सिविल कानून के तहत "रिसीवर" क्या होता है और इसकी क्या प्रासंगकिता है?

Idris Mohammad

27 Aug 2021 3:52 PM GMT

  • सिविल कानून के तहत रिसीवर क्या होता है और इसकी क्या प्रासंगकिता है?

    जब कभी दो पक्षकारों के मध्य किसी भी सम्पति को लेकर विवाद होता है तो यह अदालत में मुकदमा चलने के दौरान उस सम्पति को सुरक्षित एवं परिरक्षित करना भी न्याय हित के लिए आवश्यक होता है। यह सम्पति जमीन, सामग्री, कंपनी के शेयर, अमूर्त/मूर्त अधिकार, आदि कुछ भी हो सकते है।

    मुक़दमे के लंबित रहने के दौरान विवादित सम्पति से सम्बंधित सञ्चालन, रख-रखाव, नफ़ा-नुकसान, सम्पति की प्रकृति, आदि पहलुओं को ध्यान में रखते हुए अदालत किसी भी व्यक्ति को एक रिसीवर के रूप में नियुक्त कर सकती है।

    रिसीवर की नियुक्ति तब की जाती है जब अदालत की यह राय हो कि मुक़दमे के लंबित रहने के दौरान किसी भी पक्षकार को सम्पति एवं उस से सम्बंधित अधिकार सौपना दुसरे पक्षकार के पूर्वाग्रह हो सकता है।

    रिसीवर को सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत कही भी परिभाषित नहीं किया गया है। किन्तु अदालतों ने समय-समय पर रिसीवर शब्द एवं उस से जुड़े पहलुओं पर व्याख्या की है। रिसीवर की नियुक्ति सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत अथवा किसी विशिष्ट कानून (सम्पति अनंतरण अधिनियम, कंपनी अधिनियम, दिवाला एवं क्षोधन अक्षमता संहिता, आदि) की जा सकती है।

    सीपीसी के तहत धारा 51(घ) अथवा 94(घ) के तहत रिसीवर की नियुक्ति की जा सकती है और आदेश 40 रिसीवर के सम्बन्ध में नियुक्ति की परिस्थिति, पारिश्रमिक, कर्त्तव्य, आदि प्रावधान प्रदत्त करता है।

    मद्रास हाई कोर्ट ने टी. कृष्णास्वामी चेट्टी बनाम सी. थंगावेलु चेट्टी, [AIR 1955 Mad 430], के मामले में रिसीवर के नियुक्ति के सम्बन्ध में पाँच सिद्धांत वर्णित किये जिन्हें 'पञ्च सदाचार' कहा गया, जो कि निम्नलिखित है:

    (1) रिसीवर की नियुक्ति एक विवेकाधीन शक्ति है।

    एक वाद के लंबित रहने के दौरान रिसीवर की नियुक्ति न्यायालय के विवेक पर आधारित मामला है। विवेक मनमाना या निरपेक्ष नहीं हो सकता है। यह न्यायिक विवेक है जो मामले की सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, न्याय के प्राप्ति के उद्देश्य से प्रयोग किया जाता है, और विवाद एवं विषय-वस्तु में रुचि रखने वाले सभी पक्षों के अधिकारों की रक्षा करता है और तथ्य के आधार पर न्यायिक कार्यवाही के वांछित उद्देश्यों को पूरा करने के लिए कोई अन्य पर्याप्त उपाय या साधन नहीं हो।

    (2) न्यायालय को वादी द्वारा इस बात का प्रमाण दिए बिना रिसीवर नियुक्त नहीं करना चाहिए जब तक प्रथम दृष्टया उसके पास दावे में सफल होने का बहुत अच्छा मौका है।

    (3) वादी को न केवल संपत्ति के प्रतिकूल और परस्पर विरोधी दावों का मामला दिखाना चाहिए, बल्कि उसे तत्काल कार्रवाई की मांग करते हुए कुछ आपात स्थिति या खतरे या नुकसान दिखाना चाहिए और अपने अधिकार के लिए उसे उचित रूप से स्पष्ट और संदेह से मुक्त होना चाहिए। खतरे का तत्व एक महत्वपूर्ण विचार है। न्यायालय केवल संभावित खतरे पर कार्य नहीं करेगा; तत्काल राहत की मांग करते हुए खतरा बहुत बड़ा और आसन्न होना चाहिए। यह सच में कहा गया है कि कोई न्यायालय केवल इस आधार पर रिसीवर नियुक्त नहीं करेगा कि इससे कोई नुकसान नहीं होगा।

