भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 5: विशेष न्यायाधीशों द्वारा विचारण किए जाने वाले प्रकरण
Shadab Salim
18 Aug 2022 10:26 AM IST
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम,1988 (Prevention Of Corruption Act,1988) की धारा 4 उन प्रकरणों का उल्लेख करती है जिन्हें विशेष न्यायाधीशों द्वारा विचारण किया जाएगा। जैसा कि विदित है यह अधिनियम के प्रारंभ में ही धारा 3 में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के आधीन अपराधों का विचारण विशेष न्यायाधीश द्वारा किया जाएगा और राज्य सरकार को ऐसे न्यायाधीश की नियुक्ति की सभी शक्तियां होगी। इस ही प्रकार धारा 4 उन प्रकरणों का उल्लेख है जिनका विचारण विशेष न्यायाधीश कर सकते हैं। इस आलेख में धारा 4 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।
यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है
धारा 4
विशेष न्यायाधीशों द्वारा विचारण के प्रकरण-
(1) दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी धारा 3 की उपधारा (1) में विनिर्दिष्ट प्रकरणों का विचारण विशेष न्यायाधीशों द्वारा ही किया जाएगा।
(2) धारा 3 की उपधारा (1) में विनिर्दिष्ट प्रत्येक अपराध का विचारण उस क्षेत्र के लिए नियुक्त या उस अपराध के विचारण के लिए नियुक्त या यथास्थिति विशेष न्यायाधीश द्वारा किया जावेगा या उस क्षेत्र में यदि एक से अधिक न्यायाधीश हैं, तो उस न्यायाधीश द्वारा किया जायेगा जैसा कि केन्द्रीय सरकार इस निमित्त विनिर्दिष्ट करें।
(3) किसी मामले के विचारण के दौरान विशेष न्यायाधीश द्वारा धारा 3 में विनिर्दिष्ट अपराधों के अतिरिक्त ऐसे अपराधों की सुनवाई भी कर सकेगा जो दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का सं0 2) के अधीन उस अभियुक्त पर उस विचारण के साथ अधिरोपित किए जा सकते हैं।
'[(4) दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में अंतर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी, किसी अपराध के लिए विचारण, यथासाध्य रूप से दैनिक आधार पर किया जाएगा और यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया जाएगा कि उक्त विचारण दो वर्ष की अवधि के भीतर पूरा कर दिया जाता है :
परंतु जहां विचारण उक्त अवधि के भीतर पूरा नहीं हो पाता है, वहां विशेष न्यायाधीश ऐसा न होने पाने के कारणों को लेखबद्ध करेगा :
परंतु यह और कि उक्त अवधि को, लेखबद्ध किए जाने वाले कारणों से, एक समय में छह मास से अनधिक आगे और अवधि के लिए विस्तारित किया जा सकेगा; हालांकि उक्त अवधि, विस्तारित अवधि सहित सामान्य रूप से कुल मिलाकर चार वर्ष से अधिक नहीं होगी।]
धारा 4 यह अभिव्यक्त करती है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता में अन्तर्विष्ट किये गये किसी भी बात के होते हुए भी या तत्समय किसी अन्य विधि के प्रवर्तनीय होने के कारण, कथित अधिनियम के अधीन अपराधों का विचारण मात्र विशेष न्यायाधीश द्वारा किया जायेगा और विशेष न्यायाधीश शब्द 1988 के अधिनियम की धारा 4 के निर्देश में उप विशेष न्यायाधीशों का अभिप्राय रखते हुए विद्यमान है जिनकी नियुक्ति उस अधिनियम की धारा के अन्तर्गत की गयी है या जिनकी नियुक्ति को 1988 के अधिनियम की धारा 25 के अधीन निरसित किये गये दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम, 1952 के अधीन संरक्षण प्रदान किया जा चुका है।
