जानिए दाण्डिक न्यायिक प्रक्रिया में अनियमित कार्यवाही ( Irregular Proceedings) क्या होती है?
Shadab Salim
16 Aug 2020 8:45 AM IST
कभी-कभी दाण्डिक प्रक्रिया के अंतर्गत दंड न्यायालय अपनी शक्तियों के बाहर जाकर कोई काम करता है। जब दंड न्यायालय अपनी शक्तियों के बाहर जाकर कोई कार्यवाही करता है ऐसी कार्यवाही को अनियमित कार्यवाही (Irregular Proceedings) कहा जाता है।
साधारण अर्थों में ऐसी कार्यवाही, जिसे करने के लिए कोई दंड न्यायालय सशक्त नहीं है उसके उपरांत भी उन कार्यवाहियों को कर देता है।
दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अंतर्गत अध्याय 35 में इस प्रकार की अनियमित कार्यवाही का उल्लेख किया गया है। यह अनियमित कार्यवाहियां कब शून्य होती हैं तथा कब इन अनियमित कार्यवाहियों को अनदेखा किया जा सकता है, अर्थात वह कौन सी परिस्थितियां है, जिनमें कोई अनियमित कार्यवाही होने के बाद भी दंड प्रक्रिया अवैध नहीं होती है तथा वह कौन सी परिस्थितियां हैं जिनमें अनियमित कार्यवाही के परिणामस्वरूप न्याय प्रक्रिया शून्य व अवैध हो जाती है।
इस लेख के माध्यम से दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अध्याय 35 में वर्णित यह दोनों प्रकार की दाण्डिक कार्यवाहियों का उल्लेख किया जा रहा है। इस लेख में इस प्रक्रिया से संबंधित न्याय निर्णयों का भी समावेश किया जा रहा है।
सीआरपीसी 1973 (Crpc) के अध्याय 35 में सर्वाधिक दो महत्वपूर्ण धाराएं है।
1- धारा 460
2- धारा 461
धारा 460 के अंतर्गत उन अनियमित कार्यवाहियों का उल्लेख किया गया है, जो न्यायिक कार्यवाही को दूषित नहीं करती है एवं धारा 461 के अंतर्गत उन अनियमित कार्यवाहियों का उल्लेख किया गया है जो किसी न्यायिक कार्यवाही को दूषित कर देती है अर्थात शून्य कर देती है। फिर उन अनियमित कार्यवाहियों के कारण न्यायिक कार्यवाही का कोई वजूद नहीं रह जाता है।
धारा 460
इस धारा में ऐसी (9) अनियमितताओं का उल्लेख है जिनसे न्यायिक कार्यवाही दूषित नहीं होती है, क्योंकि वह भूलवश सद्भावनापूर्वक कारित होती है। यह अनियमितताएं ऐसी है, जिन्हें करने के लिए मजिस्ट्रेट विधि द्वारा अधिकृत नहीं है लेकिन उसके द्वारा यह गलती से परंतु सदभावनापूर्वक कारित होती है।
ललितचंद चौधरी बनाम सम्राट 1911 के एक बहुत पुराने प्रकरण में कहा गया है कि ऐसी अनियमितता के आधार पर किसी न्यायिक कार्यवाही को अपास्त नहीं किया जाएगा। इस धारा में यह गर्भित रूप से अशायित है की ऐसी अनियमितता के परिणामस्वरूप न्याय विफल नहीं होना चाहिए।
पी सी चिदंबरम पिल्लई बनाम सम्राट आईएलआर (ILR) 32 मद्रास 3 के मामले में कहा गया है कि जहां धारा 200 के अधीन किसी अपराध का सम्यक संज्ञान करने के पश्चात मजिस्ट्रेट ऐसा अन्वेषण किए जाने का आदेश पारित करता है जिसे देने के लिए अधिकृत नहीं है तो यह एक ऐसी अनियमितता होगी, जिसे धारा 460 के अंतर्गत सुधारा जा सकता है, अतः ऐसे आदेश के पश्चातवर्ती कार्यवाही दूषित नहीं होगी।
