प्रिय मुख्य न्यायाधीश....

LiveLaw News Network

13 Jan 2018 9:43 AM GMT

  • प्रिय मुख्य न्यायाधीश....

    प्रिय मुख्य न्यायाधीश,

    हमें आपको यह पत्र लिखते हुए काफी पीड़ा हो रही है और हम काफी चिंतित हैं लेकिन हमें आपको पत्र लिखना ज्यादा उचित लगा ताकि कुछ मुद्दों की ओर आपका ध्यान खींचा जा सके। इस न्यायालय द्वारा जारी कुछ न्यायिक आदेशों ने न्याय दिलाने की व्यवस्था को बहुत ही प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया है। इसने भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय के प्रशासनिक कामकाज और उच्च न्यायालयों की स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है।

    देश में कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास में तीन चार्टर्ड हाई कोर्ट्स की स्थापना के बाद से ही न्यायिक प्रशासन में कुछ परम्पराएं और परिपाटियाँ पूरी तरह से स्थापित की गई हैं। चार्टर्ड हाई कोर्ट्स की स्थापना के लगभग सौ साल बाद अस्तित्व में आने वाले इस न्यायालय ने भी परंपराओं को स्वीकार किया। एंग्लो-सैक्सन विधिशास्त्र और व्यवहार में इन परंपराओं की जड़ें हैं।

    एक बहुत ही स्थापित सिद्धांत है कि मुख्य न्यायाधीश ‘मास्टर ऑफ़ द रोस्टर’ होता है और वह कार्यों के बंटवारे का निर्णय करता है ताकि कई अदालतों वाले सुप्रीम कोर्ट के कामकाज सुचारू चल सकें और किस मामले और किस तरह के मामले की सुनवाई कौन सदस्य/बेंच (स्थिति के हिसाब से) करे इस बारे में उचित व्यवस्था हो सके। मुख्य न्यायाधीश रोस्टर तैयार करेगा और विभिन्न सदस्यों और बेंचों में कार्यों का बँटवारा करेगा यह स्वीकृत परम्परा है और इसे इस तरह बनाया गया है ताकि कोर्ट का कामकाज पूर्ण अनुशासन और सक्षमता से हो सके पर यह मुख्य न्यायाधीश को अपने सहयोगियों के ऊपर वैधानिक या वास्तविक रूप से एक श्रेष्ठ अथॉरिटी के रूप में मान्यता नहीं देता। इस देश के न्यायविधान में यह पूर्ण रूप से स्थापित है कि मुख्य न्यायाधीश समान लोगों की पंक्ति में सबसे आगे हैं- न इससे कुछ ज्यादा और न इससे कुछ कम। मुख्य न्यायाधीश रोस्टर कैसे तय करेंगे इस बारे में पूर्णतया स्थापित और समय-समादृत परिपाटी रही है फिर चाहे वह मामला-विशेष को देखते हुए यह तय करना हो कि बेंच में कितने सदस्य होंगे और उसमें कौन होंगे।

    ऊपर जिन सिद्धांतों का जिक्र किया गया है उसका एक स्वाभाविक परिणाम यह है कि सुप्रीम कोर्ट सहित किसी भी बहुसदस्यीय न्यायिक निकाय का सदस्य सुनवाई करने या फैसला देने के ऐसे अथॉरिटी को नहीं हथियाएगा जिसकी सुनवाई, और निर्धारित रोस्टर को पूरा सम्मान देते हुए, संरचना और बेंच में जजों की संख्या के अनुसार, किसी उचित बेंच को करनी चाहिए।

    ऊपर के दोनों नियमों को नहीं मानने के न केवल दुखद और अवांछित परिणाम होंगे और संस्थान की सत्यनिष्ठा के बारे में राजनीतिक हलकों में संदेह पैदा होगा। इस तरह का व्यवहार किस तरह की अराजकता पैदा करेगा इसकी तो हम चर्चा ही न करें।

    हमें यह कहते हुए दुःख हो रहा है कि ऊपर जिन दो नियमों का हवाला दिया गया है, हाल के दिनों में उनका पालन नहीं हुआ है। ऐसे अवसर आए हैं जब देश और संस्थान पर दूरगामी प्रभाव डालने वाले मामले को मुख्य न्यायाधीश ने बिना किसी औचित्य के  “उनकी मर्जी के अनुरूप” चुनिंदा बेंचों को सौंपे हैं। किसी भी कीमत पर इससे बचने की जरूरत है।