रिश्वत लेने के मामले में केवल किसी व्यक्ति के पास रुपये का बरामद होना पर्याप्त नहीं है, अतः अपराध रिश्वत का न होकर भ्रष्टाचार के अन्तर्गत होगा। उच्चतम न्यायालय ने भविष्य निधि विभाग के निरीक्षकों के एक मामले में यह निर्णय दिया।
सी के दामोदरन बनाम भारत सरकार, 1997 सुप्रीम कोर्ट केसेज (क्रिमिनल) 654 के मामले में कालीकट के 4 भविष्यनिधि निरीक्षक एक चिकित्सालय का निरीक्षण करने गए। वहां के रजिस्टरों का निरीक्षण करने के बाद वहां के अभिलेख उन्होंने अपने कब्जे में लिये और बाद में उन्होंने यह कहा कि अस्पताल को अपने कर्मचारियों का अंशदान जमा करना है लेकिन यदि वह उनको 3500 रुपए घूस दे दे तो उनको इससे छूट मिल सकती है। बातचीत करके 2000 रुपए तय हुए उसमें से 1000 रुपए उसी दिन दे दिए गए। परिवादी ने इस मामले की शिकायत सी बी आई को की और निश्चित तारीख पर पुलिस द्वारा दिये गये रुपये जिन पर पावडर लगा दिया गया था परिवादी को दिये गये कि वह जाकर निरीक्षकों को दे।
परिवादी निरीक्षकों के कार्यालय में गया। एक निरीक्षक ने परिवादी से यह पूछा कि क्या वह रुपया लाया है जिस पर परिवादी ने कहा कि वह निकट के होटल में चले जहाँ यह रुपया देगा इस पर उस निरीक्षक ने अपने साथी निरीक्षकों को बुला लिया और वे लोग पड़ोस के होटल में गये व वहां चाय पी पुलिस के गवाह और पुलिस सादे वेश में उसी होटल की छत में बैठकर देखते रहे। परिवादी ने रुपये निकाल कर निरीक्षक के हाथ में दिये जिसे उन्होंने गिनकर जेब में रख लिये।
तत्काल पुलिस ने उन सबको गिरफ्तार किया जिस पर निरीक्षक रोने लगा और उसने रिश्वत लेना स्वीकार कर लिया। उसके हाथ और कपड़ों में पाउडर लगे होने का परीक्षण सिद्ध हुआ। 4 निरीक्षकों पर मुकदमा चलाया गया। मुकदमें में उन्होंने कहा कि उन्होंने कभी भी रिश्वत नहीं मांगी। परिवादी ने जबरदस्ती उनके जेब में रुपया डाल दिया। जब वह रुपया निकाल कर वापस कर रहा था उसे गिरफ्तार कर लिया गया।
विचारण न्यायालय ने इस मामले में रिश्वत का दिया जाना सिद्ध नहीं माना और अभियुक्तों को दोष मुक्त कर दिया। उच्च न्यायालय ने रुपये की बरामदगी और परिस्थितियों के आधार पर अभियुक्तों को दण्डित कर दिया। उच्चतम न्यायालय के समक्ष इस अपील में इस बात पर जोर दिया गया कि केवल रुपये का प्राप्त करना अपराध नहीं है बल्कि यह सिद्ध होना चाहिए कि लोक सेवक ने रुपया रिश्वत के रूप में लिया था मात्र रुपया प्राप्त करने से यह निष्कर्ष नहीं निकलता है कि रुपया रिश्वत के रूप में लिया गया था।
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 4 व 5 इस संदर्भ में भिन्न-भिन्न स्थितियों को अपनी परिधि में लाती है। धारा 4 में रिश्वत के रूप में रुपये या वस्तु का प्राप्त करना दण्डनीय अपराध है जबकि धारा 5 में अपने पद का दुरुपयोग करके कोई मूल्यवान वस्तु प्राप्त करना या व्यक्तिगत लाभ उठाने को अपराध घोषित किया गया है। इस प्रकार धारा 4 व 5 की परिधि पृथक्-पृथक् है। यह सही है कि प्रश्नगत मामले में 1000 रुपए अभियुक्त के पास से बरामद हुए। बरामदगी से यह बात सिद्ध नहीं होती कि अभियुक्त ने परिवादी से रिश्वत की मांग की हो।
निश्चित रूप से इस मामले में निरीक्षकों ने परिवादी से धन स्वीकार किया, ऐसी स्थिति में यह माना जायेगा कि यह धन उनके द्वारा अपने पद का दुरुपयोग करते हुए परिवादी से प्राप्त किया गया और निश्चित ही उन्होंने भ्रष्टाचार का अपराध किया। उच्च न्यायालय ने अभियुक्त को 6-6 माह के कारावास से दण्डित किया और 2000 रुपए अर्थ दण्ड भी आरोपित किया। उच्चतम न्यायालय ने इस दण्ड में हस्तक्षेप करने से इन्कार कर दिया और दण्ड को कठोर नहीं माना।
अधिनियम का भूतलक्षी प्रभाव न रखना
