अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC ST Act) भाग :7 इस अधिनियम के अंतर्गत अपराधों के बारे में उपधारणा (धारा-8)

Shadab Salim

27 Oct 2021 7:00 AM GMT

  • अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC ST Act) भाग :7 इस अधिनियम के अंतर्गत अपराधों के बारे में उपधारणा (धारा-8)

    अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (Scheduled Caste and Scheduled Tribe (Prevention of Atrocities) Act, 1989) के अंतर्गत धारा 8 इस अधिनियम के अंतर्गत अपराध करार दिए गए कार्यों के संबंध में उपधारणा की व्यवस्था करती है। उपधारणा का अर्थ यह होता है कि न्यायालय किसी कार्य या लोप के संबंध में कोई विचार बना कर चलता है और जब तक उस विचार को अभियुक्त द्वारा साबित नहीं कर दिया जाता तब तक न्यायालय यह मानकर चलता है कि जो शिकायतकर्ता ने कहा है वह सच ही होगा और उसके लगाए गए आरोप सच ही हैं तथा पुलिस का बनाया गया प्रकरण सत्य है।

    यहां इस आलेख के अंतर्गत इस अधिनियम में दी गई वह धारणाओं पर व्याख्या और साथ ही उनसे संबंधित न्याय निर्णय भी प्रस्तुत किए जा रहे हैं।

    धारा 8:-

    जैसा कि इस आलेख के पूर्व में यह बताया गया है कि अवधारणा का अर्थ न्यायालय द्वारा किसी आरोप को सत्य मानकर चलने की विचारधारा है। यह कुछ इस प्रकार से है कि सबूत का भार अभियुक्त पर डाल दिया जाता है। पीड़ित पक्षकार पर सबूत का भार नहीं होता है। अभियोजन पक्ष को उन अवधारणाओं को साबित करने का भार नहीं झेलना पड़ता है जिनके संबंध में न्यायालय कोई विचार बना लेता है। अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम की धारा 8 ऐसे ही उदाहरणों को प्रस्तुत करती है। कुछ ऐसे कार्य हैं जिन्हें इस अधिनियम के अंतर्गत उपधारणा के रूप में माना जाता है अर्थात यदि अभियुक्त द्वारा उन कार्यों को किए जाने का आरोप पीड़ित पक्ष या अभियोजन द्वारा लगाया जाता है तब पीड़ित पक्ष या अभियोजन की बात को सत्य मानकर न्यायालय चलता है तथा अभियोजन और पीड़ित पक्ष की बात को यदि असत्य सिद्ध करना है तो इसके लिए अभियुक्त को साक्ष्य प्रस्तुत करना होंगे।

    संसद द्वारा इस अधिनियम की धारा 8 को निम्न रूप में प्रस्तुत किया गया है:-

    अपराधों के बारे में उपधारणा- इस अध्याय के अधीन किसी अपराध के लिए अभियोजन में, यदि यह साबित हो जाता है कि,

    (क) अभियुक्त ने इस अध्याय के अधीन अपराध करने के [ अभियुक्त व्यक्ति द्वारा या युक्तियुक्त रूप से संदेहास्पद व्यक्ति द्वारा किये गये अपराधों के सम्बन्ध में कोई वित्तीय सहायता की है] तो विशेष न्यायालय, जब तक कि तत्प्रतिकूल साबित न किया जाए, यह उपधारणा करेगा कि ऐसे व्यक्ति ने उस अपराध का दुष्प्रेरण किया।

    (ख) व्यक्तियों के किसी समूह ने इस अध्याय के अधीन अपराध किया है, और यदि यह सावित हो जाता है कि किया गया अपराध भूमि या किसी अन्य विषय के बारे में किसी विद्यमान विवाद का फल है तो यह उपधारणा की जाएगी कि यह अपराध सामान्य आशय या सामान्य उद्देश्य को अग्रसर करने के लिए किया गया था।

    2[(ग) अभियुक्त, पीड़ित या उसके कुटुम्ब का व्यक्तिगत ज्ञान रखता था, न्यायालय यह उपधारणा करेगी कि जब तक अन्यथा साबित न हो, अभियुक्त को पीड़ित की जाति या जनजातीय की पहचान का ज्ञान था।]

    इस धारा-8 के अनुसार तीन प्रकार की अवधारणाओं को इस अधिनियम के अंतर्गत मान्यता दी गई है जो निम्न है:-