    हम इस बारे में विस्तार से इसलिए नहीं बता रहे हैं क्योंकि हम नहीं चाहते कि संस्थान को शर्मिंदगी झेलनी पड़े पर हम जानते हैं कि स्थापित परंपराओं से हटने की वजह से इस संस्थान की प्रतिष्ठा को कुछ हद तक चोट पहुँची है।

    उपरोक्त संदर्भ में, हमें आपको 27 अक्टूबर 2017 को दिए गए आदेश के बारे में बताना उचित जान पड़ता है। आरपी लूथरा बनाम भारत सरकार मामले में आदेश दिया गया कि आम हित में मेमोरंडम ऑफ़ प्रोसीजर (एमओपी) को अंतिम रूप देने में अब और देरी नहीं होनी चाहिए। जब मेमोरंडम ऑफ़ प्रोसीजर पर Supreme Court Advocates-on-Record Association and Anr. vs. Union of India [ (2016) 5 SCC 1] मामले में इस कोर्ट के एक संविधान पीठ को अपना फैसला सुनाना था तो यह समझ में नहीं आता कि कैसे कोई और बेंच इस मामले की सुनवाई कर सकता है।

    उपरोक्त बातों को छोड़कर, संवैधानिक बेंच के निर्णय के बाद पांच जजों के कॉलेजियम (जिसमें आप भी शामिल हैं) ने इस पर विस्तार से विचार विमर्श किया और मेमोरेंडम ऑफ़ प्रोसीजर को अंतिम रूप दे दिया गया और माननीय मुख्य न्यायाधीश ने इसे मार्च 2017 में भारत सरकार को भेज दिया। भारत सरकार ने इस बारे में कुछ भी नहीं बताया है और उसकी चुप्पी का मतलब यह है कि भारत सरकार ने Supreme Court Advocates-on-Record-Association (Supra) मामले में इस कोर्ट के आदेश के आधार पर कॉलेजियम के निर्णय को स्वीकार कर लिया है। इसलिए, बेंच को मेमोरेंडम ऑफ़ प्रोसीजर को अंतिम रूप देने के बारे में किसी भी तरह की टिपण्णी नहीं करनी चाहिए थी या फिर यह मामला अनिश्चित काल तक के लिए लटका नहीं रहना चाहिए था।

    इस कोर्ट के सात जजों की बेंच ने 4 जुलाई 2017 को Re, Hon’ble Shri Justice C.S. Karnan (2017) 1SCC 1] मामले पर निर्णय दिया। उस निर्णय में (संदर्भ आरपी लूथरा) हम में से दो का मत था कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर पुनर्विचार की जरूरत है और सुधारात्मक उपायों के लिए एक ऐसी व्यवस्था बनाई जाए जो कि महाभियोग के अलावा हो। सात विद्वान् जजों में से किसी ने भी मेमोरेंडम ऑफ़ प्रोसीजर के बारे में कोई टिपण्णी नहीं की।

    मेमोरेंडम ऑफ़ प्रोसीजर के बारे में किसी भी मुद्दे पर बातचीत पूर्ण अदालत द्वारा मुख्य न्यायाधीश के कांफ्रेंस में होना चाहिए। इस तरह के गंभीर मुद्दे पर अगर न्यायिक निर्णय किया जाना है तो सिर्फ संवैधानिक बेंच को ही करना चाहिए।

    उपरोक्त घटनाओं पर हमें गंभीरता से सोचने की जरूरत है। भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश का यह कर्तव्य है कि वह कॉलेजियम के अन्य सदस्यों के साथ पूरी बातचीत के बाद स्थिति को ठीक करें और इस बारे में उचित कदम उठाएं और अगर जरूरत है, तो बाद में वे इस बारे में इस अदालत के अन्य माननीय जजों के साथ भी मशविरा कर सकते हैं।

    ऊपर जिस आरपी लूथरा बनाम भारत सरकार मामले में 27 अक्टूबर 2017 को दिए गए आदेश का जिक्र किया गया है, एक बार जब इससे उठे मुद्दे को आप पूरी तरह सुलझा लेते हैं और तब अगर जरूरी लगता है तो हम आपको विशेष रूप से इस कोर्ट के उन दूसरे आदेशों के बारे में बताएंगे जिनसे भी इसी तरह से निपटने की जरूरत है।

    आदर सहित

    जे चेल्लामेश्वर

    रंजन गोगोई

    मदन बी लोकुर

    कुरियन जोसफ

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