यह सुस्थापित है कि किसी भी संविधि का अर्थान्वियन उसके भूतलक्षी होने के रूप में नहीं किया जा सकता जब तक कि ऐसी एक संरचना अधिनियम के शर्तों के अधीन सुस्पष्ट नहीं प्रतीत होती है या आवश्यक या विशिष्ट अनुप्रयोग द्वारा आवश्यक नहीं हो जाती है। इस प्रकार से यह सुस्थापित है कि एक संविधि जो प्रक्रिया को प्रभावित करती है, भूतलक्षी होती है और किसी भी अधिकार न्यायालय के लिए या तत्समय प्रवृत्त विहित ढंग से अभियोजन या प्रतिरक्षा का होता है जिसमें वह बाद संस्थित करता है यदि संसद का कोई अधिनियम यह परिवर्तन करता है कि प्रक्रिया का ढंग, उसके पास परिवर्तित ढंग के अनुसार कार्यवाही करने से भिन्न कोई दूसरा अधिकार नहीं है।"
कालोनियल सुगर रिफाइनरी कम्पनी बनाम इरविंग, 1905 ए सी 369 के मामले में यह प्रश्न एक वादकर्ता प्रिवी काउन्सिल की अपील के एक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता था जिसे वह तिथि पर रखता था और उसने कानूनी तौर पर एक पश्चात्वर्ती परिवर्तन द्वारा वाद संस्थित किया था।
न्यायालय को प्रतीत हुआ कि कथित प्रश्न पर संदेह करने की कोई गुंजाइश नहीं होती है। एक वरिष्ठ अधिकरण में एक अपील की एक लम्बित कार्यवाही में एक वाद को वंचित करने के लिए जो उसके बतौर अधिकार से संबंधित थी एक प्रक्रिया को विनियमित करने से एक अलग बात होती है।
सैद्धान्तिक तौर पर, न्यायालय को एक अपील को समाप्त करने के साथ-साथ और एक अधिकरण को एक अपील अंतरित करने के बीच कोई अन्तर नहीं मिला। हर एक मामले में सुविख्यात इस सिद्धान्त के विरुद्ध अस्तित्वशील अधिकारों में हस्तक्षेप है कि संविधियां भूतलक्षी तौर पर कार्य का अभिनिर्धारण किये जाने के लिए नहीं होती है। विशेषकर उस दशा में जब तक प्रश्नगत प्रभाव का स्पष्टीकरण न कर दिया जाता हो।
यह भी भलीभाँति दृष्टिगोचर होगा कि हालांकि एक नये अधिकरण की एक अपील को अंतरित करना भी निहित अधिकारों में हस्तक्षेप किया जाना अभिनिर्धारित किया जाता है।
विशेष न्यायाधीश की न्यायालय की प्रकृति
जहाँ तक मामले के विचारणों का है, तो विशेष न्यायाधीश की स्थिति एक मजिस्ट्रेट के सदृश्य ही होती है। लेकिन जब ऐसे मामलों के संज्ञान के लेने का प्रश्न पैदा होता है जो विचारण की कार्यवाही से संबंध रखते है, तब इसके लिए 1952 के अधिनियम की धारा 8 की उपधारा (1) में किया गया है। ऐसे प्रयोजन के लिए इसके बारे में विचार करना आवश्यक नहीं होता है कि क्या वह एक मजिस्ट्रेट है या वह एक विशेष न्यायाधीश है। हालांकि इस सन्दर्भ में कोई सन्देह करने की गुजाइश नहीं रहती है कि विशेष न्यायाधीश एवम् सत्र न्यायाधीश के मध्य एकरूपता स्थापित कर दी गयी है।
धारा (3-क) को जो सन् 1958 में अधिनियम में अन्तःस्थापित किया गया है, वह यह प्रावधान करता है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 350 के प्रावधान एक विशेष न्यायाधीश के समक्ष लम्बित एक कार्यवाही पर लागू होगा और कथित प्रावधानों के प्रयोजन के लिए, एक विशेष न्यायाधीश को एक मजिस्ट्रेट होने के रूप में समझा जायेगा। धारा 350 इस बारे में प्रावधान करती है कि एक उत्तरवर्ती मजिस्ट्रेट को किस प्रकार से कार्यवाही करनी होती है। ऐसी स्थिति उस समय पैदा होती है जब उसके पूर्वाधिकारी ने मामले की आंशिक तौर पर सुनवाई की हो और मामले में साक्ष्य को लेखबद्ध किया हो। यह संशोधन बाकी न्यायिक राय के अन्तर्द्वन्द्र को हल करने की दृष्टिकोण से किया गया।
