माता-पिता का प्यार पाना बच्चों का मौलिक अधिकार : दिल्ली हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
5 Sept 2017 7:00 PM IST
दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि माता-पिता का प्यार पाना बच्चों का मौलिक अधिकार है। हाईकोर्ट ने वैवाहिक विवाद के दौरान बच्चों को बदले की कारवाई का औजार बनाने पर भी चिंता जताई है। हाईकोर्ट ने कहा है कि कस्टडी मामलों में भी बच्चों की भलाई को अहम स्थान दिया जाना चाहिए।
दरअसल NGO आर्ट ऑफ लर्निंग फाउंडेशन ने दिल्ली हाईकोर्ट में जनहित याचिका दाखिल कर वैवाहिक विवाद के चलते कानूनी लडाई लड रहे दंपति के बच्चों के हितों की रक्षा के लिए गाइडलाइन बनाने की मांग की है। खासतौर पर एेसे मामलों में जिनमें शादी पूरी तरह टूट चुकी हो।
याचिका में मांग की गई है कि कानून एवं न्याय मंत्रालय एेसे बच्चों को माता-पिता के बीच चल रही कानूनी लडाई के लंबित प्रक्रिया के दौरान मुलाकात, कस्टडी और रखरखाव के जल्द निर्णय के लिए कोई गाइडलाइन तैयार करे।
NGO की सचिव और वकील कादंबरी पुरी ने ये भी मांगकी है कि नाबालिग बच्चों से मामले में केस के निपटारे के लिए कोई समयसीमा भी तय की जानी चाहिए। उन्होंने मांग कि मंत्रालय एेसे मामलों के लिए सभी न्यायिक अधिकारियों के लिए कार्यक्रम आयोजित करे और अलग अलग केसों में एक जैसे तथ्यों के आधार पर विभिन्न अदालतों के विचारों से निपटने के लिए गाइडलाइन भी जारी करे।
एक्टिंग चीफ जस्टिस गीता मित्तल ने NGO को कहा है कि वो देश के अलग अलग राज्यों में तय गाइडलाइन का अध्ययन कर गाइडलाइन का सुझाव दें।
स्कूली बच्चों के लिए कई प्रशिक्षण कार्यक्रम और वर्कशॉप चलाने वाले इस NGO ने कई मामले सामने आने के बाद हाईकोर्ट में अर्जी दाखिल की है। इन मामलों में बच्चे को किसी एक अभिभावक द्वारा दूसरे से दूर रहने का दबाव बनाने या दोनों के बीच कस्टडी या तलाक को लेकर कानूनी लडाई के चलते गंभीर मानसिक परेशानी से गुजरना पडा है।
पुरी ने कहा कि जब एेसे मामलों में कोर्ट प्रक्रिया में देरी होती है तो माता-पिता के बीच विवाद बच्चों के मन में बेचैनी, परेशानी, उदासीनता और आसहीनता और डिप्रेसन के बीज बो देता है।
याचिका में मई 2015 में लॉ कमिशन द्वारा रिफार्म्स इन गार्जियनशिप एंड कस्टडी लॉज इन इंडिया पर जारी 257 रिपोर्ट का हवाला दिया गया है। इसमें कमिशन ने माता-पिता और कस्टडी संबंधी सभी पहलुओं पर गार्जियन्स एंड वार्डस एक्ट 1890 के कल्याणकारी सिद्धांत को मजबूत करने पर जोर दिया है। इसमें गार्जियनशिप और कस्टडी को लेकर माता-पिता को बराबर कानूनी अधिकार देने और एेसे मामलो में बच्चों की भलाई के लिए विस्तृत गाइडलाइन बनाने की बात की गई है। साथ ही दोनों को बच्चे की ज्वाइंट कस्टडी पर विचार करने को कहा गया है।
याचिकाकर्ता ने महाराष्ट्र और हिमाचल प्रदेश राज्यों की गाइडलाइन का भी जिक्र किया जिसमें समन दिए जाने के बाद मुलाकात की अंतरिम योजना के अलावा कोर्ट द्वारा माता-पिता और बच्चों की मानसिक हालत के आंकलन के लिए मेडिकल मदद लेना शामिल है।
याचिका में कहा गया है कि कुछ खामियां हैं जो पूरी की जानी चाहिएं। इनमें
- दिल्ली में नाबालिग बच्चे की कस्टडी, देखभाल और मिलने के अधिकार जैसे मामलों में गाइडलाइन की गैरमौजूदगी
- न्यायिक अधिकारियों द्वारा निजी समझ और मनमाने निर्णय के आधार पर एक जैसे हालत में द्विभाजी और अलग अलग फैसले देना
- कस्टडी को लेकर लंबी देरी के चलते बच्चे पर दबाव और एक अभिभावक से अलग होने पर उसकी भावनाओं और भलाई को लेकर जीवनभर के प्रतिकूल प्रभाव पर कोई संज्ञान ना लेना, एेसे मामलों में निपटारे के लिए तय न्यूनतम समयसीमा तय अनिवार्य हो।
- बच्चों से जुडे मामलों में न्यायिक अफसरों की सोच में जल्द बदलाव को लेकर गाइडलाइन बनाने की जल्द जरूरत
- नाबालिग बच्चों और तीसरे पक्ष की सुनवाई या खुली अदालत में कारवाई के दौरान निंदात्मक आरोप पर प्रतिबंध लगाने के लिए गाइडलाइन की जरूरत
- किसी अलग किए गए अभिभावक या उसके परिवार की तरफपडने वाले दबाव जिसे अलग होने पर गंभीर यंत्रणा झेलनी होती है, के बारे में संज्ञान लेने की जरूरत
- इस मामले में जल्द गाइडलाइन बनाने की जरूरत जिसमें बच्चे की मनोवैज्ञानिक चिकित्सा अनिवार्य हो और इसके लिए मनौवैज्ञानिक फैमिली कोर्ट द्वारा पूरी छानबीन ओर नियमित काउंसिंग के बाद नियुक्त किया जाए। उन्हें पूरे परिवार के आंकलन के लिए कहा जाए जिसमें माता-पिता के नियमित मानसिक आंकलन, बच्चे के प्रति उनके व्यवहार और देखभाल के दूसरे पहलुओं पर निगरानी करें।