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NGT को SPCB के सदस्यों को हटाने का अधिकार नहीं, 6 महीने में नियुक्ति के लिए गाइडलाइन बनाएं राज्य : सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़ें]

LiveLaw News Network
23 Sep 2017 5:09 AM GMT
NGT को SPCB के सदस्यों को हटाने का अधिकार नहीं, 6 महीने में नियुक्ति के लिए गाइडलाइन बनाएं राज्य : सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़ें]
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सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ( NGT) के उस आदेश को रद्द कर दिया है जिसमें NGT ने दस राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्षों को काम करने रोक दिया था क्योंकि राज्यों ने NGT के पहले के फैसले के मुताबिक नई नियुक्तियां नहीं की थीं।

शुक्रवार को न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की पीठ ने कहा कि NGT ने ये आदेश अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर दिया है। कोर्ट ने ये भी कहा कि इस फैसले ने कुछ मुद्दों को उठाया है जिन पर विचार किया जाना चाहिए।

पीठ ने कहा कि हम NGT से सहमत हैं और उसके दर्द व पीडा को समझते हैं लेकिन हमारे विचार में उसने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से नियुक्तियों पर पुन:विचार करने और इसके लिए गाइडलाइन बनाने के निर्देश दिए हैं। इसलिए NGT के आदेश को पलटा जाता है लेकिन इस फैसले से कई चिंताजनक तथ्य सामने आए हैं जिन पर अथॉरिटी को खासतौर पर राज्य सरकारों को गंभीरता से विचार करने की जरूरत है जो राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के लिए नियुक्तियां या नामांकन करती हैं। कोर्ट ने कहा कि राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के कर्तव्य, कार्य और जिम्मेदारियों को देखते हुए ऐसी नियुक्तियां सामान्य तरीके से या बिना दिमाग का इस्तेमाल किए नहीं की जानी चाहिए 

राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड( SPCB) में नियुक्तियां 

जबकि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि NGT ने अधिकारक्षेत्र से बाहर जाकर आदेश दिए हैं लेकिन SPCB में नियुक्तियों को लेकर विशिष्ट गाइडलाइन तय कर सकता है। कोर्ट ने कहा कि SPCB में नियुक्ति से पहले गंभीरता से विचार होना चाहिए और सिर्फ श्रेष्ठ को ही नियुक्त किया जाना चाहिए।

कोर्ट ने कार्यपालिका के SPCB में नियुक्तियों के लिए उचित नियम बनाने और विचार करने की जरूरत बताते हुए सभी राज्यों को 6 महीने के भीतर गाइडलाइन तय करने या नियुक्त के नियम बनाने के निर्देश दिए। कोर्ट ने कहा कि संस्थानिक जरूरतों को देखते हुए, वैधानिक नियमों और सुप्रीम कोर्ट के आदेश और कई समितियों व अथॉरिटी की रिपोर्ट पर विचार करके ये सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि SPCB में पेशेवर और विशेषज्ञों की ही नियुक्तियां होनी चाहिएं।

पीठ ने राज्य सरकारों को चेताया कि पर्यावरण को कोई नुकसान होगा तो वो स्थायी और फिर से ठीक न होने वाला या देर तक चलने वाला हो सकता है। अगर पहले ही राज्य सरकारों ने सही कदम नहीं उठाए तो राज्य सरकारों को उस वक्त अचंभित नहीं होना चाहिए जब कोर्ट में SPCB में अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति को लेकर कोर्ट में याचिका दाखिल होने लगें।

NGT के अधिकारक्षेत्र से बाहर 

सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल एक्ट, 2010 के सेक्शन 14 और 15 पर भरोसा किया जिसमें कहा गया है कि NGT अधिकारक्षेत्र आता है जब पर्यावरण संबंधित कोई ठोस सवाल उठता है और ये सवाल किसी विवाद से उठना चाहिए ना कि ये कोई एकेडिमक सवाल होना चाहिए। कोर्ट ने ये भी कहा कि ऐसे में कोई दावेदार होना चाहिए जो किसी विवाद को उठाते हुए समझौते के तहत मुआवजे के तौर पर राहत की मांग करे या संपत्ति अथवा पर्यावरण के नुकसान की बहाली की मांग करे। इसके साथ की कोर्ट ने माना कि SPCB में नियुक्तियों या हटाने का मामला NGT के वैधानिक अधिकारों के तहत नहीं आता क्योंकि इसमें पर्यावरण को लेकर ठोस सवाल नहीं उठता। कोर्ट ने कहा कि विवाद वो होता है जिसमें किसी दूसरे पक्ष के खिलाफ अधिकार, हित या दावे को लेकर विपरीत पक्ष हो। ऐसे में नियुक्तियों का मुद्दा रिट के जरिए संवैधानिक कोर्ट तो सुन सकती हैं लेकिन NGT से इसका कोई लेना देना नहीं है।

पीठ ने कहा हालांकि NGT ने इस मुद्दे पर अपनी सीमाओं को समझा और राज्य सरकारों को नियुक्तियों पर फिर से विचार करने को कहा लेकिन यहां मुद्दा ये है कि क्या NGT को ऐसे दावों पर विचार करना चाहिए ? इसका जवाब नहीं में है और NGT को चाहिए कि ऐसे मामलों में राहत के लिए दावाकर्ता को संवैधानिक कोर्ट में अर्जी दायर करने को कहे। ऐसे में NGT के आदेश को पलटा जाना चाहिए क्योंकि ये बिना अधिकारक्षेत्र के दिया गया।

जिन्हें पहले ही हटा दिया गया 

सुप्रीम कोर्ट को बताया गया कि कुछ राज्यों ने पहले ही कुछ सदस्यों को NGT का आदेश लागू करते हुए हटा दिया है। कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में कार्रवाई का कारण अलग है और प्रभावित लोग इस संबंध में चाहे तो स्वतंत्र तौर पर और उचित तरीके से फैसले को चुनौती दे सकते हैं। पीठ ने कहा कि ये मुद्दा हटाए गए सदस्यों व राज्य सरकार के बीच का है। ये कोई जनहित से जुडा मुद्दा नहीं है इसलिए कोर्ट हालात को फिर से वैसा नहीं बना सकती।

 

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