जानिए साक्ष्य अधिनियम में स्वीकृति का क्या अर्थ है

Shadab Salim

31 Jan 2020 1:16 PM GMT

  • जानिए साक्ष्य अधिनियम में स्वीकृति का क्या अर्थ है

    भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत स्वीकृति (Admission) को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। जब कोई व्यक्ति किसी तथ्य को मान लेता है या अपराध को स्वीकार कर लेता है तो उसे आम भाषा में इसे स्वीकृति कहा जाता है। साक्ष्य अधिनियम में इसे विस्तार से समझाया गया है।

    अधिनियम की धारा 17 के अनुसार-

    स्वीकृति वह (मौखिक या दस्तावेजी या इलेक्ट्रॉनिक रूप में अंतर्विष्ट) कथन है,जो किसी विवाधक तथ्य या सुसंगत तथ्य के बारे में कोई अनुमान इंगित करता है और जो ऐसे व्यक्तियों में से किसी के द्वारा ऐसी परिस्थितियों में किया गया है जो एतस्मिन पश्चात वर्णित है। अधिनियम की यह परिभाषा अत्यधिक गूढ़ और गहन है, इसे समझने में थोड़ी सी कठिनाई हो सकती है।

    इस धारा में तीन बातों की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है।

    प्रथम- यह धारा स्वीकृति की परिभाषा देती है।

    दूसरा- धारा कहती है कि स्वीकृति तभी सुसंगत होगी जब अधिनियम में बताए गए व्यक्तियों द्वारा की गई हो।

    तीसरा- स्वीकृति केवल उन्हीं परिस्थितियों में सुसंगत होगी जो अधिनियम में बताई गई हैं। ऐसी परिस्थितियां धारा 18 से लेकर 30 तक वर्णित हैं तथा कौन से व्यक्तियों द्वारा स्वीकृति की जाएगी, यह भी अधिनियम में बताया गया है।

    स्वीकृति के कथनों के माध्यम से किसी विवाधक तथ्यों या सुसंगत तथ्यों के अस्तित्व का अनुमान लगाया जाता है, इसलिए साक्ष्य विधि में स्वीकृति को महत्व दिया गया है। स्वीकृति एक अत्यंत मजबूत साक्ष्य है तथा अन्य साक्ष्यों के मुकाबले स्वीकृति का साक्ष्य अधिक शक्तिशाली होता है।

    आवश्यक नहीं की कोई स्वीकृति तभी सुसंगत होगी जब वह पूर्ण रूप से दायित्व को स्वीकार करे, केवल इतना ही पर्याप्त होगा की किसी ऐसे तथ्य को स्वीकार किया गया है जिससे दायित्व का अनुमान लगता है। अर्थात यदि व्यक्ति ने किसी ऐसे तथ्य को स्वीकार कर लिया है जो उसके दायित्व का साक्ष्य देती है तो यह सुसंगत होगी।

    चीखम बनाम सुब्बाराव (ए आई आर 1981 एस सी 1542) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि किसी व्यक्ति का कोई अधिकार उसी के द्वारा की गई स्वीकृति के आधार पर छीनने के लिए यह आवश्यक है कि स्वीकृति स्पष्ट तथा अंतिम हो उसमें कोई शक या अनिश्चितता वाली बात नहीं होना चाहिए।

    इस मामले के माध्यम सुप्रीम कोर्ट यह बताना चाहता है कि यदि किसी व्यक्ति को उसके द्वारा की गई स्वीकृति के माध्यम से किसी अधिकार से वंचित करना है तो ऐसी स्वीकृति स्पष्ट एवं साफ साफ होनी चाहिए।

    स्वीकृति अंशों में होती है तथा इसी स्वीकृति के माध्यम से किसी एक ही संव्यवहार के अलग-अलग तथ्यों को साबित किया जा सकता है।

    जैसे कि किसी स्थान पर लाश मिलने के परिणाम स्वरूप किसी व्यक्ति को हत्या के अभियोजन में आरोपी बनाया गया है और आरोपी व्यक्ति यह स्वीकार करता है कि जिस समय व्यक्ति की हत्या हुई थी उस समय वह उस ही स्थान पर था तो भले ही यह स्वीकृति यह साबित नहीं कर रही है की हत्या आरोपी द्वारा ही की गई है, परंतु यह अवश्य साबित कर रही है की आरोपी व्यक्ति हत्या के समय जिस स्थान से लाश मिली है उस स्थान पर उपस्थित था।

    बृजमोहन बना अमरनाथ (एआईआर 1980 एस सी 54) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि न्यायालय को स्वीकृति के कथन के अंदर बाहर दोनों ओर से जांच कर लेनी चाहिए और किसी व्यक्ति को उसके कथनों से बाध्य करने से पहले यह देख लेना चाहिए कि वह व्यापक तथा स्पष्ट है।

