कदम व्यापक रूप से और प्रक्रियागत रूप से अवश्य ही तर्कसंगत होना चाहिए। पर नागरिकों को अपने उँगलियों के निशान देने और इसकी सुरक्षा की कोई गारंटी सरकार से नहीं मिलना तर्कसंगत नहीं है। फिर, पहचान के लिए जबरदस्ती किसी एक तरह के प्रूफ को थोपना और इस प्रूफ को हकदारी से जोड़ना स्वीकार्य नहीं है”, सिबल ने कहा। उन्होंने इस बारे में अहमदाबाद सैंट ज़ेवियर्स कॉलेज बनाम गुजरात सरकार (1975) मामले में नौ जजों की पीठ के फैसले का जिक्र किया।

    सिबल ने यह बात दोहराई कि पश्चिमी देशों में बायोमेट्रिक एक प्रभावी प्रूफ हो सकता है क्योंकि वहाँ एक ही नस्ल के लोग हैं, पर भारत में सत्यापनों की विफलता की दर काफी अधिक है।

    सिबल ने कहा, “अमरीका में ऐसा नहीं है पर भारत में राज्य जो भी कदम उठाएगा वह संविधान की भावना विशेषकर अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तहत होगा। अगर किसी व्यक्ति की पूरी जीवनावधि के दौरान इतना व्यापक डाटा जमा किया जाता है और उसको आधार परियोजना के तहत अपने पास रखा जाता है तो यह अनुच्छेद 20(3) के तहत स्व-अभियोजन के खिलाफ अधिकार पर प्रतिबन्ध होगा”।

    इसके बाद सिबल ने आधार से जुड़ी चिंताओं का एक विहंगम दृश्य पेश किया – संवेदनशील निजी डाटा को बिना पर्याप्त सुरक्षा के डिजिटल स्पेस में नहीं रखा जाना चाहिए क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक स्पेस भौतिक संसार की तुलना में ज्यादा खतरों से भरा है; डिजिटल स्पेस में ऊंचे दर्जे की सुरक्षा सुनिश्चित करना लगभग असंभव है; एक बार जब गोपनीय डाटा इलेक्ट्रॉनिक स्पेस में रख दिया जाता है, तो उसको फिर वापस नहीं किया जा सकता; डिजिटल स्पेस हो सकता है कि अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के लिए लाभदायक हो, पर इसको सूचनात्मक नीति में तब्दील करने का मौलिक अधिकार पर असर होगा।

    सिबल ने कहा, “आधार अधिनियम 2016 की धारा 3(1) ‘हकदार होगा’ जैसे शब्दों का प्रयोग करता है, पर इसी अधिनियम की धारा 7 आधार को अनिवार्य बनाने की बात करता है।” फिर, अधिनियम के लागू होने के पहले जिन लोगों का पंजीकरण किया गया उनको परामर्श नहीं दिया गया जैसा कि धारा 3(2) में बताया गया है”।

    न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, “यह सब्सिडी, लाभ और सेवाओं के लिए ही आवश्यक है जो कि भारत सरकार की समेकित निधि से जुड़ा हुआ है।”

    सिबल ने कहा, “मेरा भी यही कहना है। धारा 57 पूरी तरह असंवैधानिक है”। सिबल ने कहा कि आयकर अधिनियम 1961 और 2017 के मनी लौंडरिंग रूल्स ने भी आधार का समर्थन किया है।

    न्यायमूर्ति एके सिकरी ने कहा, “जहाँ तक मनी लौंडरिंग रूल्स की बात है, ऐसा लगता है कि सरकार यह समझ रही है कि हर नागरिक काले धन को सफ़ेद करने का कारोबार करता है”।

    सिबल ने कहा, ‘धारा 8 के तहत डाटा जमा करने से पहले नागरिकों की सहमति प्राप्त करने के लिए एक निकाय ‘रिक्वेस्टिंग एंटिटी’ होनी चाहिए। पर सहमति का प्रश्न ही यहाँ कहाँ है जब हर काम के लिए बायोमेट्रिक सत्यापन के लिए कहा जाता है। बच्चों से कौन उनकी सहमति ले रहा है?”