इतने पर भी यह स्मरण करना आवश्यक है कि सन् 1952 की धारा 8 की उपधारा (3-क) इस बात को स्पष्ट करती है कि उस उपधारा के प्रावधान दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 350 के प्रावधान से दूसरे का अल्पीकरण किसी भी ढंग से नहीं किया। अतएव, इस प्रश्न के बारे में कोई सामान्य उत्तर नहीं होता है कि क्या वह एक विशेष न्यायाधीश एक मजिस्ट्रेट से अधिक या एक सत्र न्यायाधीश से अधिक होता है। वह न तो एक मजिस्ट्रेट होता है और न ही एक सत्र न्यायाधीश। विशेष न्यायाधीश एक संविधि की एक रचना होती है और एक अद्वितीय दशा का उपभोग करती है, जिसे दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 द्वारा जाना जाता है।
विशेष न्यायाधीश द्वारा विचारणीय अपराध
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161 एवम् 165 के अन्तर्गत दण्डनीय अपराधों तथा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धाग 5(2) के अधीन दण्डनीय अपराधों का विचारण अनन्य रूप से एक विशेष न्यायालय द्वारा किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यह मजिस्ट्रेट के लिए कोई आवश्यक नहीं था कि वह अन्तिम रिपोर्ट को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 के प्रावधानों के अधीन विशेष न्यायाधीश के न्यायालय में भेजती जो एकमात्र उस अपराध का विचारण करने के लिए अनन्य अधिकारिता रखती है, सिवाय इसके कि वह स्वयमेव उस पर कार्यवाही करती।
लेकिन उसने विशेष तौर पर ऐसा उस समय नहीं किया जब उसके पास कथित अपराध का विचारण करने की कोई शक्ति नहीं थी। उच्चतम न्यायालय ने मजिस्ट्रेट के आदेश को अपास्त कर दिया और यह उसे अर्थात् कथित प्रथम वर्ग के मजिस्ट्रेट को यह निर्देश दिया कि प्रस्तुत मामले से सम्बन्धित सभी कागजातों को अधिकारिता रखने वाले विशेष न्यायालय को पारेषित कर दे।
यदि प्राइवेट परिवाद को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13 (1) (घ) (झ) के प्रावधानों के अधीन अपराधों को कारित करने के लिए संस्थित किया गया है तो मजिस्ट्रेट के पास ऐसे अपराध का संज्ञान लेने की कोई शक्ति नहीं होती है जिसका एक विशेष न्यायाधीश को, विचारण करने के लिए, अधिनियम, 1988 की धारा 4 के अधीन विनिर्दिष्ट किया जाता है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के अधीन परिवाद का अन्वेषण करने के लिए मजिस्ट्रेट का आदेश अधिकारिता के परे होता है।
विशेष न्यायालय की अधिकारिता के बारे में आक्षेप
मेजर ई जी बारसे बनाम राज्य, ए आई आर 1958 बम्बई 354 के प्रस्तुत मामले में इस आधार पर अभियुक्त (एक सेना अधिकारी) अभियुक्त का विचारण करने के लिए विशेष न्यायाधीश की योग्यता से सम्बन्धित एक यह आक्षेप किया गया कि सेना अधिनियम की धारा 125 एवं 126 के प्रावधान एवम् (पुरानी) दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 549 के अधीन विरचित किये गये नियमों का अनुपालन नहीं किया जाता है, तो ऐसे मुद्दे को विचारण न्यायालय के समक्ष विचारणार्थ प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
क्योंकि यदि ऐसा वादबिंदु विचारण न्यायालय के समक्ष उठाया जाता है, तो न्यायालय इस पर विचारण करने की दशा में होगा। इसके अलावा, यदि यह दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन विरचित किये गये नियमों के अनुसार कार्य करता है तो यह वैसा करना आवश्यक हो जाता है।
