क़ानून के प्रतिष्ठित कॉलेजों और इसके सामान्य कॉलेजों के स्नातकों के बीच भेदभाव दूर होना चाहिए : न्यायमूर्ति चंद्रचूड़

LiveLaw News Network

20 Dec 2017 12:47 AM IST

  • क़ानून के प्रतिष्ठित कॉलेजों और इसके सामान्य कॉलेजों के स्नातकों के  बीच भेदभाव दूर होना चाहिए : न्यायमूर्ति चंद्रचूड़

    यह दुर्भाग्य है कि कुछ लॉ फर्म्स क़ानून की डिग्री लने वाले प्रतिष्ठित संस्थानों और सामान्य संस्थानों के छात्रों के बीच भेदभाव करते हैं। वे प्रतिष्ठित संस्थानों से निकलने वाले छात्रों को ज्यादा वेतन देंते हैं जबकि कथित रूप से दूसरे और तीसरे दर्जे के संस्थानों से निकलने वाले छात्रों की अगर उसी पद पर नियुक्ति होती है तो उन्हें कम वेतन दिया जाता है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने दिल्ली में हार्वर्ड लॉ स्कूल सेंटर द्वारा कानूनी पेशे पर आयोजित कार्यक्रम में यह बात कही।

    न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि देश में एक नई कॉर्पोरेट लीगल संरचना उभर रही है और इसके वजह से रोजगार का नया बाजार भी बन रहा है। कानूनी शिक्षा सहित कानूनी पेशे पर इसके असर, मुफ्त कानूनी सलाह, कॉर्पोरेट सोशल उत्तरदायित्व, जेंडर और पेशेवर दर्जों को इससे चुनौती मिल रही है। इस समय देश में जिस तरह का कॉर्पोरेट लीगल मॉडल चल रहा है, जो कि वैसे काफी हद तक एंग्लो-अमेरिकन मॉडल से प्रभावित है, अपने मौलिक रूप में अभी भी घालमेल वाला कॉर्पोरेट लीगल सिस्टम है क्योंकि आज भी परिवार और साम्प्रदायिक संबंधों जैसे सांस्कृतिक कारक इनके लिए प्रासंगिक हैं।

    यहाँ यह बताना जरूरी है कि इन प्रतिष्ठित संस्थानों की संख्या एक दर्जन के आसपास है, और यह देश में 2013 तक बार काउंसिल द्वारा मान्यताप्राप्त कुल 1390 लॉ स्कूलों की तुलना में बहुत कम हैं। कॉर्पोरेट लीगल सेक्टर, ऐसा कहा जाता है कि सिर्फ शीर्ष के प्रतिष्ठित लॉ स्कूलों के छात्रों को ही नियुक्ति करता है। दुर्भाग्य से कुछ लॉ स्कूल ऐसे भी हैं जो एक ही पद के लिए शीर्ष लॉ स्कूलों के छात्रों को ज्यादा वेतन देते हैं जबकि दूसरे और तीसरे दर्जे के छात्रों को उनसे कम। इस तरह के भेदभाव की अवश्य ही निंदा होनी चाहिए क्योंकि यह निष्पक्ष और समानता के सिद्धांत के खिलाफ है जो क़ानून की आधारशिला है। न केवल यह मेधावी छात्रों को अवसरों से दूर करता है इससे कॉर्पोरेट लीगल सेक्टर को अधिकाँश भारतीय लॉ स्कूलों में मौजूद प्रतिभाशाली छात्रों की सेवाएं नहीं मिल पाती हैं।