    न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने पूछा, “नागरिकों से सहमति लने वाली वह ‘रिक्वेस्टिंग एंटिटी’ कहाँ है? धारा 2(u) की व्याख्या बहुत ही व्यापक है”। सिबल ने आधार (ऑथेंटिकेशन) रेगुलेशन, 2016 के शेड्यूल ‘A’ की चर्चा की जिसमें ‘रिक्वेस्टिंग एंटिटी’ की नियुक्ति की क्या शर्तें हैं उसकी चर्चा है।

    सिबल ने धारा 8(3)(c) पर भरोसा करते हुए कहा कि आधार आवश्यक नहीं है।

    फिर उन्होंने ऑथेंटिकेशन रेगुलेशन के रेगुलेशन 26 की चर्चा की यह बताने के लिए कि किसी व्यक्ति की सभी सूचनाओं की जानकारी वास्तव में मेटाडाटा देता है और वह अनुच्छेद 20(3) पर प्रहार है।

    उन्होंने कहा कि रेगुलेशन 28 के तहत कोई व्यक्ति अपने सत्यापन डाटा तक सिर्फ छह माह के अंदर तक ही पहुँच सकता है और इसके बाद इसे रेगुलेशन 27 के तहत आर्काइव में रख दिया जाता है जहाँ राज्य उसका 5 साल तक उसका अध्ययन कर सकता है।

    सिबल ने कहा, ‘अगर राज्य व्हाट्सएप या गूगल को किसी व्यक्ति के बारे में सूचना देने के लिए बाध्य करता है तो ऐसा करने के लिए न्यायिक आदेश की जरूरत होती है। लेकिन आधार को इस सबसे कोई मतलब नहीं है। फिर गूगल, व्हाट्सएप, ट्विटर आदि में इस व्यवस्था से बाहर आने का विकल्प है पर ऐसा आधार में नहीं है”।

    न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, “लेकिन आज की दुनिया में इस तरह की सूचनाएं सहमति से निजी निकायों के साथ भी साझा की जाती हैं”।

    सिबल ने कहा, “सरकार की तुलना निजी कम्पनियों जैसे गूगल, व्हाट्सएप आदि से नहीं की जा सकती। इन निकायों के विकल्प उपलब्ध हैं। यहाँ तक कि उनकी संरचना के अधीन भी नियंत्रण और चुनाव के उपाय हैं। फिर, गूगल हमको लाभ देने के लिए डाटा का उपयोग करता है जबकि आधार इस पर प्रतिबन्ध लगाता है”।

    आधार नंबर को निष्क्रिय किए जाने के बारे में सिबल ने कहा, “गलती से किसी नंबर को निष्क्रिय किए जाने की स्थिति में सुधार होने तक ग्रामीण क्षेत्रों में इसका क्या असर पड़ेगा?” उन्होंने कहा कि यूआईडीएआई अगर उचित समझता है तो उसे किसी भी नंबर को निष्क्रिय करने का अधिकार है।

    न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ ने कहा, “सिर्फ इसलिए कि किसी क़ानून का दुरूपयोग हो सकता है, उसको असंवैधानिक करार नहीं दिया जा सकता”।

    सिबल ने बिजनेस स्टैण्डर्ड में मंगलवार को डिजिटल भुगतान से आधार को जोड़ने के बारे में छपी एक खबर का हवाला दिया।

    न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, “किसी क़ानून की संवैधानिक वैधता का निर्णय सामान्य रूप से होना चाहिए न कि किसी विशेष मामले को देखते हुए”।

    न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने पूछा, “अदालत कैसे यह निर्धारित कर सकता है कि क़ानून के तहत कितना अधिकार खतरनाक हो सकता है? क्या यह प्रश्न अदालत के अधिकार क्षेत्र में आता भी है कि वह इस पर अपना निर्णय दे?”

    इस मामले पर बहस बुधवार को जारी रहेगा।

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