2017 के अंत तक मौत की सजायाफ्ता 371 कैदी, 2016 से 27% कम [रिपोर्ट पढ़ें]
LiveLaw News Network
25 Jan 2018 9:03 PM IST
देश में 2017 के अंत तक कुल मौत की सजायाफ्ता 371 कैदी हैं जो 2016 में 27 प्रतिशत कम है जब 399 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई थी। ये आंकड़े 'भारत में मौत की सजा, वार्षिक सांख्यिकी रिपोर्ट' के दूसरे संस्करण का हिस्सा हैं, जो कानून विश्वविद्यालय (NLU-D), मौत की सजा के केंद्र द्वारा प्रकाशित किए गए हैं।
ये राष्ट्रीय रिपोर्ट व्यापक अनुसंधान और विश्लेषण का परिणाम है जिसमें सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005 (आरटीआई) के तहत 200 आवेदन पत्र शामिल हैं जो सभी जेलों और गृह विभाग, हाईकोर्ट पूरे भारत के राज्यपाल के कार्यालयों को भेजे गए। इन संख्याओं में सेशन कोर्ट द्वारा सुनाई गई मौत की सजा और अपीलीय अदालतों द्वारा बरी किए जाने और सजा कम करना शामिल है।
31 दिसंबर, 2017 तक मौत की सजा पाने वाले कैदियों की कुल संख्या 371 है, जिसमें सेशन कोर्ट द्वारा 109 लोगों को सुनाई गई सजा शामिल है जबकि 2016 में 149 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई।
इनमें से 53 की सजा को कम कर दिया गया जबकि 35 को बरी किया गया। 11 लोगों की सजा की हाईकोर्ट ने पुष्टि की और सात मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने सजा को बरकरार रखा। इन सात मामलों में चार कैदियों की एक ही अपील थी जबकि तीन कैदियों की पुनर्विचार याचिका थी।
सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में किसी भी कैदी को बरी नहीं किया ना ही सजा कम की। 2016 में असम, दिल्ली, गुजरात, ओडिशा, तेलंगाना और त्रिपुरा राज्यों में मौत की सजा दी गई लेकिन 2017 में इन राज्यों में एक भी ऐसी सजा नहीं दी गई।
2017 में मौत की सजा सुनाए जाने के कर्नाटक में 23, उत्तर प्रदेश में 19, तमिलनाडु में 13, बिहार में 11 और राजस्थान में आठ, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल में छह-छह मामले हुए।
अपराधों की प्रकृति देखें तो 43 लोगों को यौन हिंसा से जुडी हत्या के लिए मौत की सजा सुनाई गई। यह आंकड़ा वर्ष 2016 में 23 था।
वर्ष 2017 में 53 लोगों को हत्या के लिए मौत की सजा सुनाई गई जो 2016 में 87 थी। 2017 में भारत में उच्च न्यायालयों ने 99 कैदियों से जुड़े मामलों का निपटारा किया यानी पिछले साल की तुलना में 26 अधिक।
हाईकोर्ट द्वारा सजा कम करने के मामलों में 2017 में उल्लेखनीय वृद्धि देखी, जबकि पुष्टि की संख्या में कमी आई है। कुल मिलाकर कर्नाटक हाईकोर्ट में 26 कैदियों के 26 मामलों का निपटारा किया गया (भारत में सभी हाईकोर्ट में सबसे ज्यादा) 4 कैदियों की मौत की सजा की पुष्टि, 10 की सजा कम और 12 को बरी किया गया।
रिपोर्ट में सुप्रीम कोर्ट के 2015 के फैसले की भी बात है, जिसमें यूनियन ऑफ इंडिया बनाम श्रीहरन नाम दिया गया है, जिसमें यह निर्धारित किया गया था कि आजीवन कारावास का मतलब किसी के प्राकृतिक जीवन के शेष के लिए कारावास हो सकता है।
2017 में 51 कैदियों में से 10 कैदी जिनकी मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया था, उन्हें श्रीहरन मामले के तहत सजा सुनाई गई। एक कैदी को 30 साल की जेल की सजा सुनाई गई, एक को 20 साल और एक को पूरे जीवन के लिए। इन मामलों में संबंधित उच्च न्यायालयों ने एक निश्चित अवधि निर्धारित की, जिसके दौरान कैदी को वैधानिक छूट नहीं दी जा सकती थी। एक मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कैदी की शेष ज़िंदगी के लिए वैधानिक छूट की संभावना को खारिज कर दिया।
2017 में सुप्रीम कोर्ट ने मृत्युदंड पर केवल एक अपील का फैसला किया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2017 में मृत्युदंड के एक मामले में अपील पर फैसला किया गया जो कि सबसे सनसनीखेज 2012 दिल्ली गैंगरेप मामला मुकेश बनाम दिल्ली सरकार है जिसमें अदालत ने दिल्ली हाईकोर्ट के मार्च 2014 के चार दोषियों को मौत की सजा के फैसले की पुष्टि पर अपनी मुहर लगाई थी।
इसकी तुलना में सुप्रीम कोर्ट ने 2016 में सात आपराधिक अपीलों का फैसला किया, कोई भी पुष्टि नहीं की, सात मामलों में सजा कम की और तीन कैदियों को बरी किया।
2017 में राष्ट्रपति द्वारा 9 दया याचिकाओं का निपटारा किया गया
भारत के राष्ट्रपति ने 2017 के दौरान 9 दया याचिकाओं का निपटारा किया, जो कि 2016 के दौरान 6 था। 2017 में 9 में से 5 को खारिज कर दिया गया और अन्य 4 में सजा को कम कर दिया गया। 2016 में राष्ट्रपति द्वारा केवल एक कैदी की सजा कम की गई और 5 कैदियों की दया याचिकाओं को खारिज कर दिया गया।
2017 में ऋषि मल्होत्रा द्वारा दायर की गई एक याचिका में मौत की सजा के तरीके के तौर पर फांसी को चुनौती दी।इसमें चीफ जस्टिस की बेंच द्वारा नोटिस जारी किया गया है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि "2017 एक ऐसा वर्ष रहा है जिसने भारत में मौत की सजा के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण चुनौतियां पेश की हैं। 2017 में सत्र न्यायालयों द्वारा मृत्युदंड के लिए कैदियों की संख्या में करीब 27% की कमी हुई है (2016 की तुलना में) तो वहीं महत्वपूर्ण विधायी विकास हुए हैं जो भारतीय दंडीय विधान कल्पना में मृत्युदंड की भूमिका को बढ़ाते हैं।”