    शीर्ष फर्म लॉ स्कूलों में मिलने वाले ग्रेड्स के आधार पर मिलने वाले वेतन में भी भेदभाव करते हैं। अगर आप अपने बैच में शीर्ष दस में हैं, तो आपको अमूमन एक लाख रुपए का वेतन मिलता है और यह शानदार अकादमिक प्रदर्शन के लिए पुरस्कार है, पर अब यह जरूरी हो गया है कि हम वेतन से ही प्रतिभा को जोड़कर न देखें। यह विशेषकर तब और जरूरी हो जाता है जब हम देखते हैं कि भारत में क़ानूनी शिक्षा की व्यवस्था बहुत दुरुस्त नहीं है। कानूनी शिक्षा को अब क़ानून के शीर्ष फर्म में नौकरी मिलने मात्र से जोड़कर देखा जा रहा है, और यह इस बात से भी स्पष्ट जब हम देखते हैं कि किस तरह से लॉ स्कूलों की रैंकिंग की जाती है। कॉर्पोरेट सेक्टर द्वारा होने वाली भर्ती को लॉ स्कूलों की रैंकिंग का आधार बनाया जाता है। इस तरीके से कानूनी शिक्षा को किसी लक्ष्य को पाने का साधन के रूप में देखा जा रहा है न कि अपने आप में एक लक्ष्य और यह समस्या पैदा करने वाला है और इस वजह हैं।

    अपने भाषण के अंतिम हिस्से में, मैं एक ऐसे मुद्दे की चर्चा करना चाहूंगा जिसकी कानूनी पेशे में शायद ही चर्चा की जाती है और यह है मानसिक स्वास्थ्य। वकीलों का कार्य कई बार बहुत ही तनाव पैदा करने वाला होता है और इस वजह से वकीलों को बुरी आदत लगने की आशंका ज्यादा होती है। इनमें आम लोगों की तुलना में तनावग्रस्त होने की आशंका ज्यादा होती है। अमरीका और ऑस्ट्रेलिया में इस बारे में किए गए कई शोधों में इस बात का पता चला है। इन शोधों के निष्कर्ष में कहा गया है कि वकीलों के मानसिक और मनोदैहिक स्वास्थ्य का स्तर अन्य पेशे के लोगों की तुलना में काफी नीचे होता है।

    भारत में कानूनी पेशे से जुड़े लोगों की मानसिक स्वास्थ्य के बारे में कोई एम्पिरिकल अध्ययन नहीं हुआ है क्योंकि हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य के साथ सामाजिक कलंक जुड़ा हुआ है। हालांकि, देश के प्रमुख कानूनी संस्थानों में आत्महत्याओं की संख्या जिस तरह से बढ़ रही है वह व्यवस्थागत खामी की और संकेत करता है। हाल में लॉ कॉलेजों और उनके छात्रों की ओर से इस तरह के प्रयास किए गए हैं जैसे कि गुजरात नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी (जीएनएलयू) या हैदराबाद की नेशनल अकादमी ऑफ़ लीगल स्टडीज एंड रिसर्च (नालसार) ने इस तरह की चिंताओं को दूर करने की जरूरत बताई है। लॉ स्कूलों के इन प्रयासों की तुलना में कॉर्पोरेट लीगल सेक्टर इस दिशा में बहुत कम प्रयास कर रहा है। देश के लॉ फर्म्स को अपने कर्मचारियों के प्रति ज्यादा संवेदनशील होने की जरूरत है और उनके बीच विभिन्न मुद्दों को लेकर पनप रहे असंतोष को दूर करना चाहिए। चूंकि कई मुद्दे सिर्फ कानूनी पेशे में ही होते हैं, और ये हममें तनाव बढाने के लिए जिम्मेदार होते हैं जिसका हमलोगों ने अनुभव किया है। मानसिक मुद्दों को समझने के लिए सामान्य सहानुभूति होने के साथ साथ हमें इस पेशे के पागलपन का ज्ञान भी होना चाहिए। एक वकील के रूप में, हमें काम का एक स्वस्थ माहौल बनाना चाहिए। संस्थागत स्तर पर मदद उपलब्ध कराने वाली संरचना हमें बनानी चाहिए, हमें अपने स्वभाव में भारी परिवर्तन लाना चाहिए और पेशे से जुड़े लोगों में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर किसी भी तरह के कलंक की धारणा को समाप्त करना चाहिए।

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