भारत के लोग आजादी के 70 वर्ष बाद भी अपनी भाषा में न्याय पाने से क्यों हैं वंचित ?

LiveLaw News Network

16 Dec 2017 5:20 AM GMT

  • भारत के लोग आजादी के 70 वर्ष बाद भी अपनी भाषा में न्याय पाने से क्यों हैं वंचित ?

    भारत दुनिया का अनोखा देश है इस बात को आप ऐसे समझ सकते हैं कि आज़ादी के 70 वर्ष बाद भी भारतीय अपनी भाषा में न्याय पाने से वंचित हैं। क्यों?  आज भी भारत के सुप्रीम कोर्ट  एवं हाई कोर्ट की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी ही है।

    पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने दो बड़े फैसले दिए हैं जिनमे से एक है ‘तीन तलाक’ के मुद्दे पर और दूसरा ‘निजता के अधिकार’ पर। दोनों ही फैसले भारत के सामाजिक और राजनीतिक चिंतन पर महत्वपूर्ण और दूरगामी प्रभाव डालेंगे। लेकिन जिस तरह से इन फैसलों को अकादमिक क्षेत्रों में लिया जायेगा,  क्या सामाजिक स्तर पर भी आम लोगों में भी वैसी चर्चा इसके बारे में हो पाएगी? शायद नहीं।

    ए.के.गोपालन बनाम मद्रास राज्य, शंकरी प्रसाद बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य,केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, इंदिरा नेहरू गाँधी बनाम राज नारायण, मेनका गाँधी बनाम यूनियन ऑफ़  इंडिया, हुसैन आरा खातून बनाम बिहार राज्य, मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम, इंदिरा साहनी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, विशाखा बनाम राजस्थान राज्य, सरला मुद्गल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, डी. के. बासु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, एम.सी. मेहता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया आदि फैसलों ने भारतीय राजनीतिक-सामाजिक चिंतन एवं प्राशसनिक व्यवस्था को एक दिशा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। लेकिन क्या आमजन इन फैसलों से आए बदलाव को समझने से केवल इस वजह से वंचित कर दिए जाएंगे क्योंकि वे अंग्रेजी नहीं समझ सकते ?

    संदेश कैसा भी हो, प्रभावी तभी होगा जब यह उन लोगों तक उनकी भाषा में पहुंचे जिन्हें वह प्रभावित करना चाहता है। क्या हमारी अदालतें (सुप्रीम कोर्ट एवं हाई कोर्ट) बदलाव को समझने के लिए तैयार है? आज भी हम अर्थात ‘हम भारत के लोग’ अपनी अदालतों से अपनी भाषा में न्याय पाने के लिए प्रयासरत हैं। जरा सोचिए, अगर ये सभी फैसले हमारी अदालतों (सुप्रीम कोर्ट एवं हाई कोर्ट)  की वेबसाइट पर हिंदी या संबंधित राज्य की स्थानीय भाषाओं में भी उपलब्ध हो जाते तो न्यायिक फैसलों की पहुँच कितनी बढ़ जाती? आम लोग भी उन फैसलों की बारीकियों को आसानी से समझ पाते।

    13 सितंबर 1949 को संविधान सभा की बैठक में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, विदेशी भाषा आम जन की भाषा नहीं हो सकती और विदेशी भाषा के जरिए कोई भी देश महान नही बन सकता। 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा में बहस के बाद एकमत से निर्णय लिया गया कि हिंदी भारत की राजभाषा होगी, न कि राष्ट्र भाषा क्योंकि कुछ राज्य हिंदी के पक्ष में नही थे और आम सहमति नही थी इसलिए अंग्रेजी को भी हिंदी के साथ राजभाषा का दर्जा दिया गया।

    संविधान के भाग 17, अध्याय 1 में संघ की राजभाषा से संबंधित प्रावधान किए गए हैं जिसके अनुसार –

    “अनुच्छेद 343(1) में कहा गया है कि संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा।

    अनुच्छेद  अनुच्छेद 343(2) में कहा गया है  कि खंड(1) में किसी बात के होते हुए भी, इस संविधान के प्रारंभ से 15 वर्ष की अवधि तक संघ के उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए उसका ऐसे प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था ;

