ब्रेकिंग : दस अक्तूबर से संविधान पीठ दिल्ली सरकार बनाम केंद्र, इच्छामृत्यु समेत पांच मामलों की करेगी सुनवाई

LiveLaw News Network

4 Oct 2017 1:00 PM GMT

  • ब्रेकिंग : दस अक्तूबर से संविधान पीठ दिल्ली सरकार बनाम केंद्र, इच्छामृत्यु समेत पांच मामलों की करेगी सुनवाई

    दस अक्तूबर से सुप्रीम कोर्ट की  संविधान पीठ पांच मामलों की सुनवाई करेगी। सुप्रीम कोर्ट द्वारा मंगलवार को जारी नोटिस के मुताबिक इनमें दिल्ली सरकार बनाम केंद्र सरकार, कॉमन कॉज बनाम केंद्र सरकार ( इच्छामृत्यु ) के मामले शामिल हैं।




    1. दिल्ली सरकार बनाम केंद्र सरकार


    पांच महीने तक मामले की सुनवाई करने के बाद सुप्रीम कोर्ट में दो जजों की बेंच ने दिल्ली की केजरीवाल सरकार और केंद्र सरकार के बीच अधिकारों की रस्साकसी के मामले को संविधान पीठ को भेज दिया था। दिल्ली सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट के चार अगस्त 2016 के उस आदेश को चुनौती दी है जिसमें हाईकोर्ट ने उपराज्यपाल को दिल्ली का प्रशासनिक हेड घोषित करते हुए कहा था कि उपराज्यपाल मंत्रिमंडल की सलाह या मदद के लिए बाध्य नहीं हैं।




    1. कॉमन कॉज बनाम केंद्र सरकार


    फरवरी 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने पैसिव यूथेनेशिया यानी इच्छामृत्यु की एक याचिका को संविधान पीठ में भेज दिया था जिसमें ऐसे व्यक्ति की बात की गई थी जो बीमार है और मेडिकल ऑपनियन के मुताबिक उसके बचने की संभावना नहीं है। चीफ जस्टिस पी सदाशिवम की अगवाई में बेंच ने ये फैसला NGO कॉमन कॉज की याचिका पर लिया था जिसमें कहा गया था  कि एक व्यक्ति मरणांतक बीमारी से पीडित हो तो उसे दिए गए मेडिकल स्पोर्ट को हटाकर पीडा से मुक्ति दी जानी चाहिए जिसे पैसिव यूथेनेशिया कहा जाता है।

    सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने ज्ञान कौर बनाम पंजाब में कहा था कि इच्छामृत्यु और खुदकुशी दोनों भारत में गैरकानूनी हैं और इसी के साथ दो जजों की बेंच के पी रतिनम बनाम केंद्र सरकार के फैसले को पलट दिया था। कोर्ट ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 21 के जीने के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल नहीं है। लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट ने अरूणा रामचंद्र शॉनबाग बनाम केंद्र सरकार मामले में कहा कि कोर्ट की कडी निगरानी में आसाधारण परिस्थितियों में पैसिव यूथेनेशिया दिया जा सकता है।

    एक्टिव और पैसिव यूथेनेशिया में अंतर ये होता है कि एक्टिव में मरीज की मृत्यु के लिए कुछ किया जाए जबकि पैसिव यूथेनेशिया में मरीज की जान बचाने के लिए कुछ ना किया जाए।




    1. कल्पना मेहता व अन्य और केंद्र सरकार व अन्य


    अप्रैल 2017 में सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने निम्न सवालों के जवाब के लिए मामले को संविधान पीठ के सामने भेजा था।




    1. क्या कोर्ट में संविधान के अनुच्छेद 32 या अनुच्छेद 136 के तहत दाखिल याचिका पर कोर्ट संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट को रेफरेंस के तौर ले सकती है और इस पर भरोसा कर सकती है ?

