केस लॉ किसे कहा गया है?

Shadab Salim

30 Oct 2022 1:35 PM GMT

  • केस लॉ किसे कहा गया है?

    सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के पूर्व निर्णय अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णय पर काफी वजन रखते है। किसी बड़ी अदालत का दिया कोई निर्णय उसकी अधीनस्थ अदालत पर लागू होता है, अधीनस्थ अदालत अपनी उच्च अदालत के दिए निर्णय से परे नहीं हो सकती, इसलिए कानून में पूर्व निर्णय अति महत्वपूर्ण हो जाते हैं। सामान्य बोलचाल की भाषा में इन्हें रुलिंग अथवा केस लॉ कहा जाता है। बहस के दौरान वकील द्वारा अपने-अपने पक्ष समर्थन में ऐसे निर्णय न्यायालय के समक्ष पेश किये जाते हैं जो न्यायनिर्णयन में न्यायालयों का मार्गदर्शन करते हैं। इस आलेख में इस पर चर्चा की जा रही है कि यह निर्णय किस प्रकार लागू होते हैं और इससे संबंधित क्या प्रक्रिया है।

    जहां तक पूर्व-निर्णयों की प्रयोज्यता का प्रश्न है, हर निर्णय को उस मामले के परिप्रेक्ष्य में पढ़ा जाना चाहिये जिसके आधार पर वह निर्णय लिया गया हो। पूर्व-निर्णय किसी विषय पर सम्पूर्ण विधि का निर्वाचन नहीं कहा जा सकता। यह तथ्यों की सीमाओं से बंधा होता है।

    इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पूर्व निर्णयों की प्रयोज्यता प्रत्येक मामले के तथ्यों पर निर्भर करती है। यदि उस मामले के तथ्य जिस पर पूर्व निर्णय को लागू किया जाना है, पूर्व निर्णय से सम्बन्धित मामले के तथ्यों से मेल खाते हैं तो उस मामले में पूर्व निर्णय को लागू किया जा सकता है। पूर्व-निर्णयों को न्यायालय के समक्ष पेश करते समय मामले के तथ्यों का भली-भाँति अध्ययन कर लिया जाना चाहिये। केवल धारा या शीर्ष टिप्पण (Section or head notes) देखकर ही पूर्व निर्णय प्रस्तुत नहीं कर दिया जाना चाहिये।

    कई बार पूर्व निर्णय को अध्ययन किये बिना ही उसे न्यायालय के समक्ष पेश कर दिया जाता है जो प्रस्तुतकर्ता के ही विरुद्ध चला जाता है। अतः पूर्व निर्णय प्रस्तुतं करने से पूर्व उसका अच्छी तरह अध्ययन कर लिया जाना चाहिये और यह देख लेना चाहिये कि वह अपने मामले के तथ्यों से मेल खाता है या नहीं।

    निर्णयाधार एवं प्रसंगीति

    निर्णय में मुख्यतः दो बातें देखनी होती हैं—

    (1) निर्णयाधार (Ratio decidendi)

    (2) प्रसंगीति (Obiter dicta)

    निर्णयाधार पूर्व निर्णय का सार एवं उसकी आत्मा है। निर्णय लेखन में उसी से सम्बल मिलता है। प्रसंगीति न्यायालय की राय होती है। निर्णयाधार आबद्धकर होता है, जबकि प्रसंगीति आबद्धकर नहीं होती है।

    मेसर्स अंसल हाऊसिंग एण्ड कन्स्ट्रक्शन लिमिटेड नई दिल्ली बनाम स्टेट ऑफ उत्तरप्रदेश के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि निर्णयाधार का पता सारे निर्णय को पढ़कर लगाना चाहिये, न कि इधर-उधर की एक-दो लाइनें पढ़कर।

    पूर्व-निर्णयों को अत्यन्त सावधानी से लागू किये जाने की अपेक्षा की गई है। ऐसे निर्णय को लागू करने से पूर्व यह देख लेना चाहिये कि दोनों मामलों के तथ्य एक जैसे हैं अथवा नहीं है।

    डायरेक्टर ऑफ सेटलमेन्ट्स आंध्रप्रदेश बनाम एम आर अप्पा राव के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह कहा गया है कि निर्णयाधार बाध्यकारी बल रखता है। उसका अनुसरण किया जाना आवश्यक है। निर्णयाधार से अभिप्राय- न्यायालय के समक्ष विवादित प्रश्न के संदर्भ में निर्णय को पढ़कर सिद्धान्त का पता लगाना। दूसरी तरफ प्रसंगीति का बाध्यकारी बल नहीं होता है, किन्तु उस पर विचार किया जा सकता है।

    पूर्व निर्णयों का अनुपालन

    अनुपालन की दृष्टि से न्यायिक निर्णयों को तीन वर्गों में रखा जा सकता है

    (i) सुप्रीम कोर्ट के निर्णय

    (ii) प्रिवी कौंसिल के निर्णय तथा

    (iii) हाईकोर्ट के निर्णय।

    सुप्रीम कोर्ट के निर्णय

    सुप्रीम कोर्ट के निर्णय सभी अधीनस्थ न्यायालयों पर आबद्धकर होते हैं। संविधान के अनुच्छेद 141 में यह कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित विधि भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर सभी न्यायालयों पर आबद्धकर होगी।

