जल्लिकट्टू की अनुमति देने वाले नियम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका स्वीकृत; तमिलनाडु को कोर्ट का नोटिस [याचिका पढ़े]

LiveLaw News Network

7 Nov 2017 5:04 AM GMT

  • जल्लिकट्टू की अनुमति देने वाले नियम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका स्वीकृत; तमिलनाडु को कोर्ट का नोटिस [याचिका पढ़े]

    सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को पीपल फॉर एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ़ एनिमल्स (इंडिया) द्वारा जल्लिकट्टू की अनुमति दिए जाने के आदेश को चुनौती देनेवाली याचिका को स्वीकार कर लिया। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एएम खान्विलकर की पीठ ने इस याचिका पर तमिलनाडु को नोटिस जारी कर चार सप्ताह के भीतर जवाब माँगा है।

    इससे पहले, सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय पशु कल्याण बोर्ड बनाम ए नागराजा एवं अन्य [(2014) 7 एससीसी 547] मामले में अपने फैसले में जल्लिकट्टू को प्रिवेंशन ऑफ़ क्रुएल्टी टू एनिमल्स एक्ट, 1960 की धारा 3, 11 और 22 और अनुच्छेद 51 के खंड (g) और (h) के विरुद्ध बताया था और इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया था।

    और फिर, तमिलनाडु रेगुलेशन ऑफ़ जल्लिकट्टू एक्ट ऑफ़ 2009 को कोर्ट ने रद्द कर दिया और उसे सेन्ट्रल एक्ट ऑफ़ 1960 के असंगत माना और इसीलिए इसे संविधान के अधिकार क्षेत्र के बाहर बताया था। सुप्रीम कोर्ट का मत था, “ तमिलनाडु जल्लिकट्टू अधिनियम 2009 एक मानवकेंद्रित क़ानून है जिसे प्रिवेंशन ऑफ़ क्रुएल्टी टू एनिमल्स एक्ट की तरह पशुओं के कल्याण के लिए नहीं बनाया गया था और यह पारिस्थितिकीय-केंद्रित क़ानून नहीं है और उनको अनावश्यक पीड़ा और कष्ट से बचाने के लिए नहीं बनाया गया। राज्य अधिनियम जल्लिकट्टू के आयोजन के दौरान वास्तव में आयोजनकर्ताओं एवं दर्शकों के हितों को सुरक्षित रखने के लिए है”।

    राज्य के क़ानून 1960 के अधिनियम पर पाबंदी लगाने वाला था। राज्य का क़ानून सांडों को मनोरंजन के लिए बलपूर्वक काबू में करने पर जोर देता है भले ही इससे उसको शारीरिक क्षति या किसी अन्य तरह की तकलीफ़ ही क्यों न हो जबकि 1960 का अधिनियम पशुओं की सुरक्षा और घरेलू उपयोग के लिए उन्हें काबू में करने की बात करता है। फिर, केंद्रीय क़ानून किसी पशु को सिर्फ मनोरंजन के लिए उसको उकसाने की बात को दंडनीय मानता है जबकि 2009 का अधिनियम एक सांड और उसको काबू में करने वाले के बीच सार्वजनिक भिडंत आयोजित करने का सोचता है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि “तमिलनाडु रेगुलेशन ऑफ़ जल्लिकट्टू एक्ट 2009, प्रिवेंशन ऑफ़ क्रुएल्टी टू एनिमल्स एक्ट के खिलाफ है। एक कल्याणकारी क़ानून नहीं होने के कारण इसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 254(1) का उल्लंघन करने वाला माना गया है।”

    पर जल्लिकट्टू को तमिलनाडु की संस्कृति और परम्परा का अभिन्न हिस्सा होने और इसको जारी रखने को जरूरी समझने और देशी सांडों की नस्ल को बचाए रखने की जरूरत के कारण 1960 के अधिनियम को संशोधित कर दिया। इस संशोधन के द्वारा जल्लिकट्टू को इस अधिनियम के प्रावधानों से मुक्त कर दिया और सांड को “प्रदर्शन पशु” का दर्जा दे दिया गया। इसके अनुरूप तमिलनाडु सरकार ने मांग की कि केंद्रीय अधिनियम को 21 जनवरी 2017 से तमिलनाडु में लागू माना जाए।

    इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने प्रिवेंशन ऑफ़ क्रुएल्टी टू एनिमल्स (तमिलनाडु अमेंडमेंट) एक्ट 2017 के लागू होने पर किसी भी तरह का रोक लगाने से मना कर दिया था। इस तरह कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं पर यह छोड़ दिया था कि अगर वे उस अधिनियम और नियमों की वैधता को चुनौती देना चाहते हैं तो वे फिर से नई अपील दाखिल करें।

    वर्तमान याचिकाकर्ताओं ने अपनी याचिका के साथ तमिलनाडु के विभिन्न हिस्सों में पांच मौकों पर फरवरी 2017 में आयोजित जल्लिकट्टू के फोटो और वीडिओ भी संलग्न किए हैं ताकि खेल की आड़ में पशुओं पर होने वाले अत्याचार का पोल खोला जा सके।

    याचिकाकर्तानों ने 2017 के अधिनियम और उसके नियमों की वैधता के पर सवाल उठाया और कहा कि ये अधिनियम और नियम पशुओं के स्वास्थय के बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा स्वीकृत उनकी पांच मौलिक स्वतंत्रता का हनन है जबकि भारत भी इसका सदस्य है। सुप्रीम कोर्ट ने ए नागराजा के फैसले में कहा, “पशुओं के लिए ये पांच स्वतंत्रता उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं जितने भारतीय संविधान के तीसरे भाग में नागरिकों को मिले अधिकार।”


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