अभियुक्त के नाम का गैर-उल्लेख, एफआईआर पर संदेह करने का आधार नहीं : सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़ें]
LiveLaw News Network
1 Feb 2018 11:53 AM IST
सदमे की स्थिति में कई बार, वे (गवाह) महत्वपूर्ण विवरणों को याद कर सकते हैं, क्योंकि लोग हिंसक कृत्य के दौरान अलग-अलग प्रतिक्रिया करते हैं, बेंच ने कहा।
सुप्रीम कोर्ट ने लातेश @ दादू बाबूराव करलेकर बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले में दोहराया है कि सिर्फ इसलिए कि अभियुक्तों के नाम नहीं बताए गए हैं और उनके नाम एफआईआर में दर्ज नहीं किए गए हैं, एफआईआर को लेकर संदेह का आधार नहीं हैं और इसे लेकर कोर्ट द्वारा एफआईआर और अभियोजन पक्ष का मामला फेंका नहीं जा सकता है।
इस मामले में जस्टिस एन.वी. रमना और जस्टिस अमिताव रॉय की बेंच ने एफआईआर में आरोपी के नामों का उल्लेख नहीं करने पर बचाव पक्ष की दलीलों को सुन रही थी। यह मामला एक हत्या की घटना से संबंधित है, जो वर्ष 2006 में हुआ था और हाईकोर्ट ने मामले में पांच अभियुक्तों की सजा को बरकरार रखा था।
बेंच ने कहा: "जब कोई व्यक्ति पुलिस अधिकारी को बयान देता है, जिसके आधार पर एफआईआर दर्ज है। चीजों को दोबारा याद करने की क्षमता लोगों में अलग अलग होती है।
कुछ लोगों में चीजों को पुन: उत्पन्न करने की क्षमता हो सकती है, लेकिन कुछ में ऐसा करने की क्षमता की कमी हो सकती है।
सदमे की स्थिति में कुछ समय बादवे महत्वपूर्ण विवरण याद कर सकते हैं, क्योंकि लोग हिंसक कृत्य के दौरान अलग-अलग प्रतिक्रिया करते हैं। "
अदालत ने यह भी कहा कि वर्तमान मामले में, जब एक बार सूचनाकर्ता सदमे से बाहर हो गया तो उसका पूरक बयान दर्ज किया गया और उन्होंने आरोपी के नामों का खुलासा किया। साथ ही आरोपी के प्रत्येक आरोपों को विशेष उल्लिखित कृत्य का श्रेय दिया। अदालत ने कहा कि एफआईआर को घटना की एक विश्वकोश बनाने की जरूरत नहीं है जिसमें बारीब्योरा और अपराध कैसे किया गया था, इसके उदाहरण सामने आये। बेंच ने तीन अपीलकर्ताओं की सजा को बरकरार रखा और दो को बरी कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने लातेश @ दादू बाबूराव करलेकर बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले में दोहराया है कि सिर्फ इसलिए कि अभियुक्तों के नाम नहीं बताए गए हैं और उनके नाम एफआईआर में दर्ज नहीं किए गए हैं, एफआईआर को लेकर संदेह का आधार नहीं हैं और इसे लेकर कोर्ट द्वारा एफआईआर और अभियोजन पक्ष का मामला फेंका नहीं जा सकता है।
इस मामले में जस्टिस एन.वी. रमना और जस्टिस अमिताव रॉय की बेंच ने एफआईआर में आरोपी के नामों का उल्लेख नहीं करने पर बचाव पक्ष की दलीलों को सुन रही थी। यह मामला एक हत्या की घटना से संबंधित है, जो वर्ष 2006 में हुआ था और हाईकोर्ट ने मामले में पांच अभियुक्तों की सजा को बरकरार रखा था।
बेंच ने कहा: "जब कोई व्यक्ति पुलिस अधिकारी को बयान देता है, जिसके आधार पर एफआईआर दर्ज है। चीजों को दोबारा याद करने की क्षमता लोगों में अलग अलग होती है।
कुछ लोगों में चीजों को पुन: उत्पन्न करने की क्षमता हो सकती है, लेकिन कुछ में ऐसा करने की क्षमता की कमी हो सकती है।
सदमे की स्थिति में कुछ समय बादवे महत्वपूर्ण विवरण याद कर सकते हैं, क्योंकि लोग हिंसक कृत्य के दौरान अलग-अलग प्रतिक्रिया करते हैं। "
अदालत ने यह भी कहा कि वर्तमान मामले में, जब एक बार सूचनाकर्ता सदमे से बाहर हो गया तो उसका पूरक बयान दर्ज किया गया और उन्होंने आरोपी के नामों का खुलासा किया। साथ ही आरोपी के प्रत्येक आरोपों को विशेष उल्लिखित कृत्य का श्रेय दिया। अदालत ने कहा कि एफआईआर को घटना की एक विश्वकोश बनाने की जरूरत नहीं है जिसमें बारीब्योरा और अपराध कैसे किया गया था, इसके उदाहरण सामने आये। बेंच ने तीन अपीलकर्ताओं की सजा को बरकरार रखा और दो को बरी कर दिया।
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