    मूगाराम बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित विधि का द्वारा अनुसरण किया जाना चाहिए।

    कृष्णचन्द मण्डल बनाम श्रीमती माण्डवी देवी के मामले में पटना हाईकोर्ट द्वारा यह कहा गया है कि पूर्व निर्णयों को अन्तिम एवं आबद्धकर मानते हुए अंगीकृत किया जाना चाहिए।

    द्वारकेश शुगर इण्डस्ट्रीज लिमिटेड बनाम प्रेम हैवी इंजीनियरिंग वर्क्स के मामले में यहाँ तक कहा गया है कि निर्णयाधारों का अनुपालन नहीं करना न्यायिक औचित्य के विरुद्ध है।

    श्रवण सिंह लाम्बा बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि सुप्रीम कोर्ट की प्रसंगीक्तियों (Obiter dictum) का भी समादर किया जाना चाहिये।

    न्यू इण्डिया एश्योरेन्स लिमिटेड बनाम यदू संभाजी मोरे के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि नए तथ्यों के अभाव में पूर्वदृष्टान्त दावा न्यायाधिकरणों पर भी आबद्धकर है।

    वीरेन्द्र सिंह यादव बनाम श्रीमती राजकुमारी यादव के मामले में मध्यप्रदेश हाईकोर्ट द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि उच्च न्यायालय के निर्णय अधीनस्थ न्यायालयों पर आबद्धकर होते हैं। न्यायिक अधिकारियों को इनका अनुसरण कर न्यायिक गरिमा का परिचय देना चाहिये।

    लेकिन यहां यह उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय स्वयं पर आबद्धकर नहीं होते हैं अर्थात् सुप्रीम कोर्ट अपने पूर्व निर्णयों को मानने के लिए आबद्धकर नहीं है। पूर्व-निर्णयों के बारे में कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं जो निम्न हैं -

    (1) विधि अथवा नियम के विरुद्ध दिया गया कोई भी निर्णय पूर्व निर्णय नहीं बन सकता।

    (2) कोई भी निर्णय पूर्व निर्णय केवल तभी बन सकता है, जब उसमें विधि का प्रश्न विनिर्धारित किया गया हो।

    (3) पूर्व निर्णय केवल तभी प्रभावी होता है जब यह निर्णयाचार की शर्तों को पूरी करता हो।

    (4) विनिर्दिष्ट तथ्यों पर आधारित विनिश्चय पूर्व निर्णय का स्थान नहीं ले सकता।

    (5) विधिक स्थिति पर विचार किये बिना न्यायालय द्वारा दिये जाने वाले निदेश पूर्व दृष्टान्त नहीं माने जा सकते।

    (6) पूर्व दृष्टान्त भूतलक्षी प्रभाव वाले होते हैं, बशर्ते कि अन्यथा विनिर्दिष्ट न हो।

    (7) सिद्धान्तयुक्त न्यायिक निर्णय निर्णयाधार का निर्माण करता है।

    (8) असतर्कता से दिये गये निर्णय आबद्धकर नहीं होते हैं।

    प्रिवी कौंसिल के निर्णय

    प्रिवी कौंसिल के निर्णय उच्च न्यायालयों पर आबद्धकर हैं, बशर्ते कि ये उच्चतम न्यायालय द्वारा उलटे नहीं गये हों

    हाईकोर्ट के निर्णय

    हाईकोर्ट के निर्णयों की प्रयोज्यता के सम्बन्ध में निम्नांकित नियम हैं

    (क) प्रत्येक अधीनस्थ न्यायालय अपने ही हाईकोर्ट के पूर्व निर्णयों को मानने के लिए आबद्ध है।

    (ख) यदि किसी विषय पर अपने हाईकोर्ट का पूर्व निर्णय उपलब्ध नहीं है तो उस विषय पर अन्य उच्च न्यायालय के पूर्व निर्णय को मान लिया जाना चाहिये।

    (ग) जहां किसी विषय पर दो पूर्व निर्णय उपलब्ध हों लेकिन वे विरोधाभासी व्यवस्थायें देते हैं, वहीं पश्चात्वर्ती पूर्व निर्णय को मान लिया जाना चाहिये।

    (घ) यदि कोई निर्णय अधीनस्थ न्यायालय को न्यायसंगत न भी लगे तो भी उसे मान लिया जाना चाहिए।

    (ङ) एकल पीठ के निर्णयों पर खण्डपीठ के निर्णय पूर्वता रखते हैं।

    (च) अधीनस्थ न्यायालयों को पूर्व-निर्णयों की प्रसंगीक्ति को भी मानना चाहिये ।

    (छ) जहां विदेशी अधिनियम एवं भारतीय अधिनियम की भाषा एक हो, वहाँ विदेशी न्यायालयों के पूर्व-निर्णयों को भी माना जा सकता है।

    (ज) यदि कोई बिन्दु एकदम नया हो और उस पर कोई भारतीय पूर्व-निर्णय उपलब्ध न हों, तब इंग्लैण्ड के पूर्व-निर्णयों का अनुसरण किया जा सकता है।

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