भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 4: सरकार को विशेष न्यायधीशों की नियुक्ति के अधिकार
Shadab Salim
17 Aug 2022 6:05 PM IST
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम,1988 (Prevention Of Corruption Act,1988) की धारा 3 सरकार को इस अधिनियम के अंतर्गत होने वाले अपराधों के विचारण के विशेष न्यायधीशों की नियुक्ति करने का अधिकार देती है। विशेष न्यायधीशों की नियुक्ति का अधिकार एक महत्वपूर्ण अधिकार है, इससे किसी प्रकरण को विशेष रूप से चलाया जा सकता है ताकि शीघ्र विचारण संपन्न हो सके। इस आलेख के अंतर्गत धारा 3 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।
यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है
धारा 3 विशेष न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार
(1) केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार राजपत्र में अधिसूचना द्वारा ऐसे क्षेत्र या क्षेत्रों के लिए ऐसे मामलों या मामलों के समूहों के लिए जैसा कि अधिसूचना में विनिर्दिष्ट किया जाए जैसा कि वह आवश्यक समझे, निम्नांकित अपराधों की सुनवाई के लिए विशेष न्यायाधीश नियुक्त कर सकती है, अर्थात्
(क) इस अधिनियम के अधीन दंडनीय किसी अपराध के लिए, और (ख) खण्ड (क) में विहित अपराधों के घटित करने के लिए किसी षड़यंत्र, दुष्प्रेरण या प्रयास के लिए।
(2) कोई व्यक्ति विशेष न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने के लिए तब तक अर्ह न होगा जब तक कि वह दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) के अधीन सत्र न्यायाधीश, अपर सत्र न्यायाधीश या सहायक सत्र न्यायाधीश न हो या न रह चुका हो।
जहाँ तक, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 3 के विस्तार का संबन्ध है, यह केन्द्रीय सरकार को या राज्य सरकार को राजपत्र में अधिसूचना द्वारा उतनी संख्या में विशेष न्यायाधीशों की नियुक्ति करने के लिए शक्ति प्रदान करती है जितनी संख्या में वह ऐसे मामले या मामलों के समूह के लिए या ऐसे क्षेत्र या क्षेत्रों के लिए आवश्यक समझे जैसा कि अधिनियम के अधीन अपराधों का विचारण करने के लिए या ऐसे अपराधों को विचारणार्थं सुपुर्द करने के लिए षड़यन्त्र या उसके किसी दुष्प्रेरण के लिए अधिसूचना में विनिर्दिष्ट किया जाय।
इस विस्तार तक निरसित किये गये दाण्डिक विधि संशोधन अधिनियम, 1952 की धारा 6 का तत्संवादी है। यह राज्य सरकार के लिए अनिवार्य होता है कि वह उन क्षेत्रों को विनिर्दिष्ट करें जिनमें विशेष न्यायाधीशों को अपनी शक्तियों का प्रयोग करना है। यह प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 14 के समानार्थी है जो किसी स्थानीय क्षेत्र में सामान्य तौर पर मामलों का विचारण करने के सन्दर्भ में या मामलों के विशेष वर्ग या विशेष मामलों के सन्दर्भ में ऐसे किसी व्यक्ति को शक्ति प्रदान करने में राज्य सरकार को समर्थ बनाता है।
[सुरेन्द्र सहाय व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1997 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1670 के मामले में अभियुक्त, बन्दोबस्त न्यायालय के कार्यालय के क्रमशः रीडर एवं चपरासी के विरुद्ध यह अभिकथन किया गया कि उन्होंने वादियों से रिश्वत की मांग की जहाँ जालसाजी करने वाले अधिकारी ने रिश्वत की मांग करने एवं उसे स्वीकार करने की वास्तविक घटना को नहीं देखा था और वह छापा मारने के लिए बंदोबस्त प्राधिकारियों की पूर्व अनुज्ञा प्राप्त करने में भी असफल रहा वहां इन्हीं कारणों के परिणामस्वरूप, उसके साक्ष्य को विश्वसनीय नहीं माना गया।
