लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 भाग 6: प्रवेशन लैंगिक हमले में दोषसिद्धि पर पीड़िता की आयु के आधार पर दंड
Shadab Salim
14 Jun 2022 6:01 PM IST
लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (The Protection Of Children From Sexual Offences Act, 2012) धारा 4 प्रवेशन लैंगिक हमले के अपराध में दंड का प्रावधान करती है। इस धारा में दंड को पीड़िता की आयु के आधार पर निर्धारित किया गया है। अधिनियम में 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति को बालक माना गया है।
16 वर्ष से कम आयु के बालकों के साथ अपराध होने पर दंड अधिक दिया जाता है। न्यायालय ने 1 वर्ष की आयु से लेकर 16 वर्ष की आयु तक अलग-अलग मामलों में अलग-अलग दंड दिया है। इस आलेख के अंतर्गत ऐसे ही सभी आयु वर्ग के मामले में दिए गए निर्णय पर चर्चा की जा रही है
1 वर्ष-
राज नाथ बनाम उप्र राज्य 2003 के प्रकरण में चिकित्सा अधिकारी का कथन संदेह से परे यह साबित करता है कि लड़की, जो एक वर्ष से कम आयु की थी, के साथ अपीलार्थी के द्वारा बलात्संग कारित किया गया था। अभियोजन मामले को नामंजूर करने के लिए पूर्ण रूप में कोई कारण नहीं है और विद्वान अवर न्यायालय अपीलार्थी को दोषसिद्ध करते हुए अभियोजन मामले पर विश्वास व्यक्त करने में पूर्ण रूप में न्यायसंगत था।
1-1/2 वर्ष-
टी के गोपाल बनाम कर्नाटक राज्य,1999 के मामले में, पीड़िता डेढ़ वर्ष की आयु की थी। याची को दोषसिद्ध किया गया था तथा 10 वर्ष के कठोर कारावास से दण्डादेशित किया गया था। धारा 376 यह प्रावधान करती है कि बलात्संग के अपराध पर न्यायालय अभियुक्त को ऐसी अवधि के कठोर कारावास से जो 10 वर्ष से कम की नहीं होगी, किन्तु जो आजीवन कारावास तक की हो सकेगी और जुर्माने से भी दण्डादेशित करेगा तथ्य और पीड़िता की आयु को ध्यान में रखते हुए याची को इसके बारे में कारण दर्शाने के लिए नोटिस जारी की गयी कि उसके 10 वर्ष के कठोर कारावास के दण्डादेश को आजीवन कारावास में क्यों न बढ़ाया जाए।
4/5 वर्ष-
सैयद पाशा बनाम कर्नाटक राज्य, 2004 के मामले में लगभग 4 से 5 वर्ष की आयु की लड़की पर बलात्संग कारित करने के लिए अभिकधित मामला है। ऐसे मामलों पर विचार करते समय न्यायालय पर अत्यधिक संवेदनशील होने का कर्तव्य अधिरोपित किया गया है और सम्पूर्ण मामले की पृष्ठभूमि को, न कि पृथक् रूप में ध्यान में रखते हुए साक्ष्य का उसकी सम्पूर्णता में मूल्यांकन करना आवश्यक होता है।
5 वर्ष-
नव्वला किरन बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य, 2004 क्रि लॉ जर्नल 1263 के मामले में, पीड़िता 5 वर्ष की अवयस्क लड़की थी। अभियुक्त किराएदार का पुत्र उसके घर की छत पर उससे यह कहते हुए ले जाने के लिए अभिकथित किया गया था कि वह उसे चॉकलेट देगा तथा बलात्संग कारित किया था पीडिता ने अपराध कारित करने को अपने माता-पिता से बताया था। उसके माता-पिता का साक्ष्य सच्चा होना पाया गया था। वे लड़की के भविष्य और परिवार की ख्याति के सम्बन्ध में सभी जोखिम लेते हुए अभियुक्त के विरुद्ध मिथ्या साक्ष्य नहीं देंगे। उनका साक्ष्य चिकित्सीय साक्ष्य के द्वारा सपुष्ट किया गया था। प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में चार दिन के विलम्ब को न्यायालय के समाधान तक स्पष्ट किया गया था। इसलिए धारा 376 (2) (घ) के अधीन अभियुक्त की दोषसिद्धि उचित अभिनिर्धारित की गयी थी।