    (4) एक रिसीवर की नियुक्ति का आदेश नहीं दिया जाएगा, जहां यह प्रतिवादी को 'वास्तविक' कब्जे से वंचित करने का प्रभाव डालता है क्योंकि इससे अपूरणीय गलती हो सकती है। यदि विवाद केवल शीर्षक के बारे में है, तो न्यायालय बहुत अनिच्छा से रिसीवर के कब्जे में बाधा डालता है, लेकिन अगर संपत्ति खतरे और हानि के संपर्क में है और कब्जे वाले व्यक्ति ने इसे धोखाधड़ी या बल के माध्यम से प्राप्त किया है, तो न्यायालय रिसीवर द्वारा संपत्ति की सुरक्षा के लिए हस्तक्षेप करेगा।

    (5) न्यायालय, एक रिसीवर के आवेदन पर, उस पक्ष के आचरण को देखता है जो आवेदन करता है और आमतौर पर हस्तक्षेप करने से इंकार कर देगा जब तक कि उसका आचरण दोष से मुक्त न हो। उसे साफ हाथों से अदालत में आना चाहिए और लापरवाही, देरी, स्वीकृति आदि से न्यायसंगत राहत के लिए खुद को वंचित नहीं करना चाहिए।

    सुप्रीम कोर्ट ने भारत संघ बनाम हीरा देवी, [AIR 1952 SC 227], के मामले में मुख्य रूप से तय किया जाने वाला प्रश्न यह था कि क्या भविष्य निधि (प्रोविडेंट फण्ड) के संबंध में निर्णय-देनदार पर देय निष्पादन राशि में एक रिसीवर नियुक्त किया जा सकता है।

    कोर्ट ने पाया कि सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 51 निस्संदेह एक डिक्री के निष्पादन के पांच तरीकों को मान्यता देती है और उनमें से एक रिसीवर की नियुक्ति है। कुर्की और बिक्री द्वारा डिक्री को क्रियान्वित करने के बजाय, न्यायालय एक रिसीवर नियुक्त कर सकता है लेकिन यह केवल उस मामले में हो सकता है जहां एक रिसीवर नियुक्त किया जा सकता है। भविष्य निधि की राशि कुर्की से मुक्त है और अहस्तांतरणीय है। आम तौर पर, इस तरह की राशि के खिलाफ कोई निष्पादन नहीं हो सकता है।

    कोर्ट ने यह भी साफ़ किया कि यह निष्कर्ष निर्णय-देनदार के बकाया वेतन और भत्ते पर लागू नहीं होता है क्योंकि वे एक अलग कानूनी आधार पर हैं। प्रक्रिया संहिता की धारा 60 (1) में दी गई सीमा तक वेतन कुर्क नहीं किया जा सकता है, लेकिन बकाया वेतन के संबंध में ऐसी कोई छूट नहीं है।

    यह सच नहीं है कि भले ही संपत्ति की एक विशेष प्रजाति की कुर्की और अलगाव के खिलाफ एक वैधानिक निषेध है तो इसे निष्पादन के दूसरे तरीके से पहुँचा जा सकता है, जैसे एक रिसीवर की नियुक्ति द्वारा।

    श्री राम अर्बन इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड बनाम कोर्ट रिसीवर, बॉम्बे हाई कोर्ट, [(2015) 5 SCC 539], के मामले में प्रत्यर्थी को अदालत द्वारा किराये की एक प्रन्यास सम्पति के लिए रिसीवर नियुक्त किया गया। रिसीवर द्वारा अपीलार्थी को कुछ निश्चित राशी हर्जाने के बतौर जमा करवाने और परिसर को खाली करने हेतु नोटिस जारी किया गया।

    अपीलार्थी द्वारा नोटिस का जवाब देते हुआ कहा गया कि रिसीवर की नियुक्ति वाद परिसर के नियंत्रण हेतु की गयी है। ऐसे में रिसीवर को किरायेदारी के निर्धारण का कोई अधिकार नहीं है। इसलिए, रिसीवर द्वारा अपीलार्थी के अदालत में कब्ज़े के लिए दावा पेश कर दिया गया।

    सुप्रीम कोर्ट ने परिक्षण के बाद यह निर्धारित किया कि आदेश 40 नियम 1 के शब्द यह मानने के लिए कोई संकीर्ण व्याख्या नहीं दे सकते हैं कि सिविल प्रक्रिया संहिता रिसीवर को अचल संपत्ति के कब्जे की वसूली के लिए मुकदमा लाने का अधिकार नहीं देता है।

