लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 भाग 9: गुरुतर लैंगिक हमले के प्रकरण में दोषसिद्धि
Shadab Salim
25 Jun 2022 10:00 AM IST
लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (The Protection Of Children From Sexual Offences Act, 2012) धारा 5 गुरुतर लैंगिक हमले की परिभाषा से संबंधित है। इस आलेख में गुरुतर लैंगिक हमले से संबंधित प्रकरणों में हुई दोषसिद्धि पर चर्चा की जा रही है।
अभियोक्त्री के अभिसाक्ष्य पर विश्वास व्यक्त करते हुए धारा 376 के अधीन दोषसिद्धि
सानो मुरमू बनाम उड़ीसा राज्य, 2003 क्रि लॉ ज 2365 जहाँ तक उन घटनाओं जो घटना की तारीख पर घटित हुई थी के अनुक्रम का सम्बन्ध है अभियोजन के अभिसाक्ष्य में कोई शैथिल्यता नहीं है। चिकित्सीय साक्ष्य अभियोक्त्री के साय के द्वारा संपुष्ट हुआ था। चक्षुदर्शी साक्षी का यह साक्ष्य कि तात्विक समय पर वह अभियुक्त को अभियोक्त्री के द्वारा विरोध तथा उसके द्वारा हस्तक्षेप के बावजूद घटनास्थल की तरफ अभियोक्त्री को घसीटते हुए देखा था। घटना के अगले दिन जब अभियोक्त्री को होश आया था, तब उसने घटना के बारे में अपने निकट के नातेदारों को बताया था।
अभियुक्त और अभियोक्त्री के भाई के बीच दुश्मनी के बचाव की कहानी साबित नहीं हुई थी। सभी महत्वपूर्ण 'संभाव्य कारक अभियोक्त्री के अभिसाक्ष्य के पक्ष में इंगित करते हैं। इस प्रकार अभियोक्त्री के अभिसाक्ष्य पर लघु कमियों के कारण अविश्वास और नामंजूर नहीं किया जा सकता है। इसलिए अभियोक्त्री के अभिसाक्ष्य पर विश्वास व्यक्त करते हुए धारा 376 के अधीन दोषसिद्धि उचित अभिनिर्धारित की गयी।
अहिराज साहू बनाम राज्य, 2003 क्रि लॉ ज 3114 (उड़ीसा) के मामले में स्वीकृत रूप में पीड़िता लड़की ने यह अभिकथन किया था कि उसके साथ दो हृष्ट-पुष्ट व्यक्तियों के द्वारा बलात्संग कारित किया गया था। केवल वह व्यक्ति (अभियोजन साक्षी 11) जो घटना को देखने के लिए कहा गया था विद्रोही हो गया था। महिला डॉक्टर का साक्ष्य, यद्यपि कहानी को अविश्वसनीय नहीं बनाता है, फिर भी वह कतिपय संदेह छोड़ता है और निश्चायक नहीं है। स्वीकृत रूप में अभियुक्तों के समाज तथा पीड़िता के समाज के बीच पूर्ववर्ती दुश्मनी थी।
रासायनिक परीक्षकों के द्वारा प्रस्तुत की गयीं रिपोर्ट भी विश्वास प्रेरित नहीं करती है। दूसरी तरफ अभियोक्त्री के द्वारा किया गया कथन बहुत विनिर्दिष्ट है तथा उसे बचाव पक्ष के द्वारा विस्तारपूर्वक प्रतिपरीक्षा के पश्चात् भी अस्थिर नहीं किया जा सका था। यह भी विश्वास प्रेरित करता था। उक्त अभिसाक्ष्य कतिपय सीमा तक घटना के पश्चात्वर्ती साक्षियों के द्वारा भी संपुष्ट हुआ है।
मामले के तथ्यों और परिस्थितियों तथा साक्ष्य दोनों मौखिक तथा दस्तावेजी के संचयी निर्धारण पर यह ऐसे मामलों में से एक है, जहाँ पर न्याय के उद्देश्य बेहतर ढंग से पूरे होगे यदि विचारण न्यायालय के द्वारा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 (2) (घ) के अधीन पारित किए गये 10 वर्ष के कठोर कारावास के दण्डादेश को कतिपय सीमा तक कम किया जाता है।