5/6 वर्ष-
हसमत अली बनाम उप्र राज्य, 2005 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1956 के मामले में अपीलार्थी ने परिवादी के निवास पर जाने के लिए विचार बनाया था और लड़की को गन्ना प्रदान करने के बहाने ले गया था तथा ऐसे बहाने पर वह उसे गन्ने की फसल के खेत के अन्दर ले गया था और उसके साथ बलात्सग कारित किया था। इस प्रकार यह ऐसा मामला है, जिसे सामान्य मस्तिष्क में कार्य नहीं कहा जा सकता है। यह तर्क किया गया है कि लड़का, जो 18 अथवा 19 वर्ष की आयु का हो, में कारित किए जाने वाले ऐसे अपराध के परिणाम के बारे में परिपक्वकता का अभाव हो, परन्तु यदि ऐसी आयु का लड़का लगभग 5 अथवा 6 वर्ष की आयु की लड़की के साथ ऐसी रीति में बलात्संग कारित करने की योजना बनाता है, तब यह नहीं कहा जा सकता है कि वह मात्र अपनी भावनाओं के द्वारा प्रेरित हुआ था। पहले योजना उसके मस्तिष्क में आयी थी और वह परिवादी के निवास पर गया था, लड़की को गन्ने की फसल के खेत के अन्दर ले गया था और तब उसके साथ बलात्संग कारित किया था इन परिस्थितियों में अपीलार्थी दण्डादेश के मामले में किसी उदार विचारण के योग्य नहीं है।
घेवर राम बनाम राजस्थान राज्य, 2001 क्रि लॉ ज 4460 (राजस्थान) के मामले में अभियुक्त लगभग 6 वर्षीय लड़की के साथ बलात्संग कारित करने के लिए अभिकथित किया गया था। अभियोक्त्री का कथन प्रवेशन के चिकित्सीय साक्ष्य के द्वारा और उसके माता-पिता तथा एक अन्य अभियोजन साक्षी, जिसे घटना तत्काल बतायी गयी थी, के कथनों के द्वारा उसकी संपुष्टि की दृष्टि में उसके आन्तरिक अंगो पर क्षतियों के अभाव में भी विश्वसनीय था। उसका अभिसाक्ष्य प्रतिपरीक्षा में भी अखण्डित रहा था। प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में विलम्ब को भी उचित रूप में स्पष्ट किया गया था। इसलिए सूचीबद्ध साक्षी का अस्पष्टीकरण भी घातक नहीं था, क्योंकि यह अभियोजन मामले को प्रभावित नहीं करता था. इसलिए अभियुक्त की दोषसिद्धि उचित थी।
7 वर्ष-
नीलांचल पाणिग्रही बनाम उड़ीसा राज्य, 2003 क्रि. लॉ. ज. 1352 ( उडीसा ) के मामले में पीड़िता 7 वर्ष की आयु की लड़की को अभियुक्त के द्वारा नजदीक के जीर्ण-शीर्ण घर में अपने साथ जाने के लिए लुभाया गया था। अभियुक्त उक्त घर में उसके साथ बलपूर्वक लैंगिक समागम कारित करने के लिए अभिकथित किया गया था।
डॉक्टर, जिसने पीड़िता की जांच किया था. उसके गुप्तांग के साथ ही साथ शरीर के अन्य भागो पर क्षतिया पाई थी। पीड़िता लड़की का यह साक्ष्य कि पुरुष जननाग के बलपूर्वक प्रवेशन का प्रयत्न था, को चिकित्सीय जांच की रिपोर्ट के द्वारा सपुष्ट किया गया था। चूंकि दुर्घटना, जो घटना के पश्चात् घटित हुई थी. से सम्बन्धित अभिकथित कमिया तात्विक नहीं है, इसलिए अभियुक्त की दोषसिद्धि को उचित अभिनिर्धारित किया गया था।