इसके अलावा, एक अभियुक्त को भाग जाने का मौका देने के बाबत सतर्कता निरीक्षक एवं उस कान्सटेबिल के साक्ष्य को भी अविश्वसनीय पाया गया, जिन्होंने जालसाजी करने वाले अधिकारी के निर्देश के पर कार्य किये थे। अतएव, अभियुक्त के दोषसिद्धि के आदेश को न्यायोचित नहीं माना गया।
केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार में विशेष न्यायाधीशों की नियुक्ति करने की शक्ति का होना
विशेष न्यायाधीशों की नियुक्ति मद्रास राज्य द्वारा की गयी और यह नियुक्ति मद्रास राज्य के उच्च न्यायालय की प्रारम्भिक अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं को आच्छादित करने वाले क्षेत्र को सम्मिलित कर कतिपय क्षेत्रों के लिए सन् 1952 में की गयी। जब उच्च न्यायालय के उसके समक्ष एक ऐसा मामला प्रस्तुत किया गया जिसमें अभियुक्त को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 5(2) के अधीन एक अपराध को सम्मिलित करते हुए अनेक अपराधों के लिए अभियोजित किया गया, तब यह एक आपत्ति की गयी कि उच्च न्यायालय के पास प्रश्नगत मामले का विचारण करने की कोई शक्ति नहीं थी और उसका विचारण मात्र एक विशेष न्यायाधीश द्वारा दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम 1952 के प्रावधानों के अन्तर्गत नहीं किया जाना चाहिए।
इस आपत्ति को सर्वप्रथम इस आधार पर निष्प्रभावी कोई अधिकारिता नहीं होती है। जब इस मामले को उच्च न्यायालय के समक्ष विचारणार्थं प्रस्तुत किया गया, तब यह अभिनिर्धारित किया गया कि अधिनियम में ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है जिससे एक कानून की न्यायालय में विशेष तौर पर लम्बित एक मामले की कार्यवाही को समाप्त कर दिया गया।
यह अधिनियम की धारा 6 के अन्तर्गत उल्लेख भी किया गया लेकिन यह कथन नहीं करती है कि राज्य सरकार विशेष न्यायाधीशों की नियुक्ति करेगा और यह नहीं कथन करती है कि ऐसी एक सरकार विशेष न्यायाधीशों की न्यायालयों को स्थापित करेगा। यह उल्लेख किया गया कि दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम के राज्य सरकार को विशेष न्यायधीशों की नियुक्ति करने के लिए शक्ति प्रदान कर दिया और यह कि शब्द कर सकेगा अर्थात् में" के स्थान पर करेगा अर्थात् शैल शब्द का प्रयोग किया जाता है।
यह अभिनिर्धारित किया गया कि कर सकेगा इसका यह साधारण एवम् प्राकृतिक अर्थ अवश्य नहीं किया जाना चाहिए और यह कि शब्द का यह अर्थ निकाला जाना चाहिए कि यह विशेष न्यायाधीशों की नियुक्ति करने के लिए राज्य सरकार के लिए विधिपूर्ण होगा। यह पुनः अभिनिर्धारित किया गया कि, जब तक कि राज्य सराकर ऐसे क्षेत्र या क्षेत्रों के लिए विशेष न्यायाधीशों की नियुक्ति ठीक वैसे नहीं कर देता जैसे कि अधिसूचना में विनिर्दिष्ट किया जाय, तब तक धारा 6 का प्रवर्तनीय भाग और अधिनियम का आगे का ओर प्रभाव प्रवर्तनीय नहीं होगा।
अतएव, जब तक विशेष न्यायाधीश की नियुक्ति अधिनियम के प्रावधानों के अधीन नहीं कर दिया जाता, तब तक अधिनियम की धारा 6,7,8,9 एवं 10 प्रवर्तनीय नहीं हो सकता था हालांकि यह अधिनियम 28 जुलाई सन् 1952 को प्रवर्तनीय हुआ।