    2. क्या ऐसी रिपोर्ट को रेफरेंस के उद्देश्य से देखा जा सकता है और अगर हां तो किस हद तक इस पर प्रतिबंध रहेगा। ये देखते हुए कि संविधान के अनुच्छेद 105, 121, और 122 में विभिन्न संवैधानिक संस्थानों के बीच बैलेंस बनाने और 34 के तहत संसदीय विशेषाधिकारों का प्रावधान दिया गया है।


    जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस रोहिंग्टन फली नरीमन ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया औप इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च द्वारा ह्युमन पापिलोमा वायरस ( HPV) के लिए टीके  की इजाजत देने संबंधी याचिका पर सुनवाई कर रहे थे। ये टीका ग्लैक्सो स्मिथ क्लिन एशिया लिमिटेड और एमएसडी फार्मास्यूटिकल्स प्राइवेट लिमिटेड बना रहे थे जो महिलाओं को सर्वाइकल कैंसर से बचाव के लिए था और टीके के लिए प्रयोग पाथ इंटरनेशनल की मदद से गुजरात व आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा किया जा रहा था। ये मामला इस दौरान कुछ लोगों की मौत होने और मुआवजा देने के मुद्दे पर उठा।

    सुनवाई के दौरान कोर्ट को 22 दिसंबर 2014 को दी गई संसदीय स्थाई समिति की 81 वीं रिपोर्ट के बारे में बताया गया। बार की ओर से मुद्दा उठाया गया कि क्या अनुच्छेद 32 के तहत  याचिका पर न्यायिक सुनवाई करते वक्त संसदीय समिति की रिपोर्ट के आधार पर गौर कर सकती है और इसके आधार पर आदेश जारी कर सकती है।




    1. झारखंड राज्य बनाम हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी


    इस मामले में सवाल ये था कि क्या कोर्ट मध्यस्थता प्रक्रिया के निर्णय की अर्जी को कोर्ट के नियम के तौर पर मंजूर कर सकता है ?

    जनवरी 2013 में कोर्ट ने झारखंड राज्य और हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड ( HCC) के बीच के विवाद को रिटायर्ड जस्टिस एसबी सिन्हा के पास भेजा था। साथ ही कहा कि इसका निर्णय सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया जाए। जस्टिस सिन्हा ने अक्तूबर 2015 में निर्णय पास कर कोर्ट को इसकी प्रति भेज दी। राज्य ने इसे एक्ट के सेक्शन 34 के तहत सिविल कोर्ट में इसे चुनौती दी। हालांकि HCC ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर इस निर्णय के आधार पर फैसला देने का आग्रह किया। HCC ने कहा चूंकि मध्यस्थ को ये निर्णय सुप्रीम कोर्ट में दाखिल करने को कहा गया था इसलिए निर्णय को कोर्ट के नियम घोषित करने की अर्जी भी सुप्रीम कोर्ट में ही दाखिल होनी चाहिए और सुप्रीम कोर्ट को ही इस निर्णय के आधार पर फैसला देने का अधिकार है।

    दूसरी ओर राज्य की ओर से कहा गया कि किसी भी वादी को बिना किसा ठोस कारण अपील करने के अधिकार से वंचित नहीं रखा जा सकता। अगर सुप्रीम कोर्ट निर्णय पर आपत्ति के मामले में फैसला देगा तो पक्षकार अपील करने का अधिकार खो देंगे।

    जस्टिस जे चेलामेश्वर और जस्टिस एस अब्दुल नजीर ने इससे संबंधित कई फैसलों को देखा और पाया कि किसी निर्णय को कोर्ट के नियम के तौर पर बनाने की अर्जी की सुनवाई को लेकर मतभेद हैं।




    1. नेशनल इंश्योरेंस कंपनी बनाम पुष्पा व अन्य


    इस मामले में सवाल ये है कि क्या भविष्य की संभावनाओं का सिद्धांत निजी रोजगारों में भी लागू होता है ?

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