7/8 वर्ष-
पाथी राय बनाम झारखण्ड राज्य, 2005 क्रि लॉ ज 2824 इस वाद में 7 और 8 वर्ष के बीच की लड़की के साथ बलात्संग कारित किया गया है। महिला के लिए बलात्सग अमिट शर्मिंदगी होती है और इसे मानव गरिमा के विरुद्ध सर्वाधिक घोर अपराध के रूप में समझा जाना चाहिए। जब किसी महिला के साथ बलात्सग कारित किया जाता है, तब उस पर जो अधिरोपित होता है, वह न केवल शारीरिक क्षति, वरन कुछ अमिट शर्मिंदगी की गहन भावना होती है। इसलिए इस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में यह नहीं कहा जा सकता है कि 10 वर्ष का दण्डादेश अधिक कठोर है।
8 वर्ष-
एस जयसिंह बनाम राज्य, 2004 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1598 (मदास ) के प्रकरण में अभियुक्त को संक्षिप्त अवधि के भीतर गिरफ्तार किया गया था। उसका कथन अभिलिखित किया गया था। इसके अलावा उसकी चिकित्सीय जांच की गयी थी और सभी कपड़ो का रासायनिक विश्लेषण कराया गया था। रिपोर्ट स्पष्ट रूप में यह प्रदर्शित करती है कि लेगी, जो अपीलार्थी/अभियुक्त के द्वारा पहनी गयी थी. में वीर्य के साथ ही साथ रक्त भी अन्तर्विष्ट था।
अभियोजन के द्वारा लाए गये साक्ष्य के साथ रासायनिक विश्लेषण का यह भाग अभियुक्त के द्वारा कारित किए गये लैंगिक हमले के तथ्य का संकेतक था। इस प्रकार उपलब्ध साक्ष्य के द्वारा अभियोजन ने युक्तियुक्त संदेह से परे यह साबित किया है कि अभियुक्त ने साडिता अर्थात 8 वर्षीय लडकी पर लैंगिक हमला कारित किया है।
एक अन्य मामले में अभियुक्त ने एक 8 वर्षीय अवयस्क लड़की के साथ बलात्सग कारित किया था। चिकित्सीय मध्य पीड़िता के शरीर पर क्षतियों को दर्शाती थी अर्थात भग पर सूजन थी तथा वृहत और लघु भगोष्ठ पर खरोंचे थी तथा योनिच्छद फट गया था। यद्यपि अभियुक्त, जो 27 वर्षीय वयस्क के पुरुष जननाग पर कोई क्षति नहीं पायी गयी थी. फिर भी डॉक्टर, जो साक्षी कक्ष में आए थे स्पष्ट रूप में यह कथन किए थे कि बलात्संग की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है। उपरोक्त परिस्थितियों में अभियुक्त की दोषसिद्धि उचित अभिनिर्धारित की गयी।
10 वर्ष-
बहादुर सिंह बनाम उत्तरांचल राज्य 2005 क्रि लॉ ज 2865 के मामले में अभियुक्त को 10 वर्षीय अवयस्क लड़की के साथ बलात्संग कारित करने के लिए आरोपित किया गया था। एक चक्षुदर्शी साक्षी ने पीड़िता को अभियुक्त के साथ जाते हुए देखा था। पीड़िता का साक्ष्य तथा चिकित्सीय साक्ष्य अपराध कारित करने को साबित करता था। प्रथम सूचना रिपोर्ट तत्काल दर्ज करायी गयी थी और इस प्रकार अभियुक्त के मिथ्या फंसाव की कोई संभावना नहीं थी। अभिलेख पर विद्यमान परिस्थितियां यह प्रकट करती थी कि पीड़िता अथवा उसके पिता को अभियुक्त को मिथ्या रूप में फंसाने के लिए कोई सशक्त हेतुक प्राप्त नहीं था। इस प्रकार अभियुक्त धारा 376 के अधीन दोषसिद्ध किए जाने के लिए दायी था और उसे 7 वर्ष के कठोर कारावास से दण्डादेशित किया गया।