प्रतिफल के मामले में क्षतिग्रस्त मामले में, मजिस्ट्रेट ने 31 जुलाई 1952 को विचार सुपुर्द किये जाने पर कथित व्यक्ति के साक्ष्य को 28 अगस्त, 1952 के तीन तारीख पहले अभिलिखित किया गया, यह वही तिथि है जिस पर राज्य सरकार ने दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम की धारा 7 के अधीन विशेष न्यायाधीशों की नियुक्ति किया था।
एक मामले में विचारणार्थं सुपुर्दगी करने के पहले प्रारम्भिक जाँच करते समय मजिस्ट्रे जांच की जा रही थी और इस मामले की जाँच उस दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम, 1952 के लागू होने के पूर्व प्रारम्भ की गयी थी जिसके अनुसरण में राज्य सरकार ने दिनांक 28 अगस्त, 1952 को विशेष न्यायाधीश की नियुक्ति की थी। इसी बीच जो मजिस्ट्रेट न्यायालय में लम्बित था, उसे एक विशेष न्यायाधीश की न्यायालय में अन्तरित कर दिया गया।
इसी बीच प्रारम्भिक जाँच के दौरान मजिस्ट्रेट न्यायालय के समक्ष एक आवेदन पत्र उसकी बीमारी के आधार पर कमीशन पर एक व्यक्ति का परीक्षण हेतु दिनांक 25 जुलाई 1952 को प्रस्तुत किया गया। जहाँ इस साक्षी के अभि साक्ष्य को विशेष न्यायाधीश के न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाना था, वहाँ न्यायाधीश ने इस आधार पर उसे साक्ष्य में ग्रहण करने से अस्वीकार कर दिया कि मजिस्ट्रेट के पास दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम के लागू हो जाने के पश्चात् कार्यवाही को चालू रखने की अधिकारिता नहीं थी।
दण्ड विधि संशोधन अधिनियम, 1952 की धारा 6 के अन्तर्गत विशेष न्यायाधीश की नियुक्ति एक या एक से अधिक क्षेत्र के लिए की जा सकती है। इस नए अधिनियम की धारा 3 में विशेष न्यायाधीश की नियुक्ति का प्रावधान धारा 6 दण्ड विधि संशोधन अधिनियम 1952 में था, जिसमें ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी कि विशेष न्यायाधीश की नियुक्ति किसी मामले विशेष या मामले के समूह के लिए की जा सकती है। किन्तु य इस नई धारा में ऐसी व्यवस्था कर दी गई है।
विशेष न्यायाधीश की नियुक्ति उसकी पदवी के आधार पर ही की जा सकेगी न कि उसके नाम के आधार पर
बम्बई राज्य बनाम कन्हैयालाल, ए आई आर 1981 सुप्रीम कोर्ट : 1961 के मामले में जहाँ अभियोजन, सक्षम प्राधिकारी या व्यक्ति द्वारा प्रदान की गयी लिखित स्वीकृति के आधार पर प्रस्तुत की गयी; वहाँ यह अभिनिर्धारित किया गया कि परिवादी के नाम का ऐसा विनिर्दिष्टीकरण कार्यवाही को इस प्रकार से निष्फल नहीं बनाता है और इस प्रकार की अपेक्षाएं कानूनी थी कारण कि अपेक्षित और अनुध्यात एवम् अपेक्षित सहमति मात्र एक विष्टि अभियोजन के लिए थी। इस मामले में, धारा 6 यह अपेक्षा नहीं करती है कि व्यक्ति को नाम द्वारा विनिर्दिष्ट कियाजाना चाहिए या उस व्यक्ति को पदवी द्वारा विनिर्दिष्ट किया जाना चाहिए।
अपराधों का विचारण करने की अधिकारिता
प्रेम शंकर मिश्रा बनाम राज्य, 1957 क्रिमिनल लॉ जर्नल 108 के मामले में साधारण तौर पर एक विशेष न्यायाधीश भारतीय दण्ड संहिता की धारा 468 के अधीन एक दण्डनीय अपराध का विचारण नहीं कर सकता है। लेकिन यदि एक संव्यवहार के 1947 प्ररूप भागों के अधिनियम की धारा 5 के अधीन एक अपराध तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 468 के अधीन एक अपराध कारित किया गया तो इन दोनों अपराधों का विचारण दण्ड प्रक्रिया संहिता में यथा उल्लिखित एक विचारण में एक ही न्यायालय द्वारा साथ-साथ विचारण किया जा सकता था।