    परन्तु राष्ट्रपति उक्त अवधि के दौरान, आदेश द्वारा, संघ के शासकीय प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिंदी भाषा का और भारतीय अंकों के अंतर्राष्ट्रीय रूप के अतिरिक्त देवनागरी रूप का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा।

    अनुच्छेद अनुच्छेद 343(3) में कहा गया है कि इस अनुच्छेद में किसी बात के होते हुए भी, संसद उक्त 15 वर्ष की अवधि के बाद, विधि द्वारा (क) अंग्रेजी भाषा का, या (ख) अंकों के देवनागरी रूप का,

    ऐसे प्रयोजनों के लिए प्रयोग उपबंधित कर सकेगी जो ऐसी विधि में विनिर्दिष्ट किये जाए।”

    इस प्रकार, केवल 15 वर्षों के लिए 1965 तक के लिए अंग्रेजी की व्यवस्था की गई थी ताकि जिन राज्यों में हिंदी नही बोली जाती उन प्रदेशों में हिंदी का प्रचार-प्रसार हो सके। लेकिन 1965 में यह प्रस्ताव पारित हुआ की सभी सरकारी कार्यों में हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी का भी सह-राजभाषा के रूप में प्रयोग होगा। 1967 में ‘भाषा संशोधन विधेयक’ संसद में पारित कर राजकाज में अंग्रेजी को अनिवार्य कर दिया।

    2009 में गुजरात हाई कोर्ट ने अपने एक निर्णय में कहा कि भारतीय संविधान में हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया है, न कि  राष्ट्रभाषा का। इसलिए हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है।

    सभी 24 उच्च न्यायालयों एवं उच्चतम न्यायालय की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है। अप्रैल 2016 में जब मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर के समक्ष हिंदी को हाई कोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट की आधिकारिक भाषा बनाने के उद्देश्य से संविधान में संसोधन के लिए याचिका दाखिल हुई तो उन्होंने इसे तुच्छ एवं न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग कहकर ख़ारिज कर दिया।

    क्या वाकई अपनी भाषा में न्याय मांगना ‘न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग है?

    संविधान के भाग 17, अध्याय 3  में हाई कोर्ट्स एवं सुप्रीम कोर्ट की भाषा से संबंधित प्रावधान किये गए हैं।

    अनुच्छेद 348(2) के अनुसार राज्यपाल, राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से हाई कोर्ट की कार्यवाहियों में, जिसका मुख्य स्थान उस राज्य में है, हिंदी भाषा का या उस राज्य के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाली किसी अन्य भाषा का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा। इसके लिए संबंधित हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट की अनुमति/सहमति की जरूरत नहीं है। संविधान की भावना स्पष्ट है। न्यायालय की कार्यवाही राज्यपाल के आदेश द्वारा एवं राष्ट्रपति की सहमति से हिंदी या उस राज्य की राजभाषा में किए जा सकते हैं और इसके लिए किसी कानून की आवश्यकता नहीं है।

    दरअसल संविधान के प्रावधान स्पष्ट हैं, लेकिन 1965 का कैबिनेट नोट है जो कि इस रास्ते में रुकावट बना हुआ है जिसके तहत हाई कोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट की भाषा में बदलाव करने से पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश की सहमति जरूरी है। हाल ही में संसदीय समिति ने केंद्र सरकार से 1965 के उस कैबिनेट नोट पर पुन:विचार करने को कहा है ताकि भाषाई स्तर पर इस रुकावट को दूर किया जा सके। उम्मीद है यह सकारात्मक बदलाव शीघ्र आएगा।

    इसी दौरान 14 सितंबर 2017 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने न्यायिक कार्यवाही में हिंदी को बढ़ावा देने के उद्देश्य से तीन निर्णय हिंदी में देकर एक सकारात्मक पहल की है। उम्मीद है कि ऐसी पहल से लोगों का अपनी भाषा में अब किसी फैसले को पढ़ पाने का उनका सपना भी एक दिन जरूर पूरा होगा।

    (लेखक देहरादून में एडवोकेट हैं )

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