10/11 वर्ष-
जोसांगलियाना बनाम मिजोरम राज्य 2005 क्रि. लॉ. ज. 1057 (गौहाटी) के मामले में यह स्वीकार किया गया है कि पीड़िता लड़की घटना के समय 10/11 वर्ष की आयु की थी। यद्यपि उसकी लगभग 10/11 वर्ष की आयु के सम्बन्ध में विवाद है, फिर भी यह स्वीकृत स्थिति है कि पीड़िता लड़की 10-12 वर्ष के आयु के बीच की थी। जब न्यायालय में उसकी परीक्षा की गयी थी, तब यह सुझाव दिया गया था कि उसने मिथ्या रूप में अभिसाक्ष्य दिया था। उसका उत्तर नकारात्मक में था। पीड़िता लड़की के साक्ष्य का वाचन अभियोजन मामले का समर्थन करता था और निश्चायक रूप में यह साबित करता था कि अभियुक्त-अपीलार्थी ने अपराध कारित किया है।
10/12 वर्ष-
दिलावर साहब अलीसाहब जकाती बनाम कर्नाटक राज्य, 2005 क्रि लॉ. ज. 2687 के मामले में साक्ष्य से यह स्पष्ट है कि पीड़िता के अनुसार उसकी आयु लगभग 10 अथवा 12 वर्ष है और वह गूंगी है। शारीरिक वृद्धि सामान्य नहीं है. जैसा कि चिकित्सीय साक्ष्य से पाया गया है। यदि एक क्षण यह माना जाता है, बलपूर्वक लैगिक समागम लगभग 10 से 12 वर्ष की लड़की के साथ किया गया हो और प्रवेशन होना हो, तब यह कथन करना अनावश्यक है कि योनि फट जाएगी। डॉक्टर, जिसने अभियोक्त्री- अभियोजन साक्षी 13 की जांच की गई थी. उसके गुप्तांग पर कोई क्षति नहीं पाई गई था।
इसलिए ऐसा कोई प्रवेशन नहीं हो सकता था, जिससे कि यह अभिनिर्धारित किया जा सके कि बलात्संग कारित किया गया है। यदि यौनिक भाग पर कुछ क्षतिया अथवा विदीर्णन, खरोंच अथवा सूजन पायी गयी हो, तब यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि प्रवेशन हुआ है और बलपूर्वक लैंगिक समागम हुआ है। परन्तु अभिलेख पर ऐसा कोई स्वीकार्य साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। इसलिए केवल इस आधार पर कि योनिच्छद फट सकता है अथवा नहीं फट सकता है, स्वयं वर्तमान मामले में यह अभिनिर्धारित करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि बलात्संग हुआ है।
12 वर्ष से कम आयु-
कालासिका प्रशान्त कुमार बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य, 2004 क्रि. लॉ. ज. 1051 के प्रकरण में अभियुक्त नींबू के बाग में प्रवेश करने के पश्चात् उसे घनी झाड़ी मे ले गया था. जहाँ पर अभियुक्त उस पर लेट गया था, अण्डरवियर हटाया था, तब उसने अपनी पेंट और अण्डरवियर उतारी थी और उस पर लेट गया था तथा उसके साथ बलात्संग कारित किया था।
उसकी प्रतिपरीक्षा में कुछ भी महत्वपूर्ण बात नहीं बतायी जा सकी थी। उसी दिन उसकी अभियोजन साक्षी 14 डॉक्टर के द्वारा जांच की गयी थी, जिसने यह कथन किया था कि वह बाह्य जननाग के चारों तरफ रक्त के धब्बे पाए थे। यौनिक जांच के द्वारा वह योनिच्छद को ताजे अनियमित कटान के साथ पाया था. उसमें स्पर्श करने पर रक्तस्त्राव हो रहा था, योनि में एक उंगली जाती थी और गर्भाशय उल्टा था।