यदि न्यायालय के पास विचारण करने की अधिकारिता होती है तो यह बात तात्विक नहीं होती है कि क्या न्यायालय ने वैसा करने के लिए प्राधिकृत किये गये बगैर ही अपराध के विचारण की अधिकारिता रखता है या क्या मामले को ऐसे एक दूसरे न्यायालय द्वारा अंतरित किया गया है जिसको अंतरण का आदेश करने के लिए शक्ति ही नहीं दी गई है। पुरानी दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 529 के खण्डों (ङ) एवम् (च) में यह प्रावधान किया गया था कि विचारण के प्रारम्भ होने के पूर्व इस प्रकार की अनियमितता का कारित किया जाना स्वयमेव विचारण को तुच्छ नहीं बना देता है।
पुरानी दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 193 एवम् 409 के अधीन उद्भूत होने वाले मामले में या दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम 1952 की धारा 7 के अधीन तत्वों की भिन्नताएं जो अधिकारिता की नींव के लिए आवश्यक होती हैं और वह ढंग जिसमें ऐसी अधिकारिता की कल्पना या अभ्यास किया जाना होता है, मौलिक महत्व के होते है। जहाँ न्यायाधीश ने उसके द्वारा रखी गयी अधिकारिता के अभ्यास में विधि द्वारा विहित ढंग के अनुसार कार्य नहीं किया था, वहाँ अधिकारिता के अस्तित्व से स्पष्टरूपेण संबंधित न होने के कारण आक्षेप एक अनियमित या अवैधानिक ढंग से इसका अभ्यास करने के लिए किया गया और यह विचारण को निःसार नहीं बनाता था।
इस अधिनियम की धारा 3 में विनिर्दिष्ट उन सभी अपराधों से भिन्न अपराधों का विचारण करने के लिए विशेष न्यायाधीश की अधिकारिता
रिपब्लिक ऑफ इण्डिया बनाम राजेन्द्र नाथ झा, 1981 52 सी एल टी 197 उड़ीसा के मामले में अभियुक्त को संहिता की धारा 120- ख तथा 477 क के अधीन दोषसिद्ध किया गया। अधिनियम के अधीन दण्डनीय अपराध के लिए अभियोजन को मंजूरी न प्राप्त किये जाने की वजह से अविधिमान्य निर्णीत किया गया।
उड़ीसा न्यायालय ने राम औतार महतो बनाम राज्य, [ए आई आर 1961 पटना 203] के मामले के बारे में यह प्रेक्षण किया कि इस एक मामले में युगलखण्ड पीठ द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 की धारा 5 (2) के अधीन अपराध से संबंधित एक मामले में न्यायाधीश के समक्ष कार्यवाही यह है कि कोई भी विचारण उस समय लंबित नहीं रहता है जब अधिनियम की धारा 6 के अधीन कोई विधिमान्य मंजूरी नहीं प्राप्त की गयी हो।
इस प्रकार के मामले में विशेष न्यायाधीश के पास दण्ड विधि संशोधन अधिनियम, 1952 की धारा 409 के अधीन भी मामले का विचारण करने की कोई अधिकारिता नहीं होती है। अधिकारिता के बिना ही उस अपराध का विचारण अकृत एवं शून्य होता है। अतएव अन्य अपराध के लिए विचारण अधिकारिता के बिना ही होता है जब कि विशेष न्यायाधीश उसी अपराध द्वारा एक ऐसे अपराध के लिए अभियुक्त को दोषसिद्ध करता है जिसका वह विचारण अधिनियम की धारा 7 (3) के अधीन कर रहा
साहेब खान उमर खान बनाम राज्य, 1963 (2) क्रि लॉ ज 556 के मामले में गुजरात उच्च न्यायालय की एक युगलखण्ड पीठ ने भी यह अभिनिर्धारित किया कि यदि विशेष न्यायाधीश के पास भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1952 की धारा 5 (2) के अधीन एवं दण्डनीय मामले का विचारण करने की कोई अधिकारिता नहीं होती है, तो उसके पास अन्य मिश्रित अपराधों का विचारण करने के लिए कोई अधिकारिता नहीं होती है, इस प्रकार से दण्ड संहिता की धारा 405 के अधीन है जिसके लिए दण्ड विधि संशोधन अधिनियम, 1952 की धारा 7 की उपधारा (3) के प्रावधानों के अधीन उसे प्रदत्त किया गया है; गुजरात उच्च न्यायालय ने ऊपर चर्चित किये गये निर्णय का अनुसरण किया है और यह अभिनिर्धारित किया है कि विधि की उपर्युक्त दशा के दृष्टिकोण से, यह मत जाहिर किया गया कि विशेष न्यायाधीश के पास मामले का विचारण करने की कोई अधिकारिता नहीं थी और संपूर्ण अभियोजन अवैधानिक था।