इस प्रकार के मामले में विशेष न्यायाधीश 1947 के अधिनियम की धारा 5 के अधीन आरोपों के साथ-साथ भारतीय दण्ड संहिता की धारा 468 के अधीन अपराध का विचारण कर सकता है। इस शक्ति को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 468 के समान अपराधों का विचारण करने के लिए विशेष न्यायाधीश की अतिरिक्त अधिकारिता के रूप में निर्देशित किया जा सकता है।
उपधारा 3 के विशिष्ट प्रावधान धारा 6 में विनिर्दिष्ट अपराधों से भिन्न किसी भी अपराधों का विचारण करने के लिये विशेष न्यायाधीशों को प्राधिकृत करने में किसी भी प्रकार से संदेह करने की अनुज्ञा नहीं प्रदान करते हैं जिसके साथ अभियुक्त को दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन आरोपित किया जाता है। इस सम्बन्ध में मात्र परिसीमा यह होती है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 233 से 236 के अधीन आरोपों के संयोजन से सम्बन्धित प्रावधानों द्वारा विहित किया गया है।
अतएव भारतीय दण्ड संहिता की धारा 477 (क) के अधीन एक दण्डनीय मामले का विचारण एक ही न्यायालय में एक ही न्यायालय द्वारा, और एक ही विचारण में तथा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 5 (2) (1) के अधीन दण्डनीय अपराध के साथ किया जा सकता है।
एक मामले में इस सन्दर्भ में आक्षेप किया गया कि विशेष न्यायाधीश के पास उस दशा में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 477 के अधीन अभियुक्त का विचारण करने की कोई अधिकारिता नहीं होती। यदि वह मामला दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 235 (1) की परिधि के भीतर आता है तो यह दण्ड संहिता की धारा 477(क) के अधीन आरोप के सन्दर्भ में मामले को विभाजित करने के लिए विशेष न्यायाधीश के लिए आवश्यक नहीं होता है।
यदि वह किसी भी दृष्टिकोण में वैसा करता भी है तो भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 3(1) (ग) यथा परिभाषित अवचारपूर्ण कार्यो, आपराधिक न्यासभंग के कार्य होने से भी कोई अन्तर नहीं पड़ता तथा मिथ्यापूर्ण प्रविष्टियां करने के कार्य को उसी संव्यवहार से उद्भूत होने वाला माना गया और इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया कि दण्ड विधि संशोधन अधिनियम 1952 की धारा 7 की उपधारा 3 द्वारा यथा अनुध्यात एक विचारण में ही विचारणीय लिपिक में न्यायालय के नाजिफ का भारसाधक होने के रूप में था। अभियुक्त का उद्देश्य सरकारी उस धन का दुरुपयोग करना था जो न्यायालय के एक में समय-समय पर उसके पास आता था।
यद्यपि गबन का प्रत्येक कार्य एकपूर्ण कार्य के प्रारूप की संरचना करता है फिर भी इस प्रकार के हर एक कार्य को प्रयोजन एवं कार्य की निरन्तरता द्वारा इस सन्दर्भ में एक दूसरे कार्य से जोड़ा गया कि अभियुक्त का मुख उद्देश्य सरकारी धन एवं सरकार के साथ धोखेबाजी करना था। गवन के इस प्रकार एक कार्य को मिथ्यापूर्ण प्रविष्टि करने मे आच्छादित होने वाला या सुविधा प्राप्त करने वाला पाया गया।
इसके अलावा किसी भी घटना में यह प्रदर्शित करने के लिए कोई बात अभि में उपलब्ध नहीं पायी गयी कि जहाँ उपरोक्त वर्णित अपराधों के सभी आरोपों को एक संयोजित कर दिया गया और उनका इस प्रकार से संयोजन करने के पश्चात् एक ही विचारण न्यायालय द्वारा विचारण किये जाने का निर्णय लिया गया, वहाँ ऐसा किये जाने से अभियुक्त के साथ कोई घोर अन्याय कारित किया गया हो।