    आगे यह कहा गया कि रिसीवर द्वारा अदालत की इजाज़त के बिना दावा दाखिल करना एक अनियमितता तो जरुर है लेकिन इसे ठीक किया जा सकता है। इसके आधार पर दावा खारिज नहीं किया जा सकता है क्यूंकि यह रिसीवर का कर्तव्य है कि वह सम्पति को संरक्षित करे।

    शेराली खान मोहम्मद मानेकिया बनाम महाराष्ट्र राज्य, [(2015) 12 SCC 192] के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह राय व्यक्त करते हुए कहा कि जब एक रिसीवर को मुकदमा या अपील लंबित होने पर नियुक्त किया जाता है, तो मुख्य उद्देश्य संपत्ति को कब्जा या अन्यथा संरक्षित करना और किराए और मुनाफे का लेखा रखना है जो रिसीवर द्वारा प्राप्त किया जा सकता है और इसे अदालत में मुकदमा लंबित होने पर जमा करना होता है।

    आमतौर पर नियुक्त किए गए रिसीवरों का कार्य मामले के अंतिम निर्णय के साथ समाप्त हो जाता है। हालाँकि, अंतिम निर्णय के बाद भी, न्यायालय के पास आवश्यकता पड़ने पर रिसीवर की और सहायता लेने का विवेकाधिकार है।

    इंडस्ट्रियल क्रेडिट & इन्वेस्टमेंट कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया बनाम कर्नाटक बॉल बेयरिंग कॉर्पोरेशन लिमिटेड, [(1999) 7 SCC 488], के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया कि डिक्री पारित करने से पहले रिसीवर द्वारा अचल संपत्ति की बिक्री के मामले में कोई प्रतिबंध होने का सवाल नहीं उठता है और न ही उठ सकता है।

    सीपीसी का आदेश 40 नियम 1 स्पष्ट रूप से एक संपत्ति पर एक रिसीवर की नियुक्ति, चाहे वह डिक्री से पहले या बाद में हो, के लिए शक्तियां प्रदान करता है और अदालत एक आदेश द्वारा रिसीवर संपत्ति के प्राप्ति, प्रबंधन, संरक्षण, संरक्षण और सुधार की सभी शक्तियां प्रदान कर सकती है।

    आदेश 40 नियम 1(डी) विशेष रूप से प्राप्ति के लिए प्रदान करता है और आदेश 40 नियम 1(डी) में आने वाले शब्दों 'या उन शक्तियों में से जो न्यायालय को ठीक लगता है' की व्याख्या इस तरह से की जानी चाहिए ताकि उन्हें दिया जा सके।

    एक रिसीवर की नियुक्ति के माध्यम से संपत्ति को संरक्षित और बनाए रखने के लिए न्यायालय द्वारा शक्तियां प्रदान करने के मामले में विधायी मंशा पर पूर्ण प्रभाव। यहां यह दर्ज करने की आवश्यकता नहीं है कि एक ऐसी शक्ति मौजूद है जो क़ानून के प्रावधानों के संदर्भ में पूरी तरह से मुक्त है।

    रिसीवर के कार्यकाल को परिभाषित करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि एक रिसीवर को फैसले तक एक मुकदमे में नियुक्त किया जाता है, तो मुक़दमे में निर्णय द्वारा नियुक्ति समाप्त हो जाती है। यदि कोई रिसीवर किसी मुकदमे में नियुक्त किया जाता है, उसके कार्यकाल को स्पष्ट रूप से परिभाषित किए बिना, वह तब तक रिसीवर बना रहेगा जब तक कि उसे कार्यमुक्त नहीं किया जाता।

    लेकिन, मुकदमे के पक्षकारों के बीच मुकदमे के अंतिम निपटान के बाद, रिसीवर के कार्य को समाप्त कर दिया जाता है, वह तब भी अदालत के प्रति जवाबदेह होगा जब तक कि उसे अंततः कार्यमुक्त नहीं किया जाता। अदालत के पास अंतिम डिक्री के बाद भी रिसीवर को जारी रखने की पर्याप्त शक्ति है यदि मामले में ऐसी अत्यावश्यकता है।

    एक रिसीवर अदालत का एक अधिकारी या प्रतिनिधि होता है और वह इसके निर्देशों के तहत कार्य करता है। अदालत, संपत्ति को सक्षम और प्रशासित करने के उद्देश्य से, आदेश द्वारा, किसी भी व्यक्ति को संपत्ति के कब्जे या हिरासत से हटा सकती है।