आन्ध्र प्रदेश राज्य बनाम पी नरसिम्हा एवं अन्य (1994) के मामले में अभियोक्त्री ने दोनों प्रत्यर्थियों के द्वारा उसकी सम्मति के विरुद्ध बलात्संग कारित करने का अभिकथन किया था। यह तर्क किया गया था कि अभियोक्त्री उस समय लैंगिक हमले के बारे में मौन रही थी, जब वह प्रत्यर्थी संख्या के साथ रहना प्रारम्भ करने के ठीक पश्चात् अभियोजन साक्षी 2 को मिली थी और वह यह दर्शाता है कि वह सम्मत पक्षकार थी।
तर्क को स्वीकार नहीं किया गया था, क्योंकि उसके बिल्कुल हल्के चरित्र की लड़की न होने के कारण प्रत्यर्थी संख्या 1 को लैंगिक समागम स्वेच्छापूर्वक अनुज्ञात करने के लिए सहमत नहीं हो सकती थी, जब उसने स्वयं अन्ततः 10-14 दिन के भीतर प्रत्यर्थी संख्या 2 के साथ विवाह कर लिया था। इन परिस्थितियों में प्रत्यर्थी संख्या 1 को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अधीन अपराध का दोषी अभिनिर्धारित किया गया।
उड़ीसा राज्य बनाम अम्बुरु नायक एवं एक अन्य एआईआर 1992 एससी के मामले में अभियोजन के अनुसार पीड़िता अन्य लड़कियों के साथ दशहरे का त्यौहार देखने गयी हुई थी और जब वे वापस लौट रही थी, अभियोक्त्री उनसे आगे हो गयी थी और जब वे जंगल के अन्दर पहुंचे तब अपीलार्थीगण और दो अन्य व्यक्ति अभियोक्त्री का मुंह दबा दिए थे और जंगल में उसका व्यपहरण किए थे, उसकी आंखो पर कपड़े की पट्टी बांध दिए थे और उसे मार डालने की धमकी दिए थे, यदि वह शोर मचाएगी और उसे जमीन पर लिटा दिए थे और उसके साथ एक के पश्चात् एक बलात्सग कारित किए थे।
वह अभियुक्त को पहचान परेड में पहचानी थी। उच्च न्यायालय ने उन्हें इस आधार पर दोषमुक्त कर दिया था कि उसके साक्ष्य की कोई सपुष्टि नहीं हुई थी। जब जंगल में उसका व्यपहरण किया गया था. तब उसे उन्हें देखने का अवसर प्राप्त था। चिकित्सीय साक्ष्य यह संपुष्ट करता है कि उसके गुप्तांग पर क्षतियां थी। इसलिए उच्च न्यायालय का आदेश अपास्त किया गया और विचारण न्यायालय के द्वारा अभिलिखित की गयी दोषसिद्धि तथा दण्डादेश को प्रत्यावर्तित किया गया ।
एक मामले में अभियोक्त्री का अभिसाक्ष्य यह था कि अभियुक्त उसे अश्लील चित्र दिखाते हुए उसकी बहन के साथ जंगल में ले गया था उसके गुप्तांग में अपना जननांग डाला था। चिकित्सीय परीक्षक ने पीड़िता के गुप्ताग में लिंग के प्रवेशन की घटना के सम्बन्ध में अभिसाक्ष्य में वर्णित किया था। इस मामले में अभियोक्त्री के योनिच्छद के मात्र फटा हुआ न होने का तथ्य अभियोक्त्री के अभिसाक्ष्य को मिथ्या नहीं बनाएगा।
वर्तमान मामले में अभियोक्त्री का अभिसाक्ष्य यह था कि अभियुक्त उसे और उसकी बहन को जंगल में ले गया था। उसने यह अभिसाक्ष्य दिया था कि अभियुक्त ने उन दोनों को घटना को किसी व्यक्ति से बताने के विरुद्ध धमकी दिया था, परन्तु वह घटना को अपनी माँ से बतायी थी प्रतिपरीक्षा में उसका साक्ष्य स्थिर बना रहा था। उसकी बहन, चक्षुदर्शी साक्षी ने संपुष्टिकारी कथन किया था दोषसिद्धि उचित थी।