    समय-समय पर न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णय के आधार पर स्वीकृति के कुछ तत्वों निकल कर सामने आते हैं जो निम्न हो सकते हैं-

    सबूत की आवश्यकता नहीं होना

    स्वीकृति के कारण किसी तथ्य के सुसंगत होने पर सबूत आवश्यक नहीं रह जाती है। यदि कुछ तथ्यों को स्वीकृति मिल गई है तो ऐसे तथ्यों का सबूत देने की आवश्यकता नहीं रहती, जिस व्यक्ति द्वारा स्वीकृति की जाती है उसे अपनी बात को साबित करने के लिए कोई सबूत देने की आवश्यकता नहीं होती है।

    जैसे यदि कोई भरण पोषण के लिए मुकदमा लाया जाता है यह मुकदमा अगर पत्नी द्वारा लाया जाता है, पत्नी किसी व्यक्ति को अपना पति बता रही है यदि वाद पत्र का जवाब देते हुए व्यक्ति जिस पर वाद लाया गया है वह वाद लाने वाली स्त्री को अपनी पत्नी मान लेता है तो या स्वीकृति है तथा इस स्वीकृति का साक्ष्य देने की आवश्यकता नहीं होगी।

    स्वीकृति उसे करने वाले व्यक्ति के हित के विपरीत होती है

    स्वीकृति के संदर्भ में यह माना गया है कि कोई भी स्वीकृति उसे करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध होती है। स्वीकृति उसे करने वाले व्यक्ति के हित के विरुद्ध ही जाती है,जो व्यक्ति ऐसी स्वीकृति कर रहा है।

    परंतु यह आवश्यक नहीं है कि कोई भी स्वीकृति सदैव उसे करने वाले व्यक्ति के हित के विरुद्ध ही जाए। कभी-कभी स्वीकृति केवल किसी विवाधक या सुसंगत तथ्य के अनुमान के लिए ही होती है। यह इस स्वीकृति को करने वाले व्यक्ति के हित के विपरित नहीं जाती है।

    भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत स्वीकृति को ऐसा ही माना गया है। अधिनियम के अंतर्गत स्वीकृति को केवल इतना माना गया है कि यह स्वीकृति केवल विवाधक एवं सुसंगत तथ्यों के अनुमान बताती है उनके अस्तित्व का निर्धारण करती है।

    स्वीकृति के लिए सत्य की अवधारणा की जा सकती है

    यदि कोई पक्षकार अपने हित के विरुद्ध कोई कथन कर रहा है तो यह उपधारणा की जा सकती है कि वह कथन सत्य ही होगा, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने बारे में किए गए ऐसे कथन को झूठ नहीं कहेगा, जो उसके हित के विरुद्ध हो इसलिए यह स्वीकृति का तत्व माना जा सकता है। स्वीकृति में सत्य की अवधारणा की जा सकती है।

    स्वीकृति के प्रकार

    न्याय निर्णय के माध्यम से स्वीकृति के प्रकारों को समझा जा सकता है। स्वीकृति कितने प्रकार की हो सकती है यह अलग-अलग न्याय निर्णय में समझा गया है।

    न्यायिक स्वीकृति

    जो स्वीकृति न्यायालय में की गई कार्यवाही के साथ की जाती है उसे प्रारूपिक स्वीकृति या न्यायिक स्वीकृति कहते है, जो स्वीकृति स्पष्ट रूप से कार्यवाही के आरंभ में की जाती है उन्हें प्रारूपिक या प्रत्यक्ष स्वीकृति कहते हैं, ताकि उन्हें ऐसी इस स्वीकृति से भिन्न रखा जा सके जो औपचारिक तथा आकस्मिक रूप से हो जाती है, जिन्हें गवाहों की सहायता से साबित करना पड़ता है।

    नगीनदास रामदास बनाम दलपतराम इच्छाराम के वाद में उच्चतम न्यायालय ने प्रारूपिक स्वीकृति के महत्व को समझा है तथा प्रारूपिक स्वीकृति के संदर्भ में कहा है कि यह एक मजबूत साक्ष्य होती है तथा ऐसे किसी साक्ष्य को साबित किए जाने की आवश्यकता नहीं होती है। यह न्यायालय के समक्ष की जाती है।

    ऐसी स्वीकृति यदि सही और स्पष्ट हो तो तथ्यों का सबसे अच्छा सबूत होती है। ऐसी स्वीकृति जो पक्षकारों ने अपने वाद में की है उसने न्यायिक स्वीकृति कहते है,जो धारा 58 के अंतर्गत है तथा जिसे पक्षकारों तथा उनके अभिकर्ताओं ने सुनवाई में किया है।

    ऐसी स्वीकृति दूसरा स्थान रखती है जो न्यायालय के बाहर होती है और गवाहों द्वारा साबित होती है। प्रथम श्रेणी की स्वीकृति करने वाले पक्षकार पर स्वीकृति पूर्ण रूप से बाध्य होती है, उनके सबूत का अभित्याजन हो जाता है, पक्षकारों के अधिकारों की बुनियाद बन सकती है।