    1)- पहली उपधारणा अभियुक्त को सहायता के संबंध में है। किसी प्रकार की वित्तीय सहायता देकर अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के विरुद्ध अत्याचार से संबंधित कोई अपराध करने हेतु दुष्प्रेरित करने पर उपधारणा की व्यवस्था की गई है। यदि कोई व्यक्ति किसी प्रकार के धन-संपत्ति के लोभ में कोई ऐसा अपराध कारित करता है जो इस अधिनियम के अंतर्गत अपराध बनाया गया है तो इस धारा के अनुसार उपधारणा की जाएगी की इस प्रकार की वित्तीय सहायता की ही गई होगी। इस विषय को कुछ इस प्रकार समझा जा सकता है कि समाज में अनेक ऐसे दृष्टांत देखने को मिलते हैं जहां रुपए पैसे देकर अनुसूचित जाति के सदस्यों के प्रति कोई अपराध कारित करने हेतु किसी अन्य व्यक्ति को दुष्प्रेरित किया जाता है इस स्थिति में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों द्वारा किसी व्यक्ति पर यह आरोप लगाया जाता है कि उसने धन संपत्ति देकर किसी व्यक्ति को ऐसे सदस्यों के प्रति कोई अपराध करने हेतु दुष्प्रेरित किया है तब न्यायालय अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के ऐसे आरोपों को सत्य मानकर चलेगी तथा इस आरोप को साबित करने का भार इन समुदायों के सदस्यों पर नहीं होगा अपितु उस व्यक्ति पर होगा जिस व्यक्ति पर यह आरोप लगाया गया है।

    अधिनियम की धारा 8 (क) के प्रावधान की आवश्यकता:-

    धनी व्यक्तियों को अप्रत्यक्ष रूप में भाड़े पर लिये गये व्यक्तियों को अपना कार्य कराने के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करके धारा 3 के अधीन अपराध कारित करने को प्रोत्साहित करने से निवारित करना आवश्यक है। दूसरी तरफ ऐसे व्यक्तियों के हित को रक्षित करना है, क्योंकि उपधारणा खण्डनीय होती है। धारा 15 के अधीन विशेष लोक अभियोजक नियुक्त किये जाते हैं। विशेष अभियोजकों तथा विशेष न्यायालयों से अनुभवी व्यक्तियों के द्वारा सँभाला जाना आवश्यक है। अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 8 (क) का प्रावधान मनमाना नहीं है तथा अधिनियम के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए आवश्यक है।

    आर० के० बालोठिया बनाम यूनियन आफ इण्डिया, 1994 क्रि० लॉ ज० 2658 (एम० पी०) के प्रकरण में कहा गया है कि अधिनियम की धारा 8 (क) को इस आधार पर चुनौती दी गयी है कि इस अधिनियम के अधीन अपराध कारित करने वाले व्यक्ति अथवा उसे कारित करने के लिए युक्तियुक्त रूप से संदेहास्पद व्यक्ति को मात्र वित्तीय सहायता पर उपधारणा की जायेगी, जब तक इसके प्रतिकूल यह साबित नहीं कर दिया जाता है, यह कि ऐसे व्यक्ति ने अपराध का दुष्प्रेरण किया है, अस्पष्ट, मनमाना है और ऐसा कोई दाण्डिक अपराध नहीं हो सकता है, जो केवल वित्तीय सहायता प्रदान करने पर कारित किया गया हो।

    उस संपूर्ण प्रयोजन, जिसके लिए अधिनियम को अधिनियमित किया गया था, पर विचार करने पर धारा 8 (क) में प्रावधान अधिनियम की धारा 3 के प्रावधानों के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए आवश्यक है। धनी व्यक्तियों को अप्रत्यक्ष रूप में भाड़े पर लिये गये व्यक्तियों को वित्तीय सहायता प्रदान करके धारा 3 के अधीन अपराध कारित करने को प्रोत्साहित करने से निवारित करना आवश्यक है, ऐसे व्यक्तियों के हित की रक्षा की जानी है, क्योंकि उपधारणा खण्डनीय होती है।

    विधि विरुद्ध जमाव तथा स्वेच्छया कारित उपहति:-

    रफीकभाई एस० डीडिया बनाम स्टेट आफ गुजरात, 2008 क्रि० लॉ ज० 1197 (गुज०) के मामले में यह अभिकथन किया गया था कि अपीलार्थीगण परिवादी को केवल इस कारण से अपमानित किये कि वह अनुसूचित जाति का सदस्य है। ग्रामीणों के लिए लगाये गये नल पर अपीलार्थीगण तथा परिवादी के बीच कुछ गर्मागर्म कहा सुनी हुई, परन्तु यह दर्शाने के लिए कोई वैध, सशक्त साक्ष्य नहीं था कि परिवादी को या तो अपमानित करने, धमकी देने या पीटने के लिए विधि विरुद्ध जमाव था। मात्र उपस्थिति किसी व्यक्ति को विधि विरुद्ध जमाव का सदस्य नहीं बनायेगी।