तुरपति माजसैया बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य 2005 कि. लॉ ज 568 (ए.पी.) के मामले में चिकित्सीय साक्ष्य स्पष्ट रूप में इस अभियोजन प्रकथन का समर्थन करता है कि बलात्संग का अपराध अभियोजन साक्षी 5 के यथाविरुद्ध आरोपित किया गया था। यह निःसंदेह सत्य है. जहाँ तक अन्य वस्तुओं की जब्ती का सम्बन्ध है, पंच साक्षियों को विद्रोही घोषित किया गया था परन्तु जहाँ तक भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 (छ) से सम्बन्धित अपराध का सम्बन्ध है, साक्ष्य सष्ट है अभियोजन साक्षी 5 और 6 का साक्ष्य चिकित्सीय साक्ष्य के द्वारा भली-भांति संपुष्ट है। इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता है कि अभियोजन ने अभियुक्त के दोष को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 (छ) के अधीन साबित किया था।
एक मामले में अभियोक्त्री के एकमात्र साक्ष्य के आधार पर सामूहिक बलात्संग के अपराध के लिए दोषसिद्धि को असंघार्य अभिनिर्धारित किया गया, क्योंकि अभियोक्त्री के साक्ष्य के ऐसे कतिपय लक्षण थे, जो उसकी सच्चाई पर गम्भीर संदेह उदभूत करते थे।
पीड़िता के माता-पिता बलात्संग का परिवाद पुलिस के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए अनिच्छुक होंगे, क्योंकि वे यह सोच सकते हैं कि पीड़िता का भविष्य नष्ट हो जाएगा। इन परिस्थितियों के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में विलम्ब अथवा प्रथम सूचना के न्यायालय तक पहुंचने में विलम्ब इस मामले में अभियोजन मामले को नामंजूर करने का आधार हो सकता था, जब तक यह दर्शाने के लिए सामग्री न हो कि विलम्ब का प्रयोग अभियोजन के द्वारा मिथ्या रूप में अनेक व्यक्तियों को फसाने के लिए किया गया था।
अशोक बारक्या डालवी बनाम महाराष्ट्र राज्य, 2006 क्रि लॉ ज 1531 के प्रकरण में अभियोक्त्री 14 वर्ष की आयु की अवयस्क लड़की थी। उसकी चचेरी बहन उसे मिथ्या बहाने से उसके माता-पिता के घर से ले गयी थी। चचेरी बहन और दो अभियुक्त उसे एक अन्य शहर में लॉज में ले गये थे। दोनो अभियुक्तगण उसकी चचेरी बहन की उपस्थिति में उसे पेप्सी के साथ मिली हुई मदिरा पीने के लिए विवश करने के पश्चात् दो दिन तक उसके साथ बलात्संग कारित किए थे।
अभियोक्त्री का साक्ष्य विश्वसनीय था और यह दर्शाता था कि उसके साथ अमानवीय ढंग से बलपूर्वक लैंगिक समागम कारित किया गया था, जिसे चिकित्सीय साक्ष्य के द्वारा संपुष्ट किया गया था। परिवाद दर्ज कराने में विलम्ब को सम्यक रूप में स्पष्ट किया गया था। लॉज के प्रबन्धक का साक्ष्य यह दर्शाता था कि अभियुक्त सुसंगत तारीखों पर अभियोक्त्री के साथ रुका था। उस आश्रम, जहाँ पर अभियुक्त अभियोक्त्री को ले गया था के सन्त का साक्ष्य यह दर्शाते हुए था कि वह उस समय सामान्य नहीं थी और कष्ट में थी । अभियोक्त्री की चचेरी बहन का साक्ष्य यह दर्शाता था कि उसके साथ अभियुक्त के द्वारा पूर्ववर्ती अवसर पर उसी तरह का व्यवहार किया गया था। इसलिए अभियुक्त की दोषसिद्धि उचित अभिनिर्धारित की गयी थी।