    अनौपचारिक स्वीकृति

    अनौपचारिक स्वीकृति जीवन या कारोबार के साधारण वार्तालाप के क्रम में हो सकती है। ऐसी स्वीकृति लिखित हो सकती है या मौखिक।लिखित स्वीकृति पत्र व्यवहार के दौरान कारोबार की पुस्तकों में पासबुक आदि में हो सकती है।

    स्लेटलेरी बनाम पूले का मामला जिसे करण सिंह बनाम स्टेट ऑफ जम्मू एंड कश्मीर के मामले में मान्यता दी गई है, इसमें यह कहा गया है कि पति या पत्नी का प्रत्येक ऐसा कथन चाहे लिखित हो या मौखिक जो किसी पक्षकार ने वाद के तथ्यों के बारे में किया है, स्वीकृति बन जाती है।

    यदि वह किसी दस्तावेज द्वारा बाध्य है और दस्तावेज की विषय वस्तु के बारे में कोई बात कहता है वह उसके के विरुद्ध साक्ष्य होगा चाहे दस्तावेज स्टांप पर ना होने के कारण न्यायालय में प्रस्तुत ना किया जा सके।

    मामले प्रतिवादी ने मौखिक कथन के द्वारा यह मान लिया था कि उसने उतना ऋण लिया था जितना की दस्तावेज में लिखा हुआ था या उसके विरुद्ध साक्ष्य में कबूल हुआ।

    हेमचंद्र गुप्ता बनाम ओम प्रकाश गुप्ता एआईआर 1987 कोलकाता 69 के मामले में जिस व्यक्ति ने पारिवारिक बंटवारे के विलय पर हस्ताक्षर किए थे। उसके विरुद्ध यह स्वीकृति मान ली गई, क्योंकि सभी व्यक्तियों द्वारा ऐसे किसी भी लेख पर हस्ताक्षर नहीं किए गए थे।

    औपचारिक स्वीकृति का कथन हम किसी भी व्यक्ति के समक्ष कर सकते हैं, यह कथन किसी पति और पत्नी के बीच हुए संवाद के आधार पर भी हो सकता है।

    एक मामले में उच्चतम न्यायालय के शब्दों में यद्यपि किसी भूतपूर्व कथन मैं अपने ही पक्ष में की गई कोई बात कोई साक्ष्य नहीं होती है, परंतु कोई ऐसा भूतपूर्व कथन जो कथन करता है के हित के विरुद्ध हो वह स्वीकृति होगा और साक्ष्य के रूप में सुसंगत होगा।

    आचरण द्वारा स्वीकृति

    कोई स्वीकृति किसी परिस्थिति में आचरण के द्वारा भी हो सकती है। इस संदर्भ में इंग्लिश विधि का एक महत्वपूर्ण मामला है। इस मामले को मोएबिलिटी बनाम लंदन बाथम ओवर रेलवे का मामला कहा जाता है। इस मामले में व्यक्तिगत क्षति प्राप्त करने हेतु एक वाद रेलवे पर लगाया गया था।

    इस वाद में वाद लाने वाला व्यक्ति कुछ ऐसे व्यक्तियों को तलाश रहा था जो दुर्घटना के समय वहां उपस्थित नहीं थे। तलाश कर मुकदमे में साक्षी बनाना चाहता था, जबकि व्यक्ति स्थान पर उपस्थित नहीं थे, वाद लाने वाले व्यक्ति का यह आचरण न्यायालय में साबित कर दिया गया तथा आचरण के द्वारा स्वीकृति माना गया तथा वाद को सत्यता के परे माना गया।

    किसी भी विवाद में व्यक्ति के आचरण कुछ ऐसे होते है जिससे बहुत सी बातों का साक्ष्य मिलता है तथा जिसकी स्वीकृति मानी जा सकती है।

    एक दिलचस्प उदाहरण के माध्यम से आचरण द्वारा स्वीकृति को समझा जा सकता है।

    यदि जारकर्म लेकर कोई प्रश्न है। जारकर्म से स्त्री को कोई संतान उत्पत्ति होती है। स्त्री ऐसी संतान का जब नगर पालिका या किसी अन्य निकाय में रजिस्टर कराती है तो वह रजिस्टर करते समय संतान के पिता कौन है इस संदर्भ में कोई जानकारी नहीं देती है तो पिता की जानकारी नहीं देना सीधे-सीधे आचरण द्वारा जारकर्म की स्वीकृति मानी जा सकती है। हालांकि यह पूर्ण स्वीकृति नहीं है परंतु जारकर्म के मुकदमे में आंशिक स्वीकृति तो मानी ही जाएगी।

    Tags
    Next Story