गंभीर अपराध में सजायाफ्ता होना परोल से इंकार का कारण नहीं : सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

18 Sep 2017 2:38 PM GMT

  • गंभीर अपराध में सजायाफ्ता होना परोल से इंकार का कारण नहीं : सुप्रीम कोर्ट

    टाडा एक्ट के तहत सजा काट रहे एक कैदी की अर्जी पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि गंभीर अपराध होने पर भी परोल की अर्जी पर विचार करने में कोई असर नहीं पडेगा।

    कैदी को बाबरी मस्जिद गिराने की पहली बरसी पर बम धमाके करने के लिए विस्फोटक सप्लाई करने के मामले में सजा हुई थी। सुप्रीम कोर्ट समेत सभी अदालतों ने उसकी सजा बरकरार रखी। अपनी उम्रकैद की सजा में से 10 साल की जेल काटने के बाद उसने परोल की अर्जी लगाई लेकिन अथॉरिटी ने उसकी अर्जी को नहीं माना क्योंकि वो टाडा केस का सजायाफ्ता था। हाईकोर्ट ने भी उसकी अर्जी ये कहते हुए खारिज कर दी कि ये मामला गंभीर श्रेणी के अपराध से जुडा है इसलिए परोल को अधिकार के तौर पर नहीं देखा जा सकता। हाईकोर्ट ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही इस मामले में अपील पर फैसला दे चुका है इसलिए हाईकोर्ट मामले में अपने अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सकता।
    सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि हाईकोर्ट ने इस मुद्दे पर दो गलतियां की हैं। हाईकोर्ट ने खुद को ये कहते हुए गलत दिशा में ले जाया गया है कि सुप्रीम कोर्ट अपील को खारिज कर चुका है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में दोषसिद्दी को लेकर मामला आया था इसका मतलब ये नहीं है कि हर बार उसे इसी कोर्ट में भेज दिया जाए। खासतौर पर उस वक्त जब वो मुख्य दोष से अलग कोई राहत मांग रहा हो।

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि टाडा जैसे गंभीर अपराध में दोषी होने पर भी किसी को परोल मांगने से रोका नहीं जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने इस दौरान परोल देने के उद्देश्य पर भी गौर किया। इस दौरान परोल और फरलॉ के सिद्धांतों पर भी चर्चा की गई। दोनों के बीच में अंतर भी बताया गया।
    1. परोल और फरलॉ दोनों सशर्त रिहाई हैं
    2. परोल को कम अवधि की सजा में दिया जा सकता है जबकि फरलॉ लंबी अवधि की सजा में दिया जा सकता है
    3. परोल की अवधि एक महीने तक बढाई जा सकती है। फरलॉ को ज्यादा से ज्यादा 14दिन दिया जा सकता है।
    4. परोल को डिवीजनल कमिश्नर दे सकता है और फरलॉ जेल के डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल दे सकते हैं
    5. परोल के लिए कारण बताना जरूरी होता है जबकि फरलॉ जेल की नीरसता तोडने के लिए है।
    6. परोल के हिसाब में जेल की सजा का वक्त नहीं जोडा जाता जबकि फरलॉ में इसका उलटा होता है।
    7. परोल कितनी बार भी दिया जा सकता है जबकि फरलॉ सीमित होता है।
    8. चूंकि फरलॉ देने में कोई कारण नहीं होता इसलिए समाज के लिए इससे इंकार किया जा सकता है।

    सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा कि परोल देने का महत्वपूर्ण आधार सामाजिक और पारिवारिक रिश्ते बरकरार रखना होता है। इसके जरिए सजा के एक उद्देश्य तक पहुंचा जाता है और वो है अपराधी का दोबारा से समाज के साथ एकीकरण और सुधार। परोल देना सजा से मानवतावादी बर्ताव करना है।

    उसी वक्त सजा से दूसरे उद्देश्य जैसे सख्ती और बचाव भी विचार में रखे जाने चाहिए। अगर कैदी के परोल पर छोडने से आपराधिक गतिविधि बढती हैं तो परोल को बढावा नहीं देना चाहिए। परोल की अर्जी पर कैसे विचार किया जाना चाहिए इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अथॉरिटी को देखना चाहिए कि क्या कैदी में फिर अपराध करने की प्रवृति है या वो सुधरकर अच्छा नागरिक बनना चाहता है।

    सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि अगर कोई गंभीर अपराध का दोषी है तो अपराध की वजह से उसे परोल देने से रोका नहीं जा सकता। अगर कोई कैदी लंबे वक्त से सलाखों के पीछे है तो उसे कुछ वक्त का अस्थाई परोल दिया जा सकता है भले ही वो किसी भी अपराध का दोषी हो।
    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये भी बताना जरूरी है कि एेसे मामलों में विचार करते वक्त अथॉरिटी को ये भी सही तरीके देखना चाहिए कि दोषी का व्यवहार कैसा है और वो आदतन अपराधी तो नहीं है। इसके अलावा फैसला करते वक्त ये भी ध्यान में रखा जाए कि वो समाज के लिए खतरा या शांति को खतरा तो नहीं है।

    सुप्रीम कोर्ट ने क्रिमिनलॉजिस्ट फ्रैंक एक्सनर द्वारा खतरनाक और हार्ड कोर अपराधियों व कभी कभार अपराध करने वालों के बीच अंतर भी स्पष्ट किया।
    1. पारिवारिक जीवन में वंशानुगत कमजोरी
    2. अपराधीकरण की बढ़ती गति
    3. अभिभावकों के घर में खराब हालत
    4. बुरी स्कूल प्रगति (विशेष रूप से व्यवहार और मेहनत में )
    5. शुरु करने के बाद पढाई पूरी करने में नाकाम
    6. अनियमित काम( काम करने में शर्म )
    7. 18 साल की उम्र से पहले ही अपराध
    8. चार से ज्यादा पिछली सजाएं
    9. अपराध का त्वरित पतन
    10. इंटरलोकल अपराध (गतिशीलता)
    11. मनोरोगी व्यक्तित्व (संस्थागत चिकित्सक के निदान)
    12. संस्थान से 36 साल की उम्र से पहले बाहर आना
    13. शराब की लत
    14. संस्थान में बुरा बर्ताव
    15. रिहाई के वक्त समाज और परिवार से बुरे रिश्ते

    इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि वो 1995 के परोल के नियमों में बदलाव करे जैसे कोर्ट में चर्चा की गई है। फैसले की एक प्रति केंद्रीय कानून एवं न्याय मंत्रालय को देने का निर्देश भी दिया गया है।

    हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने तथ्यों को देखते हुए याचिकाकर्ता की गुहार को ठुकरा दिया। कोर्ट ने पाया कि जिला मजिस्ट्रेट ने रिपोर्ट दी थी कि रिहाई होने पर अनहोनी घटना हो सकती है। ये भी कहा गया कि दोषी रिहा होने पर उन लोगों पर हमला कर सकता है जिन्होंने उसके खिलाफ गवाही दी। वहीं कैदी की जान को भी खतरा बताया गया। इन तथ्यों पर गौर करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अर्जी खारिज कर दी।


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