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समलैंगिकता को अपराध बताने वाली IPC 377 पर फिर से विचार करेगा SC, बडी बेंच को भेजा मामला

LiveLaw News Network
8 Jan 2018 9:20 AM GMT
समलैंगिकता को अपराध बताने वाली IPC 377 पर फिर से विचार करेगा SC, बडी बेंच को भेजा मामला
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एक बडा कदम उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को 2013 के सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज फाउंडेशन मामले में दो जजों की बेंच के उस फैसले पर दोबारा विचार करने पर सहमति जता दी जिसके तहत भारतीय दंड संहिता की धारा 377 की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा गया।

चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली बेंच ने पांच LGBT नागरिकों द्वारा दाखिल याचिका को बडी बेंच के लिए रैफर किया है।

इस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नाज फाउंडेशन मामले में सुप्रीम कोर्ट के 2013 के फैसले पर फिर से विचार करने की जरूरत है क्योंकि कोर्ट को लगता है कि इसमें संवैधानिक मुद्दे जुडे हुए हैं। दो व्यस्कों के बीच शारीरिक संबंध क्या अपराध हैं, इस पर बहस जरूरी है। अपनी इच्छा से किसी को चुनने वालों को भय के माहौल में नहीं रहना चाहिए। कोई भी इच्छा के तहत कानून के चारों तरफ नहीं रह सकता लेकिन सभी को अनुच्छेद 21 के तहत जीने के अधिकार के तहत कानून के दायरे में रहने के अधिकार है। सामाजिक नैतिकता वक्त के साथ बदलती है। इसी तरह कानून भी वक्त के साथ बदलता है।  सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता को याचिका की प्रति सेंट्रल एजेंसी में देने को कहा है ताकि इस मुद्दे पर केंद्र सरकार अपना पक्ष रख सके।

वहीं सोमवार को सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश  वरिष्ठ वकील  कपिल सिब्बल और अरविंद दातार ने कहा कि संविधान के भाग III के तहत गारंटी के साथ अन्य मूलभूत अधिकार जिसमें  लैंगिकता, यौन स्वायत्तता, यौन साथी, जीवन, गोपनीयता, गरिमा और समानता के अधिकार भी दिए गए हैं। लेकिन भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 377 याचिकाकर्ताओं के अधिकारों का हनन करती है।

वकीलों ने कहा  हालांकि कौशल फैसले के खिलाफ क्यूरेटिव  याचिका सुप्रीम कोर्ट के  सामने लंबित है लेकिन याचिकाकर्ताओं द्वारा वर्तमान याचिका में धारा 377 को दी गई चुनौती के मुद्दे अलग-अलग हैं। क्यूरेटिव याचिका में याचिकाकर्ता ने कानून के निम्नलिखित प्रश्न उठाए हैं;

क्या भारतीय दंड संहिता की धारा 377 भारत के संविधान के भाग III के तहत असंवैधानिक और उल्लंघनकारी है, और इसे रद्द किया जाना चाहिए ?  वैकल्पिक रूप से चाहे भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को निजी तौर पर वयस्कों के समलैंगिक यौन कृत्य पर इस्तेमाल करने से अलग किया जा सकता है  ताकि इस तरह के सहमति वाले वयस्कों के मौलिक अधिकार सुरक्षित-संरक्षित हों?

याचिकाकर्ताओं के मुताबिक  स्वतंत्र भारत में क़ानून की किताबों में IPC 377 जारी रखने से ये बहुत स्पष्ट हो जाता है कि संवैधानिक अनुबंध के आधार पर समानता, बिरादरी, गरिमा, जीवन और स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटीयां जिनसे देश की स्थापना हुई थी, उन्हें याचिकाकर्ताओं तक नहीं बढ़ाया गया है।

गौरतलब है कि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 11 दिसंबर 2013 को सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज फाउंडेशन मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए समलैंगिकता को अपराध माना था। 2 जुलाई 2009 को दिल्ली हाईकोर्ट ने IPC 377 को अंसवैधानिक करार दिया था। इस मामले में पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी थी और फिलहाल पांच जजों के सामने क्यूरेटिव बेंच में मामला लंबित है।

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