यौनिक जांच पीड़ायुक्त थी। उदर के बायीं तरफ अधिक रक्तस्त्राव था। अंगुलियों के नाखूनों के द्वारा खरोचे कारित की गयीं थी। पीड़िता को निलोफर अस्पताल में निर्दिष्ट किया गया था यौनिक फटाव तत्पश्चात् सुधर गया था। विज्ञान प्रयोगशाला की रिपोर्ट के अनुसार मद संख्या 2, 3 और 4 अर्थात् पीड़िता और अभियुक्त के कटे हुए भाग पर वीर्य और शुक्राणु पाए गये थे।
अभियुक्त की भी डॉक्टर अभियोजन साक्षी 12 के द्वारा जांच की गयी थी, जिसने यह प्रमाणित किया था कि अभियुक्त पुंसक है एवं सेक्स के लिए सक्षम है। इन कारणों से सर्वोच्च न्यायालय ने यह नहीं पाया था कि अभियुक्त की ओर से भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 (2) (च) के अधीन बलात्संग के अपराध के लिए कोई बचाव है, क्योंकि पीड़िता घटना की तारीख पर 12 वर्ष से कम आयु की अवयस्क थी।
13 वर्ष-
एक मामले में उच्च न्यायालय को अभियुक्त की पहचान के सम्बन्ध में अभियोक्त्री के अभिसाक्ष्य पर अविश्वास व्यक्त करने में त्रुटिपूर्ण होना पाया गया था। लड़की 13 वर्ष की थी और वह उस व्यक्ति का चेहरा नहीं भुला सकती थी, जिसने उसके साथ ऐसा घृणित अपराध कारित किया था। पर्याप्त प्रकाश था। अभियुक्त की पहचान को अभियोक्त्री तथा अन्य अभियोजन साक्षियों के द्वारा पर्याप्त रूप में साबित किया गया था। उच्च न्यायालय का निर्णय उलट दिया गया तथा विचारण न्यायालय के द्वारा अभिलिखित की गयी दोषसिद्धि को प्रत्यावर्तित किया गया।
13/14 वर्ष-
आन्ध्र प्रदेश राज्य बनाम बोडेम सुन्दर राव, 1995 (7) जे टी 901 के मामले में अभियोक्त्री, 13/14 वर्षीय युवा लड़की के साथ बलात्संग उस समय कारित किया गया था, जब वह अपने पिता, जो खेत में जानवरों को चरा रहा था, को नाश्ता लेकर जा रही थी। उसने अपने पिता से घटना को उस समय बताया था, जब उसकी योनि से पर्याप्त मात्रा में रक्तस्त्राव हो रहा था। संशोधन के पश्चात् धारा 376 (1) सात वर्ष के न्यूनतम दण्डादेश का प्रावधान करती है, जो आजीवन अथवा 10 वर्ष तक का हो सकता है।
लेकिन विशेष कारण से न्यायालय दण्डादेश को कम कर सकता है। चूंकि कोमल आयु की लड़की पर बलात्संग कारित करने का अपराध अमानवीय था और कोई परिशमनकारी परिस्थिति नहीं थी और इसलिए 7 वर्ष के कठोर कारावास के न्यूनतम दण्डादेश को अधिरोपित किया जाना है। इसलिए 4 वर्ष के कठोर कारावास के दण्डादेश को 7 वर्ष के कठोर कारावास तक बढ़ाया गया।
14 वर्ष-
रूपावथ मोथी राम बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य, 2003 (3) के वाद में अपीलार्थी ने 14 वर्षीय लड़की के साथ बलात्संग कारित किया था। पीड़िता की माँ और भाई पीड़िता के चिल्लाने को सुनने पर अपीलार्थी को पीड़िता के ऊपर शारीरिक रूप में पाये गए थे। उन्हें अविश्वसनीय बनाने के लिए साक्षियों की प्रतिपरीक्षा में कुछ भी नहीं था। अभियोजन साक्षियों का साक्ष्य चिकित्सीय साक्ष्य से संपुष्ट था। बलात्संग के मामले में पीड़िता का अभिसाक्ष्य, यदि स्वीकार्य पाया गया हो, अभियुक्त को दोषसिद्ध करने के लिए पर्याप्त होता है। अतः पीडिता पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं था। इसलिए दोषसिद्धि में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है।