एड-हॉक रोजगार शुरू करने से पहले पीएचडी छात्रों को दो साल की आवश्यक रेजिडेंसी अवधि पूरी करने की जरूरत नहीं : दिल्ली हाई कोर्ट [निर्णय पढ़ें]

LiveLaw News Network

29 Dec 2017 2:29 PM GMT

  • एड-हॉक रोजगार शुरू करने से पहले पीएचडी छात्रों को दो साल की आवश्यक रेजिडेंसी अवधि पूरी करने की जरूरत नहीं : दिल्ली हाई कोर्ट [निर्णय पढ़ें]

    दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा पीएचडी के छात्रों के साथ होने वाली नाइंसाफी को समाप्त करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा है कि अब एड-हॉक रोजगार शुरू करने से पहले पीएचडी छात्रों को दो साल की आवश्यक रेजिडेंसी अवधि पूरी करने की जरूरत नहीं है। हाई कोर्ट ने कहा कि अगर ऐसे छात्रों के सुपरवाइजर और विभागीय शोध समिति ने इसकी अनुमति दे दी है तो इस अवधि को पूरा करने की उनको जरूरत नहीं है।

    न्यायमूर्ति इन्दरमीत कौर ने दीपक कुमार गुप्ता की याचिका पर सुनवाई के बाद यह फैसला दिया। दीपक दिल्ली विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग में पीएचडी कोर्स में दाखिला लिया और उसके बाद वह दो साल के भीतर लक्ष्मीबाई कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर (एड-हॉक) के रूप में पढ़ाना शुरू कर दिया।

    दीपक का पीएचडी में दाखिला उस दिन रद्द कर दिया गया जिस दिन उसने प्री-पीएचडी थीसिस जमा की। विश्वविद्यालय प्रशासन का कहना था कि उसने दिल्ली विश्वविद्यालय अधिनियम के अध्यादेश VI का उल्लंघन किया है। इसके प्रावधान के अनुसार वह अध्यापन का काम पीएचडी छात्र के रूप में दो साल की अवधि के बीत जाने के बाद ही स्वीकार कर सकता था। विश्वविद्यालय के इस कदम के बाद दीपक को न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा।

    दीपक के वकील अनुराग ओझा ने कहा कि याचिकाकर्ता ने 1 जून 2012 को पीएचडी कोर्स में दाखिला लिया था और लक्ष्मीबाई कॉलेज में एड-हॉक अध्यापक के रूप में चार महीने के लिए उसकी नियुक्ति जुलाई 2013 में हुई। इसके लिए उसके सुपरवाइजर ने अनुमति और जरूरी अनापत्ति प्रमाणपत्र दिया था। दर्शनशास्त्र विभाग की विभागीय शोध समिति (डीआरसी) ने भी उसको इस नियुक्ति के लिए अनुमति दे दी थी और शोध अध्ययन बोर्ड (बीआरएस) को इस बारे में उनकी अनुमति के लिए जरूरी सूचना भेज दी थी।

    उसने आगे बताया कि 9 फरवरी 2015 को दीपक ने अपना प्री-पीएचडी थीसिस जमा किया और उसका सुपरवाइजर इससे संतुष्ट था। पर उसको अपना थीसिस जमा करने की अनुमति नहीं दी गई।

    ओझा ने कहा कि अध्यादेश के खंड 11 के उप-खंड (xiii) के अनुसार छात्र अपने पीएचडी के दौरान रोजगार प्राप्त कर सकते हैं पर ऐसा वह सिर्फ अपने सुपरवाइजर और विभागीय शोध समिति की अनुमति के बाद ही कर सकता है और फिर वे इसकी जानकारी फिर बीआरएस को दे देंगे।

    कोर्ट ने ओझा की इस बात से सहमति जताई कि बीआरएस को सिर्फ इस बात की “जानकारी दी जानी” चाहिए। अनुमति सुपरवाइजर और डीआरसी से ही लेनी है। एक बार जब इसकी अनुमति मिल जाती है तो बीआरएस को सिर्फ इसकी जानकारी भर दी जानी है। बीआरएस से अनुमति लेने की जरूरत नहीं है।

    न्यायमूर्ति कौर ने कहा, “अध्यादेश VIB के विभिन्न प्रावधानों को पढने के बाद कोर्ट इस बारे में आश्वस्त है...अगर किसी छात्र ने सुपरवाइजर और डीआरसी की अनुमति प्राप्त कर ली है और बीआरएस को इसकी जानकारी दे दी है तो वह एड-हॉक पर नौकरी कर सकता है।”

    बहस के दौरान याचिकाकर्ता ने कहा कि उसकी तरह आठ अन्य पीएचडी छात्र हैं जिन्हें पीएचडी की डिग्री दे दी गई है जबकि उनका रद्द कर दिया गया। दिल्ली विश्वविद्यालय ने कहा कि एक गलती हो गई है तो उसको बार बार होने नहीं दिया जा सकता।

    इस पर कोर्ट ने कहा, “कोर्ट का मानना है कि आठ उम्मीदवारों को पीएचडी की डिग्री देकर कोई गलती नहीं की गई है। उन्होंने अपना थीसिस जमा किया है और उसके बाद उनको यह डिग्री दी गई है। छात्र एड-हॉक पर कोई नौकरी प्राप्त करें इसके लिए दो वर्ष तक की आवश्यक रेजीडेंसी अवधि की जरूरत नहीं है।”

    कोर्ट ने अपने आदेश में कहा, “याचिका स्वीकार की जाती है। याचिकाकर्ता को अपना पीएचडी थीसिस जमा करने की अनुमति दी जाती है ...और उसको पीएचडी की डिग्री दी जाएगी।”


     
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