    यह दर्शाने के लिए कोई विश्वसनीय साक्ष्य नहीं था कि अधिनियम के प्रावधानों के अधीन दण्डनीय कोई अपराध बनता था और पुनः उपहति कारित करने के लिए किसी अपीलार्थी के विरुद्ध कोई सामग्री नहीं थी। प्रथम सूचना रिपोर्ट में मात्र दस व्यक्तियों को नामित करना तात्विक नहीं होगा। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अपीलार्थीगण की दोषसिद्धि अपास्त किये जाने के लिए दायी है।

    दुष्प्रेरण का करना:- एक मामले में धारित किया गया है कि दुष्प्रेरण के अपराध के लिए भारतीय विधि के अधीन यह आवश्यक नहीं है कि अपराध किया जाना चाहिए था। एक व्यक्ति दुष्प्रेरक के रूप में दोषी हो सकता है चाहे अपराध किया गया हो या नहीं।

    अभियुक्त दोषमुक्त:- फगुना कांता नाथ बनाम असम राज्य, ए० आई० आर० 1959 एस० 673 ई० जी० बारसे बनाम बाम्बे राज्य, ए० आई० आर० 1961 एस० सी० 1762, में यह धारित किया गया था कि जहाँ अभियुक्त अभियोग से दोषमुक्त कर दिया जाता है वहाँ यह नहीं कहा जा सकता है कि अभियुक्त ने उक्त धारा के अन्तर्गत कोई अपराध कारित किया है और परिणामस्वरूप अपराध करने के लिए कार्य या लोप द्वारा साशय सहायता करने का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता है।

    7. अपृश्यता बारे में उपधारणा:-

    एक मामले में, एक स्कूल के प्रधानाध्यापक ने हरिजन समुदाय के छात्रों के लिए एक पृथक वर्ग का गठन किया और इस प्रकार वे दूसरे समुदाय के छात्रों से अलग कर दिये गये थे ऐसा करने के लिए कोई स्पष्टीकरण प्रस्तुत नहीं किया गया था। इन तथ्यों के आलोक में न्यायालय ने यह धारित किया कि यह धारित करने में उपधारणा उत्पन्न होती है कि आरोपित कार्य अपृश्यता के आधार पर किया गया था

    8. सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम की धारा 12 के अन्तर्गत उपधारणा:-

    उसकी प्रकृति एवं उन्मोचन करने का भार सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम की धारा 12 के अधीन उपबन्धित उपधारणा खण्डनीय है। यदि अभियोजन यह साबित कर देता है कि अपराध गठित करने वाला कृत्य अनुसूचित जाति के सदस्य के सम्बन्ध में किया गया है और कृत्य का सम्बन्ध, सम्बन्धित जाति से है तब यह उपधारित करने का न्यायालय का दायित्व है कि उक्त कृत्य अपृश्यता के आधार पर किया गया था बशर्ते कि प्रतिकूत साबित नहीं किया गया है।

    2)- इस धारा के अनुसार दूसरी अवधारणा यह है कि यदि इस अधिनियम के अंतर्गत अपराध करार दिए गए किसी कार्य को व्यक्तियों के समूह द्वारा उस संबंध में किया जाता है जहां भूमि से संबंधित कोई विवाद है तथा एक बड़ी भीड़ द्वारा अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर कोई ऐसा अत्याचार रुप कार्य किया जाता है तब यहां पर यह माना जाएगा कि ऐसा कार्य सामान्य आशय में किया गया है। सामान्य आशय को साबित करने का भारी अभियोजन पर नहीं होगा अपितु अभियुक्त पर होगा कि वे साबित करें किस प्रकार का कार्य सामान्य आशय में नहीं किया गया था। समाज में यह देखा गया कि अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर अत्याचार के संबंध में अनेक लोग बड़ी संख्या में एकत्रित होकर कोई अपराध कारित करते हैं या उनकी भूमि या उनकी संपत्ति से जुड़े किसी भी भाग में भारी संख्या में एकत्रित होकर कोई अपराध कारित करते हैं। इस धारा का अर्थ सामान्य आशय को साबित किए जाने की भार अभियोजन पर से समाप्त करना है अर्थात अभियोजन पर यह भार नहीं रहे कि उसे आरोपियों के संबंध में सामान्य आशय को भी सिद्ध करना पड़े।

    3)- इस धारा के अनुसार तीसरी अवधारणा पीड़ित की जाति के ज्ञान के संबंध में है। यदि अभियुक्त यह अभिकथन करता है कि उसे पीड़ित की जाति का ज्ञान नहीं था अभियुक्त को अपने इस कथन को सिद्ध करना होगा तथा न्यायालय यह अवधारणा लेकर चलेगा कि अभियुक्त को पीड़ित की जाति का ज्ञान था तथा उसने यह अपराध पीड़ित की जाति के ज्ञान के होने के बाद भी किया है। अभियुक्त यह बचाव नहीं कर सकता कि उसे पीड़ित की जाति का ज्ञान नहीं है।

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