अब्दुल अनीस खान बनाम राज्य 1979 क्रिमिनल लॉ 182 कर्नाटक के नवीन मामले में कहा गया है कि जहां मजिस्ट्रेट ने मानहानि संबंधी एक व्यक्तिगत परिवाद का पुलिस रिपोर्ट के आधार पर संज्ञान किया है तो इस त्रुटिपूर्ण संज्ञान के परिणामस्वरूप संपूर्ण न्यायिक कार्यवाही दूषित नहीं होगी। अतः इस अनियमितता को धारा 460 के अधीन सुधारा जा सकता है।
पी सी मिश्रा बनाम शासन सीबीआई 2014 (2) क्रिमिनल लॉ जर्नल 2482 सुप्रीम कोर्ट के मामले में कहा गया है कि अनुसंधान के दौरान सह आरोपी को सरकारी गवाह बनाने का अधिकार मजिस्ट्रेट व विशेष न्यायाधीश दोनों को ही समान रूप से है। विशेष न्यायाधीश की नियुक्ति हो जाने के उपरांत मजिस्ट्रेट द्वारा माफी गवाह अर्थात सरकारी गवाह बनाने का आदेश दिया जाना एक अनियमितता हो सकती है किंतु उसके कारण विचारण कार्यवाही दूषित नहीं होती है क्योंकि भ्रष्टाचार का उक्त प्रकरण अनुसंधान में था।
लेख में दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अधीन उल्लेखित उन अनियमित कार्यवाहियों का उल्लेख किया जा रहा है जिनके कारण कोई न्यायिक कार्यवाही दूषित नहीं होती है। उन अनियमित कार्यवाहियो की संख्या 9 है। यदि कोई मजिस्ट्रेट जो निम्नलिखित बातों में से किसी को करने के लिए विधि द्वारा सशक्त नहीं है गलती से सदभावनापूर्वक कर देता है तो कार्यवाही दूषित नहीं होगी।
(क)- धारा 94 के अधीन तलाशी वारंट जारी करना।
(ख)- किसी अपराध का अन्वेषण करने के लिए पुलिस को धारा 155 के अधीन आदेश देना।
(ग)- धारा 176 के अधीन मृत्यु समीक्षा करना।
(घ)- अपनी स्थानीय अधिकारिता के अंदर के उस व्यक्ति को जिसने ऐसी अधिकारिता की सीमाओं के बाहर अपराध किया है पकड़ने के लिए धारा 187 के अधीन आदेशिका जारी करना।
(डं)- किसी अपराध का धारा 190 की उपधारा धारा (1) के खंड क या खंड ख के अधीन संज्ञान करना।
(च)- किसी प्रकरण में किसी मामले को धारा 192 की उपधारा 2 के अधीन हवाले करना।
(छ)- धारा 306 के अधीन क्षमादान करना।
(ज)- धारा 410 के अधीन मामले को वापस मंगाना उसका स्वयं विचारण करना।
(झ)- धारा 458 एवं धारा 459 के अधीन संपत्ति का विक्रय करना।
धारा 461
सीआरपीसी 1973 की धारा 461 कुल उन 17 प्रकारों की अनियमितताओं का उल्लेख करती है, जिनके कारण कोई न्यायिक कार्यवाही दूषित हो जाती है। यदि यह अनियमितताएं किसी न्यायिक कार्यवाही में होती है तो वह न्यायिक कार्यवाही सिरे से शुन्य होगी क्योंकि इनसे सद्भावना का प्रश्न ही नहीं उठता है।
इस धारा के उपबंध केवल ऐसे मामले में लागू होते हैं जिन पर विचारण करने के लिए कोई मजिस्ट्रेट को विधि के अंतर्गत अधिकारिता नहीं है। मजिस्ट्रेट द्वारा की गई कोई ऐसी कार्यवाही जिसे करने के लिए वह सक्षम नहीं है इस धारा के अधीन अनियमित होने के कारण शून्य हो जाएगी।
विश्वनाथ मुखर्जी बनाम माधवी मुखर्जी 1983 कोलकाता के मामले में कहा गया है कि यदि किसी मजिस्ट्रेट को इस सहिंता की धारा 125 के अधीन भरण पोषण के लिए आदेश पारित करने की अधिकारिता नहीं है तो उसके द्वारा ऐसा आदेश पारित किया जाना ऐसी अनियमितता होगी जो धारा 461 के अधीन शून्य प्रभावी होगी।
इस धारा में वर्णित अनियमितता युक्त कार्यवाही शून्य प्रभावी होने के कारण विधि के अंतर्गत उनका कोई अस्तित्व नहीं होता है अतः इन्हें उच्चतर न्यायालय द्वारा अपास्त किया जाना आवश्यक नहीं होता क्योंकि इन कार्यवाहियों के लिए मजिस्ट्रेट को प्रारंभिक अधिकारिता ही नहीं होती है।
