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आधार पर चौथे दिन की सुनवाई [सत्र 2] : आधार जिस बुनियाद पर खड़ा है वह राज्य की निगरानी को बढ़ावा देता है : एडवोकेट श्याम दीवान
![आधार पर चौथे दिन की सुनवाई [सत्र 2] : आधार जिस बुनियाद पर खड़ा है वह राज्य की निगरानी को बढ़ावा देता है : एडवोकेट श्याम दीवान आधार पर चौथे दिन की सुनवाई [सत्र 2] : आधार जिस बुनियाद पर खड़ा है वह राज्य की निगरानी को बढ़ावा देता है : एडवोकेट श्याम दीवान](http://hindi.livelaw.in/wp-content/uploads/2018/01/sHYAM-dIVAN-cHANDRACHUD-kAPIL-sIBAL.jpg)
भोजनावकाश के बाद आधार अधिनियम पर बहस दुबारा शुरू हुई और वरिष्ठ वकील श्याम दीवान ने पांच सदस्यीय संविधान पीठ से कहा कि आधार की बुनियाद एक ऐसी संरचना पर खड़ी है कि यह राज्य की ओर से निगरानी को बढ़ावा देता है।
दीवान ने कहा कि कि लोगों से जमा किए गए जनसांख्यिकीय और बायोमेट्रिक आंकड़े सेंट्रल आइडेंटिटीज डाटा रिपॉजिटरी (सीआईडीआर) में रखा गया है और यह कई सालों तक यहाँ पड़ा रहेगा। सरकार को एक नागरिक से उसके पूरे जीवनावधि के दौरान सूचना इकट्ठा करने का अधिकार है। इस तरह के रिकॉर्ड जिसको कि जीवन की पूरी अवधि के दौरान इकट्ठा किया जाएगा, वह उस व्यक्ति या यहाँ तक कि समाज के एक पूरे हिस्से का पूरा प्रोफाइल रच देगा। इस तरह की निगरानी संविधान की दृष्टि से खराब है।
सीआईडीआर के तकनीकी परिणामों की चर्चा करते हुए दीवान ने कहा, “प्रत्येक इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस जो इन्टरनेट का प्रोयग करता है उसको पहचान का एक विशेष नंबर दिया जाता है। अब जब यह डिवाइस सीआईडीआर से खुद को जोड़ता है तो उसको फिर एक विशिष्ट आईडी दिया जाता है। इस तरह से उससे निकलने वाली हर सूचना के बारे में जाना जा सकता है। फिर इसका संप्रेषण एक विशिष्ट डिजिटल रास्ता अपनाता है जिससे वह उन सभी लिंक की पहचान कर सकता है जिससे होकर यह सूचना गुजरी है।”
दीवान ने कहा, “इस तरह, किसी समय इस तरह के किसी डिवाइस के स्थान और इसके प्रयोग की सूचना के संप्रेषण के बारे में जाना जा सकता है। खंड 57 निगरानी की परिधि और उसकी गहराई को और बढ़ाएगा।” आधार अधिनियम 2016 का खंड 57 सरकार और गैर-सरकारी संस्थाओं को आधार के प्रयोग की अनुमति देता है।
अपनी दलील के समर्थन में दीवान ने ऐसे दो लोगों की ओर से हलफनामा दायर किया जो इसके तकनीकी पक्ष को जानने वाले व्यक्ति हैं।
इस हलफनामे के बाबत दीवान ने कहा, “आधार कार्यक्रम उन व्यक्तियों की वास्तविक समय और उसके बाद भी निगरानी को संभव बनाता है जो इसके तहत पंजीकृत हैं...जब सत्यापन (authentication) को कहा जाता है तो व्यक्ति के स्थान और कार्य की प्रकृति के बारे में जाना जा सकता है। अगर बायोमेट्रिक की चोरी हो जाती है तो उसको न तो बदला जा सकता है और न ही उसकी जगह कुछ और डाला जा सकता है...अगर देश के सैनिकों को मिलने वाले वेतन को आधार से जोड़ दिया जाता है और अगर आधार प्रणाली को कोई हैक कर देता है तो देश की सुरक्षा को इससे बड़ा ख़तरा हो सकता है। यूआईडीएआई के लिए किए गए एक डेमो में यह खुलासा हुआ कि उँगलियों के निशान का बहुत आसानी से नक़ल किया जा सकता है...उँगलियों के निशान को पढने वाले और अन्य मशीनें देश में नहीं बनाई जातीं और विदेश में बैठे उनको बनाने वाले बहुत आराम से ये डाटा हथिया सकते हैं... ।”
इस पर न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने पूछा, “यह अदालत किस हद तक तकनीकी बातों पर चर्चा करती रहेगी? फिर, अपने आइफोन के लिए उँगलियों के निशान का प्रयोग आधार परियोजना में इसके प्रयोग से कैसे अलग है? ...यह जानते हुए कि हर सुरक्षा प्रणाली में खामियां होती हैं, क्या हमें सरकार के निर्णय पर संदेह होना चाहिए?”