    लेकिन जब कोई व्यक्ति वाद का पक्षकार होता है, तो न्यायालय प्राप्तकर्ता को उसे संपत्ति के कब्जे से हटाने का निर्देश दे सकता है, भले ही वादी के पास उसे हटाने का वर्तमान अधिकार न हो। [हीरालाल पाटनी बनाम लूणकरण सेठिया, AIR 1962 SC 21]

    सुप्रीम कोर्ट ने बालकृष्ण गुप्ता बनाम स्वदेशी पॉलीटेक्स लिमिटेड, [1985 (2) SCC 167], के मामले में यह बताया कि रिसीवर किसी भी सूरत में एक लाभार्थी के बतौर नहीं हो सकता है। कोर्ट ने कहा संपत्ति से निपटने वाले एक रिसीवर की अन्य शक्तियां जो भी हो सकती हैं, जो उसकी हिरासत में रहते हुए कस्टोडिया लेजिस में है, उसे ऐसी संपत्ति के एक समनुदेशित या लाभकारी के रूप में नहीं माना जाना चाहिए।

    संहिता की धारा 51 के तहत, डिक्री-ऋण की वसूली के प्रयोजनों के लिए एक डिक्री के निष्पादन में एक डिक्री-धारक के आवेदन पर एक सिविल कोर्ट द्वारा एक रिसीवर नियुक्त किया जा सकता है।

    क्या संहिता की धारा 151 के तहत आवेदन पर रिसीवर नियुक्त किया जा सकता है? कलकत्ता उच्च न्यायालय ने शिव शंकर रुद्र बनाम ज्योतिर्मय रुद्र, [AIR 2004 Cal 54], के मामले में सकारात्मक उत्तर देते हुए कहा कि यदि इस तरह की नियुक्ति से कोई असंगति या संघर्ष नहीं होता है, तो धारा 51 के अस्तित्व के बावजूद भी, धारा 151 के तहत एक आवेदन पर रिसीवर की नियुक्ति की अनुमति है।

    मद्रास हाई कोर्ट ने 7th चैनल कम्युनिकेशन बनाम रोजा कंबाइनस, [(2007) 4 CTC 609], के मामले में यह निर्धारित किया कि आदेश 40, नियम 1, सीपीसी में ऐसा कुछ भी नहीं है जो न्यायालय को रिसीवर नियुक्त करने की शक्ति को केवल उन मामलों तक सीमित करता है जिसमें एक पक्ष द्वारा वाद के लिए आवेदन किया जाता है।

    उचित मामले में, न्यायालय आदेश 40, नियम 1, सीपीसी के तहत एक रिसीवर नियुक्त कर सकता है, भले ही वादी ने ऐसी राहत के लिए नहीं कहा है या केवल निषेधाज्ञा के लिए आवेदन किया है। कोर्ट पार्टी के आवेदन के बिना भी रिसीवर नियुक्त कर सकता है। लेकिन शक्ति का प्रयोग संयम से और केवल असाधारण मामलों में किया जाना है।

    हाल ही में बहुचर्चित आम्रपाली बिल्डर्स नोएडा से सम्बंधित मामले में सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ अधिवक्ता आर. वेंकटरमणी को आम्रपाली प्रोजेक्ट का रिसीवर कर नियुक्त कर सारी सम्बंधित कार्यवाही अपने हाथ में ली।

    सुप्रीम कोर्ट ने आदेश पारित कर कहा कि हम श्री आर. वेंकटरमणी, विद्वान वरिष्ठ अधिवक्ता को कोर्ट रिसीवर के रूप में नियुक्त करते हैं। पट्टेदार का अधिकार कोर्ट रिसीवर में निहित होगा और वह अपनी ओर से अधिकृत व्यक्ति के माध्यम से, त्रिपक्षीय समझौते को निष्पादित करेगा और अन्य सभी कार्य करेगा जो आवश्यक हो सकता है और यह भी सुनिश्चित करने के लिए कि घर खरीदारों को शीर्षक पारित किया जाता है और उन्हें कब्जा सौंप दिया जाए। [बिक्रम चैटर्जी बनाम भारत संघ, W.P. No. 940/2017]

    निष्कर्ष:

    रिसीवर को आसान शब्दों में कोर्ट के एक हाथ के रूप में देखा जा सकता है। रिसीवर का कार्य धरातल पर वो सब कुछ करना होता है जो न्याय हित में अत्यंत आवश्यक हो. बिक्रम चैटर्जी के मामले में कोर्ट ने पुरे आवासीय प्रोजेक्ट को अपने अधीन लेकर सभी घर खरीदारों को राहत पहुँचाने के उद्देश्य से रिसीवर की नियुक्ति की।

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