जो उद्योग कामगारों को न्यूनतम वेतन नहीं दे सकता उसे बने रहने का अधिकार नहीं है : दिल्ली हाई कोर्ट [निर्णय पढ़ें]

LiveLaw News Network

6 Nov 2017 11:30 AM GMT

  • जो उद्योग कामगारों को न्यूनतम वेतन नहीं दे सकता उसे बने रहने का अधिकार नहीं है : दिल्ली हाई कोर्ट [निर्णय पढ़ें]

    दिल्ली हाई कोर्ट ने हाल ही में कामगारों को न्यूनतम वेतन नहीं देने के मामले पर कड़ा रुख अपनाते हुए ऐसे उद्योगों की खिंचाई की जो न्यूनतम वेतन भी नहीं देते। कोर्ट ने कहा ऐसे उद्योगों को “बने रहने का कोई अधिकार नहीं है”।

    न्यायमूर्ति सी हरि शंकर ने कहा, “इस मामले में कोई दो मत नहीं है कि “पसीना बहाने वाला श्रमिक” किसी भी सभी समाज के लिए अभिशाप है, और यह हमें उस युग की याद दिलाता है जब दास प्रथा और बंधुआ मजदूरी आम था। कामगारों (या श्रमिकों जैसा कि कुछ लोग उसे कहना पसंद करेंगे) की मर्यादा को पूरे यत्न से किसी भी कीमत पर संरक्षित करने की जरूरत है; क्योंकि सभी दूसरे वर्गों का अस्तित्व इन पर ही निर्भर है।”

    कोर्ट ने कामगारों को न्यूनतम वेतन दिए जाने की जरूरतों पर जोर देते हुए आगे कहा, “न्यूनतम वेतन का भुगतान इसलिए मानवता की एक आवश्यक जरूरत है। न्यूनतम वेतन के भुगतान के बिना किसी से काम लेना अमानवीय है...

    ...किसी श्रमिक को उसका न्यूनतम वेतन नहीं देना निर्लज्जता और क़ानून की दृष्टि से अक्षम्य है। यह हमारे संविधान के ढाँचे पर चोट है और इसलिए संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित आकांक्षाओं को यह झुठलाता है।”

    कोर्ट ने उक्त बातें इस सम्बन्ध में एक आवेदन पर 2 नवंबर को सुनवाई के दौरान कही जिसमें श्रम अदालत द्वारा जुलाई 2004 में सुनाए गए एक फैसले को चुनौती दी गई थी। फैसले के अनुसार केंद्रीय सचिवालय क्लब को आदेश दिया गया था कि वह एक श्रमिक गीतम सिंह को तीन सालों तक किए काम के लिए भुगतान करे।

    सिंह ने औद्योगिक विवाद निवारण अधिनियम के तहत एक दावा किया था। उसने आरोप लगाया था कि न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948 के प्रावधानों के तहत उसे न्यूनतम वेतन जितना मिलना चाहिए उससे कम दिया जा रहा है। क्लब के प्रबंधन ने उसके इस दावे का यह कहते हुए विरोध किया कि क्लब इस अधिनियम के तहत कोई “उद्योग” नहीं है और सिंह ने देरी से अपने दावे किए हैं।

    दलीलों पर गौर करने के बाद कोर्ट ने सिंह की दलील से सहमति जताई और कहा कि अधिनियम में इस तरह के किसी प्रावधान नहीं होने के बावजूद श्रम अदालत का सिर्फ तीन सालों के लिए ही भुगतान का आदेश देना उचित नहीं था।

    कोर्ट ने इसके बाद श्रम अदालत के आदेश को संशोधित किया और क्लब को छह साल के लिए भुगतान का आदेश दिया। कोर्ट ने कहा, “अगर कोई कर्मचारी किसी श्रमिक से उसको न्यूनतम वेतन दिए बिना काम कराता है, उसको, मेरे विचार से, समय के बीत जाने संबंधी सिद्धांत का हवाला देने का अधिकार नहीं है जबकि श्रमिक अपने कार्य के लिए सिर्फ न्यूनतम वेतन प्राप्त करने के लिए उचित कानूनी फोरम की शरण में गया है। इस तरह मेरे विचार में, श्रम अदालत का गीतम सिंह को सिर्फ अक्टूबर 1992 से सितम्बर 1995 तक की अवधि के लिए ही राहत देने का आदेश उचित नहीं है। गीतम सिंह ने 1 सितम्बर 1989 से सितम्बर 1995 तक काम किया है और इसलिए उसे इस पूरी अवधि के लिए न्यूनतम वेतन मिलना चाहिए। कोर्ट क्लब के आपराधिक कार्य में साझीदार नहीं हो सकता।”


     
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