अधिनियम के अधीन नियुक्त किया गया विशेष न्यायाधीश, सत्र न्यायाधीश होता है परन्तु इस धारा के अन्तर्गत नियुक्ति के पश्चात् वह मजिस्ट्रेट एवं सत्र न्यायाधीश दोनों ही बन जाता है क्योंकि भ्रष्टाचार सम्बन्धी अपराधों हेतु मजिस्ट्रेट की शक्ति भी उसमें निहित हो जाती है।
इस्माइल खान शाह बनाम स्टेट, 2012 क्रि लॉ ज 2649 (कर्नाटक) के मामले में, चूंकि आरोप-पत्र भारतीय दंड संहिता की धारा 420-ख तथा 12-ख के अधीन विचारणीय अपराध के लिए अभियुक्त सं 5 के विरुद्ध केवल आरोप-पत्र दाखिल किया गया था लेकिन अभियुक्त सं 1 लोक सेवक के विरुद्ध भ्रष्टाचार निवारण अधिनियन के अधीन अपराध के लिए आवेदन-पत्र दाखिल किया गया था और उसको विचारण के लिए नहीं पेश किया गया क्योंकि उसके विरुद्ध मामला विभक्त कर दिया गया था। इसलिए विशेष न्यायालय भारतीय दंड संहिता की बाबत अभियुक्त संख्या 2 से अभियुक्त संख्या 5 तक का विचारण करने की अधिकारिता नहीं रखता था। ऐसे रूप में उन्हें दोषमुक्त कर दिया गया।
विशेष न्यायाधीश के मामलों का विचारण करने की शक्ति
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161 के अधीन दण्डनीय अपराध खण्ड (क) के अधीन, धारा 165 या 165-क के अधीन दण्डनीय अपराधों या भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 की धारा 5 की उपधारा (2) के अधीन दण्डनीय अपराधों को सम्मिलित कर दिया जाता है। इसके अतिरिक्त खण्ड (क) के अधीन खण्ड (क) में विनिर्दिष्ट किये गये अपराधों में से किसी भी अपराध को कारित करने के लिए या किसी अपराध को कारित करने के लिए दुष्प्रेरण या कारित करने के लिए किसी षडयन्त्र को सम्मिलित कर दिया जाता है।
यह प्रतिपादना कि धारा 6 के अधीन, यह एकमात्र वे लोक सेवक होगें जिनका विचारण एक विशेष न्यायाधीश के न्यायालय द्वारा किया जा सकता था और यह सही नही होगा क्योंकि भारतीय दण्ड संहिता 1860 की धारा 162 एवम् 165- स्पष्टरूपेण उनकी परिधि में स्पष्टरूपेण उन व्यक्तियों को समाविष्ट करेगा जो लोकसेवक नहीं होंगे। कोई षडयन्त्र करने के लिए अतएव, विशेष न्यायाधीश उन सभी व्यक्तियों के विरुद्ध भी अपराधों का विचारण करने के लिए सक्षम होंगे जो लोक सेवक नहीं होते या उपबंध किया गया है कि दण्डविधि (संशोधन) अधिनियम, 1952 की धारा 6(1) के खण्ड (क) एवम् (ख) के अन्तर्गत आते हैं।
यह धारणा मानने योग्य है कि विशेष न्यायाधीश की न्यायालय के पास विशेष अधिकारिता होती है और यह महत्वपूर्ण कारक जिस पर इसकी अधिकारिता आधारित रहती है वह यह होता है कि अभियुक्त को एक लोक सेवक होना चाहिए। जिस क्षण विशेष न्यायाधीश को यह जानकारी होती है कि अभियुक्त एक लोक सेवक नहीं है, उसी क्षण दण्ड विधि संशोधन अधिनियम की धारा 6 में वर्णित अपराधों को कारित करने के लिए अभियुक्त का विचारण करने की अधिकारिता विरत हो जाती है।
परिणामतः किसी दूसरे अपराध का विचारण करने के लिए अधिनियम की धारा 7(3) के अन्तर्गत उसकी अग्रिम अधिकारिता जिसके द्वारा अभियुक्त का विचारण दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम की धारा 6 में वर्णित अपराध के साथ संयुक्त रूप से विचारणीय हो सकता था, भी विरत हो जायेगा।