सिंघाड़ा सिंह बनाम राज्य 1961 इलाहाबाद क्रिमिनल लॉ 617 के मामले में कहा गया है कि इस धारा में संस्वीकृति के लेखन (रिकॉर्डिंग आफ कन्फेशन) के बारे में कोई उल्लेख नहीं है फिर भी यदि संस्वीकृति किसी ऐसे मजिस्ट्रेट द्वारा भी लिखित की जाती है जो उसे अभिलिखित करने के लिए अधिकृत नहीं है तब ऐसी संस्वीकृति शून्य होगी।
रामदास केलुनायक बनाम बी एम मुद्देया 1978 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1063 कर्नाटक के मामले में निश्चित हुआ कि दंड प्रक्रिया संहिता का यह सामान्य सिद्धांत है कि अभियुक्त का विचारण उस ही मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश द्वारा किया जाए जो इसके लिए सक्षम है। यदि साक्ष्य किसी ऐसे मजिस्ट्रेट द्वारा लिखित की गई है जिसे ऐसा करने की अधिकारिता नहीं हो तो उत्तरावर्ती न्यायालय इसे अगले प्रक्रम से कार्यवाही चालू नहीं करते हुए उसे पुनः शुरू से प्रारंभ करेगा।
सीआरपीसी की धारा 461 के अधीन अग्रलिखित वह अनियमित कार्यवाहियां है जिनके कारण कोई भी न्यायिक कार्यवाही दूषित हो जाती है-
(क)- संपत्ति को धारा 83 के अधीन कुर्क करना और उसका विक्रय।
(ख)- किसी डाक या तार अधिकारी की अभिरक्षा में किसी दस्तावेज पार्सल या अन्य चीज के लिए तलाशी वारंट जारी करना।
(ग)- परिशांति कायम रखने के लिए प्रतिभूति की मांग करना।
(घ)- सदाचार के लिए प्रतिभूति की मांग करना।
(ड)- सदाचारी बने रहने के लिए विधिपूर्वक आबद्ध व्यक्ति को उन्मोचित करना।
(च)- परिशांति कायम रखने के लिए बंधपत्र को रद्द करना।
(छ)- भरण पोषण के लिए आदेश देना-
(ज)- स्थानीय न्यूसेंस के बारे में धारा 133 के अधीन आदेश देना-
(झ)- लोक न्यूसेंस की पुनरावृत्ति या उसे चालू रखने का धारा 143 के अधीन प्रतिषेध करना।
(त्र)- अध्याय 10 के भाग ग या भाग घ के अधीन आदेश देना।
(ट)- किसी अपराध का धारा 190 की उपधारा 1 के खंड ग के अधीन संज्ञान करना।
(ठ)- किसी अपराधी का विचारण करना
(ड)- किसी अपराध का संक्षिप्त विचारण करना
(ढ)- किसी अन्य मजिस्ट्रेट द्वारा अभिलिखित कार्यवाही पर धारा 325 के अधीन दंडादेश पारित करना।
(ण)- अपील का विनिश्चय करना।
(त)- कार्यवाही धारा 397 के अधीन मांगना।
(थ)- धारा 446 के अधीन पारित आदेश का पुनरीक्षण करना।
दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत यह वह अनियमित कार्यवाहियां है जो कोई भी दांडिक न्यायिक कार्यवाही को दूषित कर देती है तथा इन अनियमितताओं की अनदेखी किसी भी सूरत में नहीं की जा सकती।
ऊपर वर्णित निम्न 17 प्रकारों में यदि किसी एक परिस्थिति में किसी प्रकार की अनियमितता है तो ऐसी अनियमितता के कारण न्यायिक कार्यवाही दूषित हो जाएगी।
उदाहरण के तौर पर यदि कोई मजिस्ट्रेट किसी प्रकरण में किसी अपराध का संक्षिप्त विचारण करने के लिए सशक्त नहीं है या फिर वह अपराध संक्षिप्त विचारण किए जाने योग्य नहीं है और फिर भी उस अपराध का संक्षिप्त विचारण कर दिया जाता है। तब ऐसी परिस्थिति में कार्यवाही संहिता की धारा 461 के अधीन अनियमित हो जाएगी तथा यह कार्यवाही प्रभाव शून्य (void) होगी।