एसिड अटैक के मामले तीस दिन की सजा देने का मामला-सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट को दी नसीहत, साथ ही बढ़ाई दोषी की सजा व पीड़िता के मुआवजे की राशि
LiveLaw News Network
31 May 2017 5:22 PM IST
’जब किसी युवती पर हुए एसिड अटैक जैसे अपराध में तीस दिन की सजा दी जाती है तो यह अपने आप में न्याय को बहिष्कृत करने और अनौपचारिक ढंग से वानप्रस्थ की तरफ भेजने जैसा है’।
सुप्रीम कोर्ट ने हैदराबाद हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया है,जिसमें एसिड अटैक के मामले में सजा पाए एक दोषी की सजा को घटा दिया था और उसके द्वारा जेल में बिताए गए दिनों को ही पर्याप्त सजा माना था।
जस्टिस दीपक मिश्रा व जस्टिस आर.भानूमति की पीठ ने इस मामले में पीड़ित की तरफ से दायर अपील को स्वीकार कर लिया है।
क्या है मामलाः
मामले की पीड़िता ने इंटरमीडिऐट का कोर्स पूरा किया था,जिसके बाद वह अपने भाई के साथ ईस्ट गोदावरी जिले के अमालपुरम में आकर रहने लग गई। उसका भाई वहां पर बी.वी.सी इंजीनियरिंग कालेज में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर काम करता था। वह इस मामले में घटना से पहले एक सप्ताह तक अपने भाई के साथ रही। जिसके बाद वापिस वह अपने भाई के साथ अपने पैतृक घर सोमपुरम चली गई। इसी दौरान आरोपी के बड़े भाई ने पीड़िता के भाई से कहा कि वह अपनी बहन की शादी उसके भाई से कर दे। परंतु इस रिश्ते के लिए पीड़िता के परिजनों ने सहमति नहीं दी। इसी का बदला लेने के लिए आरोपी जबरन पीड़िता के घर में घुसा और पीड़िता के सिर पर एसिड की भरी बोतल ड़ाल गया।
निचली अदालत ने इस मामले में आरोपी को आई.पी.सी की धारा 326 व 448 के तहत दोषी करार दिया और उसे एक साल कैद की सजा दी। साथ ही धारा 326 के तहत पांच हजार व धारा 448 के तहत एक हजार रूपए जुर्माना भी आरोपी पर लगाया गया। आरोपी ने इस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील दायर की और हाईकोर्ट ने सजा में संशोधन करते हुए उसके द्वारा जेल में बिताए गए दिनों को ही पर्याप्त सजा माना और उसे छोड़ दिया। रिकार्ड के अनुसार आरोपी ने तीस दिन जेल में बिताए थे।
सुप्रीम कोर्ट के अनुसार इस मामले में मुख्य सवाल यह था कि क्या हाईकोर्ट ने सजा में संशोधन करते समय अपने विवेक को जगाए रखा या फिर किसी पीड़ित के दर्द व तकलीफ को दरकिनार करके उसने किसी व्यक्ति विशेष के प्रति अथाह दया दिखाई है। जबकि पीड़िता खुद एक युवती है और उस पर इतना भयानक हमला किया गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस मामले में हाईकोर्ट के दृष्टिकोण ने हमें आश्चर्यचकित कर दिया है और हमें ऐसा कहने में कोई हिचक नहीं हो रही है। इस मामले में मेडिकल सबूत मौजूद हैं,जो यह बताते हैं कि एक युवती पर एसिड अटैक हुआ है। वहीं परिस्थितिजन्य साक्ष्य मौजूद हैं और उसी के आधार पर सजा दी गई है तो उसमें संशोधन का कोई अर्थ नहीं है।
हम यह समझ नहीं पाए कि इस मामले में संबंधित जज ने किस आधार पर यह सजा कम की है। उसने अतिरिक्त दया दिखाई है या इसका कारण कुछ और है। जबकि इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया गया कि पूरा समाज कानून के अनुसार न्याय के लिए इंतजार कर रहा था,उसके बाद भी सजा को घटा दिया गया।
इसी के साथ सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए निचली अदालत के आदेश को सही ठहराया है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा-’जब किसी युवती पर हुए एसिड अटैक जैसे अपराध में तीस दिन की सजा दी जाती है तो यह अपने आप में न्याय को बहिष्कृत करने और अनौपचारिक ढंग से वानप्रस्थ की तरफ भेजने जैसा है’।