दीवान ने कहा, “हलफनामे में कहा गया है कि आधार कार्डधारकों के समय, स्थान और वजह की व्यापक निगरानी होती है।”
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने पूछा, “गूगल मैप्स द्वारा ट्रैकिंग का तो हम विरोध नहीं करते?”
दीवान ने कहा, “गूगल राज्य नहीं है। जब सरकार नागरिकों की इस हद तक निगरानी करती है तो यह पुलिसिया राज्य को जन्म देता है जो कि संविधान की भावना के विरुद्ध है। दूसरा, राज्य की इस निगरानी को जनता की सहमति नहीं मिली हुई है।”
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने पूछा, “कल्याणकारी खर्च और काले धन को सफ़ेद बनाने की घटना और आतंकवाद को देखते हुए, सिर्फ डाटा जमा करना कैसे गलत हो सकता है? राज्य को यह जानने का अधिकार है कि मैं कर चुका रहा हूँ कि नहीं। निगरानी की चिंता तो तभी उठनी चाहिए जब इस तरह की सूचना का दुरूपयोग होता है।”
इसका उत्तर देते हुए वरिष्ठ वकील कपिल सिबल ने कहा, “चिंता इस तरह के संवेदनशील डाटा का सरकार के साथ साझा करने की जरूरत से है।” “बिग ब्रदर “ किसी दिन ये डाटा बिना हमसे पूछे प्रयोग करके “बिगर ब्रदर” बन सकता है।
दीवान ने खड़क सिंह बनाम उत्तर प्रदेश मामले (1964) में न्यायमूर्ति सुब्बा राव के विरोधी फैसले पर भरोसा करते हुए इसको उद्धृत किया : “निगरानी के साए में याचिकाकर्ता का होना निश्चित रूप से उसको स्वतंत्रा से वंचित करना है। वह शारीरिक रूप से घूम-फिर सकता है पर वह ऐसा स्वतंत्र होकर नहीं कर सकता, क्योंकि उसकी उसकी सभी गतिविधियों पर नजर रखी जा रही है...वह अपनी इच्छानुसार काम नहीं कर सकता।”
दीवान ने जिला रजिस्ट्रार और कलक्टर बनाम केनरा बैंक (2004) मामले में सुप्रीम कोर्ट के वक्तव्य को उद्धृत किया : “हम किसी पुलिस राज में नहीं रह रहे हैं।”
आगे दीवान ने अमरीकी मामले अमरीका बनाम जोंस [565 U. S. 400 (2012)],का जिक्र किया जहाँ एक व्यक्ति की जीप में जीपीएस लगाने को कोर्ट ने सरकार द्वारा निगरानी के लिए निजी संपत्ति को हड़पना और निजता का उल्लंघन बताया।
अंत में दीवान ने उस मामले का जिक्र किया जिसमें यूरोपियन कोर्ट ऑफ़ ह्यूमन राइट्स (ECtHR) ने रोमन ज़खारोव बनाम रूस मामले (2015) में तत्कालीन राष्ट्रीय क़ानून के तहत बिना किसी पूर्व न्यायिक अनुमति के सभी टेलीफोन संचार पर बेरोक पाबंदी के जांच की थी। ECtHR ने कहा, “क़ानून में जिस तरह की गुप्त निगरानी का प्रावधान किया गया है, इनका व्यापक दायरा और राष्ट्रीय स्तर पर इसको चुनौती नहीं दे पाना...रूसी क़ानून “गुणवत्ता पर खड़ा नहीं उतरता...वह संचार पर इस रोक को एक लोकतांत्रिक समाज के लिए जरूरी स्तर तक बनाए रखने में सक्षम नहीं है।”
आधार पर आगे की चर्चा अब मंगलवार को फिर शुरू होगी।