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किसी मृत व्यक्ति के कानूनी उत्तराधिकारी को इसके लिए प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं है : बॉम्बे हाई कोर्ट [आर्डर पढ़े]
![किसी मृत व्यक्ति के कानूनी उत्तराधिकारी को इसके लिए प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं है : बॉम्बे हाई कोर्ट [आर्डर पढ़े] किसी मृत व्यक्ति के कानूनी उत्तराधिकारी को इसके लिए प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं है : बॉम्बे हाई कोर्ट [आर्डर पढ़े]](http://hindi.livelaw.in/wp-content/uploads/2017/08/Bombay-Hc-6.jpg)
बॉम्बे हाई कोर्ट ने हाल ही में 1827 के बॉम्बे रेगुलेशन VIII के तहत जारी कानूनी उत्तराधिकारी प्रमाणपत्र को निरस्त करने के लिए एक याचिका को स्वीकार कर लिया है। न्यायमूर्ति एससी गुप्ते ने कुसुम चंद्रकांत शंकरदास और उनकी दो बेटियों की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई की। याचिकाकर्ता रिटायर्ड सेना अधिकारी चंद्रकांत शंकरदास की विधवा हैं जो बिना कोई वसीयत बनाए ही अगस्त 2013 में मर गए।
मामले की पृष्ठभूमि
वर्ष 1969 में चंद्रकांत शंकरदास ने राजश्री से शादी की जो याचिकाकर्ता की बहन थी। उन दोनों की दो बेटियाँ हैं लेकिन 1982 से दोनों अलग रहने लगे। याचिकाकर्ता का कहना है कि इन दोनों के बीच रिवाजी तलाक हुआ था और इसके बाद 1983 से वे लोग अलग रहने लगे और 25 मई 1984 में चंद्रकांत शंकरदास ने याचिकाकर्ता कुसुम से हिन्दू रीति रिवाज से शादी कर ली। इन दोनों को भी दो बेटियाँ पैदा हुईं। इनमें से पहली बेटी 1986 में और दूसरी 1993 में पैदा हुई। ये चारों लोग स्लम रिहैबिलिटेशन अथॉरिटी (एसआरए) द्वारा बनाए गए किराए के घर में रह रहे थे। 2013 में चंद्रकांत की मृत्यु के बाद याचिकाकर्ता को इस डेवलपर से हर माह 14 हजार रुपए मिलने लगे और यह मार्च 2016 तक जारी रहा।
मार्च 2016 में याचिकाकर्ता ने आरटीआई के तहत एक आवेदन दिया जिससे उसको पता चला कि राजश्री और उनकी दो बेटियों ने 2015 में एक आवेदन डालकर कानूनी उत्तराधिकारी होने का प्रमाणपत्र प्राप्त कर लिया है। उक्त प्रमाणपत्र के आधार पर कलक्टर ने राजश्री का नाम रिडेवलपमेंट प्रोजेक्ट में जोड़ दिया। जब याचिकाकर्ता ने एसआरए के समक्ष इस पर आपत्ति उठाई तो उसे अस्वीकार कर दिया गया। इसके बाद याचिकाकर्ता ने इस प्रमाणपत्र को रद्द करने के लिए याचिका दायर की।
फैसला
कोर्ट ने कहा कि प्रतिवादी ने जो आवेदन दायर किया है उसमें इस बात का जिक्र नहीं है कि राजश्री अलग हो गई थी या मृतक और उनके बीच कोई रिवाजी तलाक हुआ था। इसके बदले प्रतिवादी ने जो मिश्रित याचिका दायर की है उसमें उसने दावा किया है कि वे एकमात्र उत्तराधिकारी हैं और मृतक के निकटस्थ रिश्तेदार हैं।
उत्तराधिकारी होने का प्रमाणपत्र देने से पहले कोर्ट ने किसी उद्घोषणा की आवश्यकता को जरूरी नहीं समझा। कोर्ट ने कहा कि 1827 के बॉम्बे रेगुलेशन VIII के तहत जारी किए गए कानूनी उत्तराधिकारी प्रमाणपत्र को निरस्त करने का आदेश प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि आवेदक तीन बातों को स्थापित करे। पहला, उत्तराधिकारी के आवेदन में तथ्य छिपाए गए हैं या गलत दावे किए गए हैं; दूसरा, यह कि इस तरह के झूठे दावे या तथ्यों को जानबूझकर छिपाया गया है; और तीसरा, इसको रद्द करने के लिए दिए गए आवेदन को कोई और बात प्रभावित नहीं करना चाहिए।
कोर्ट ने यह भी कहा कि कुसुम और राजश्री दोनों ही बहनें हैं इसलिए यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि एकमात्र उत्तराधिकारी होने का प्रतिवादी का दावा सही है। कोर्ट ने नोट किया कि याचिकाकर्ता के खिलाफ प्रतिवादी ने एक ही आपत्ति उठाई और वह यह है कि उन्होंने उत्तराधिकारी का प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए आवेदन नहीं दिया और उन्होंने मृतक की कुछ परिसंपत्तियों पर जबरन कब्जा कर लिया।
कोर्ट ने कहा, “किसी मृत व्यक्ति के वैध उत्तराधिकारी के लिए उत्तराधिकार प्रमाणपत्र के लिए आवेदन करना या उत्तराधिकार प्रमाणपत्र प्राप्त करना बाध्यकारी नहीं है। सिर्फ उस स्थिति में जब उत्तराधिकारी को लगे कि उसके अधिकारों को किसी कोर्ट द्वारा स्वीकृत किए जाने की जरूरत है, उसे किसी जज के समक्ष उत्तराधिकार प्रमाणपत्र के लिए आवेदन देने की जरूरत होती है।”
इस तरह, कोर्ट ने निष्कर्षतः कहा कि भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1925 की धारा 390 को धारा 383 (b) के साथ साथ पढ़े जाने पर आवेदनकर्ता ने जो आपत्ति उठाई है वह सही है। इसलिए प्रतिवादी को जो उत्तराधिकार प्रमाणपत्र जारी किया गया है उसे निरस्त किया जाता है और सभी पक्षकार भविष्य में संयुक्त उत्तराधिकार के लिए आवेदन देने के लिए स्वतंत्र हैं।