मध्यस्थता रिपोर्ट की गोपनीयता बनाए रखने के लिए इसमें सिर्फ एक ही वाक्य होना चाहिए : दिल्ली हाई कोर्ट [आर्डर पढ़े]
LiveLaw News Network
12 Dec 2017 6:09 PM IST
दिल्ली उच्च न्यायालय ने सोमवार को कहा कि कार्यवाही की गोपनीयता बनाए रखने के लिए मध्यस्थता रिपोर्ट में एक वाक्य के अलावा कुछ और शामिल नहीं होना चाहिए।
न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट और न्यायमूर्ति योगेश खन्ना की पीठ ने कहा कि मध्यस्थता के विफल होने के कारण एक ऐसी न्यायिक प्रक्रिया सामने आती है जिसमें सभी पक्षों को क़ानून के तहत उपलब्ध हर तरह के मंतव्यों को अपनाने की छूट होती है।
अदालत श्रीमती स्मृति मदन कानसाग्रा द्वारा दायर की गई एक पुनरीक्षण याचिका पर सुनवाई कर रही थी। उस याचिका के द्वारा वह यह जानना चाहती थी कि मध्यस्थता की कार्यवाही या मध्यस्थ की रिपोर्ट के दौरान वकील ने जो रिपोर्ट पेश की थी उसका मुकदमे की सुनवाई के दौरान दोनों में से कोई भी पक्ष इस्तेमाल कर सकता है या नहीं। यह मामला दंपति के नाबालिग पुत्र की हिरासत से संबंधित है।
मामले के सभी पक्षकारों की मध्यस्थ एवं वकीलों के साथ कई बैठकें हुई पर मध्यस्थता का प्रयास विफल रहा। इसके बाद कोर्ट ने फैसला सुनाया कि वकील और मध्यस्थ की रिपोर्ट गोपनीय नहीं थी।
अब कोर्ट के निष्कर्षों के साथ-साथ दिल्ली उच्च न्यायालय की मध्यस्थता और सुलह नियम, 2004 और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार कानून पर संयुक्त राष्ट्र आयोग के समझौता नियमों को कान्साग्रा ने चुनौती दी है। उसने कहा कि मध्यस्थता विशुद्ध रूप से एक गोपनीय प्रक्रिया है और इसलिए, मध्यस्थता प्रक्रिया के दौरान कही गई कोई भी बात मध्यस्थता रिपोर्ट का हिस्सा नहीं बनना चाहिए। उसने आगे कहा कि मध्यस्थ ने गलत तरीके से एक वकील की सेवा ली जबकि यह अधिकार सिर्फ अदालत को ही है।
अदालत ने उनकी इस दलील से सहमति जताई और कहा, "इस तरह के मामलों में सभी पक्ष अपने भय, अपनी उम्मीदों और अपने प्रिय मंतव्यों के बारे में बताते हैं क्योंकि उनको मध्यस्थों और मध्यस्थता की प्रक्रिया में विश्वास होता है और ये दोनों ही बातें पूरी तरह गोपनीय होती हैं। इन अनिवार्यताओं को देखते हुए अगर मध्यस्थता की प्रक्रिया विफल हो गई है तो मध्यस्थ को अपनी रिपोर्ट में कुछ भी रिकॉर्ड नहीं करना चाहिए।
... यदि मध्यस्थ को मध्यस्था की प्रक्रिया के बारे में कोर्ट में रिपोर्ट पेश करना है तो अगर सीधे नहीं तो अप्रत्यक्ष रूप से रुकावट डालने वाले पक्ष के व्यवहार के बारे में बताये जाने का वास्तविक डर बना रहता है।"
इसमें यह भी कहा गया कि मध्यस्थ को किसी वकील की सेवा नहीं लेनी चाहिए थी क्योंकि ऐसा करने का अधिकार फैमिली कोर्ट्स एक्ट, 1984 की धारा 12 के तहत सिर्फ न्यायालय को है और इसे किसी अन्य को नहीं दिया जा सकता।
कोर्ट ने निर्देश दिया कि मामले पर गौर करने के दौरान फ़ैमिली कोर्ट को मध्यस्थ और वकील की रिपोर्ट को नजरअंदाज कर देना चाहिए। कोर्ट ने आगे स्पष्ट किया गया कि रिपोर्ट पर बहस नहीं हो सकती है।