भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 19: उपधारणा का खंडन

Shadab Salim

19 Sep 2022 11:56 AM GMT

  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 19: उपधारणा का खंडन

    भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम,1988 (Prevention Of Corruption Act,1988) की धारा 20 उपधारणा की व्यवस्था करती है। धारा 20 के तहत अपराधों के साबित करने का भार अभियोजन पर नहीं अपितु अभियुक्त पर स्वयं को निर्दोष साबित करने का भार होता है। धारा 20 की उपधारणा का खंडन कैसे हो सकता है यह न्यायालय द्वारा समय समय पर दिए निर्णयों से उल्लेखित किया गया है, कुछ न्याय निर्णयों के साथ यह आलेख इस अधिनियम के अंतर्गत होने वाली उपधाराओं के खंडन में प्रस्तुत किया जा रहा है।

    उपधारणा का खण्डन

    भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 20 यह उल्लेख करती है कि यदि अभियोजन यह साबित कर देता है कि अभियुक्त ने किसी पारितोषण को स्वीकृत किया है या स्वीकृत करने के लिए सहमत हो गया है, तो उपधारा की जायेगी कि उसने एक भ्रष्ट हेतुक के साथ इसे स्वीकृत करने के लिए सहमत हो गया है या उसे स्वीकार कर चुका है जब तक इसके विरुद्ध साबित नहीं कर दिया जाता है।

    जब कानून दोषी होने की एक उपधारणा करता है और अभियुक्त के ऊपर स्वतः के निर्दोष होने के भार को डालता है तब यह भार इतना भारी होता है कि उन दाण्डिक मामलों में अभियोजन पर पड़ना जहाँ ऐसी कोई उपधारणाएं उत्पन्न नहीं होती हैं। इस प्रश्न पर भारतवर्ष तथा इंग्लैण्ड में अनेक अवसरों पर गंभीरतापूर्वक विचार किया गया है।

    इंग्लैंड के एक मामले में प्रिवी काउन्सिल ने ऐसे मामले से संव्यवहार किया कि जहाँ अभियोजन ने यह साबित कर दिया है कि अभियुक्त के कब्जे में अभी हाल की चुराई गयी वस्तुएं पायी गयी और वह बिन्दु जो कथित विवादित वस्तुओं या माल पर उसका कब्जा होने के बारे में अभियुक्त द्वारा कैसे स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया गया को जूरी के द्वारा अवधारित किया जाना चाहिए था। इस प्रसंग में न्यायालय द्वारा यह प्रेक्षण किया गया कि अभियुक्त को अपने मामले को साबित करना था किन्तु यदि उसकी कहानी टूट जाती है तो जूरी अपराधी को दोषसिद्ध कर सकती थी।

    एक अन्य मामले में भी उपर्युक्त मत की पुष्टि की गयी और इसमें निम्नवत् ढंग से दृष्टिकोण व्यक्त किये गये

    "जहाँ या तो कानून या सामान्य विधि पर कतिपय मामले की कल्पना अभियुक्त के विरुद्ध की जाती है, वहाँ जब तक इसके विरुद्ध साबित नहीं कर दिया जाता है, तब तक न्यायालय को यह निर्देश दिया जाना चाहिए कि यह उन्हें अवधारण करना होता है कि क्या कथित धारणा के प्रतिकूल साबित किया जा चुका है या नहीं ? यह कि अपेक्षित सबूत का भार संदेह के परे मामले को साबित करने में अभियोजन में हाथों में अपेक्षाकृत कम होता है और इस भार को उसकी संभाव्यताओं को जूरी का समाधान करके साक्ष्य उन्मोचित किया जा सकता है जिसको अभियुक्त को स्थापित करने के लिये बुलाया जाता है।"

    इस मामले को सदैव दृष्टांत स्वरूप प्रस्तुत किया जाता है कि जहाँ एक अभियुक्त पर भार अधिरोपित किया जाता है, वहाँ इसे यह साबित करते हुए उन्मोचित किया जा सकता है कि क्या एक सिविल कार्यवाही में एक अधिमत की पुष्टि करने के लिए क्या पर्याप्त होगा और एक सिविल कार्यवाही में संभाव्यता की प्राबल्यता एक अधिमत के लिए एक पर्याप्त आधार का गठन कर सकता है।

    जब चिह्नांकित नोटों को अभियुक्त की उस शर्ट की जेब से बरामद किया गया जिसे वह पहन रखा था, तब यह साबित करने का भार उस अभियुक्त के ऊपर था कि कैसे प्रश्नगत करेन्सी नोट उसकी जेब में आ गयी।

    जदुनाथ कतुआ बनाम राज्य, 1982 क्रि लॉ ज 954 उड़ीसा (उच्च न्यायालय) के मामले में कहा गया है कि अभियुक्त से युक्तियुक्त पूर्ण संदेह के परे कठोर मानक सबूत द्वारा प्रतिरक्षा को साबित करने की अपेक्षा नहीं की जाती है।

    विजयदान बनाम राजस्थान राज्य, 1984 क्रि लॉ ज (एन ओ सी) 93 राजस्थान के मामले में कहा गया है कि जब एक अभियुक्त हेड कांस्टेबिल के विचारण में उसके विरुद्ध यह आरोप लगाया गया कि उसने भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 161 के अधीन तथा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 5 के अधीन एक दण्डनीय अपराध कारित किया है, तब अभियुक्त की ओर से यह संविवरण प्रस्तुत किया गया कि उसके भतीजे के निर्देश पर अभियोजन साक्षी द्वारा धन का संदाय किया गया था, जो उस रकम का अभियुक्त के प्रति ऋणी था और रकम की रसीद अभियुक्त द्वारा उसे प्रदान की गयी।

    इस धनराशि को निर्दोषिता के भाव में इस प्रभाव के अधीन प्राप्त किया गया कि इसे ऐसे व्यक्ति द्वारा भेजा गया जिसने अभियुक्त को ऋण प्रदान किये था। बचाव पक्ष के साक्षी के साक्ष्य से तथा अभियोजन साक्षियों द्वारा प्रस्तुत किये गये स्वीकृतियों से अभियुक्त के संविवरण को पूर्णतया निराधार या मिथ्यापूर्ण होने की संज्ञा नहीं दी जा सकती है। परिणामतः यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त ने संतोषजनक ढंग से धारा 4 (1) के अधीन उसके विरुद्ध उत्पन्न होने वाली उपधारणाओं का खण्डन कर दिया।

    भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 4 (1) के अधीन अभियुक्त व्यक्ति के विरुद्ध यह सिद्ध करना होता है कि उसने अवैध परितोषण प्राप्त किया है और यह कि कथित रकम का संदाय उसे बतौर विधिक पारिश्रमिक नहीं किया गया। इस प्रकार के मामले में न्यायालय से यह उपधारणा करने की अपेक्षा की जाती है कि अभियुक्त ने इस प्रकार की परितोषिक या हेतुक के रूप में उस परितोषण को प्राप्त किया है जिसका उल्लेख धारा 161 में किया गया है और न्यायालय के पास इसका कोई विकल्प नहीं होता है। यदि एक बार उपलब्ध उपधारणा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 4 (1) के अधीन की जाती है तो यह साबित करने का भार उस पर होता है कि उसके द्वारा प्राप्त किया गया परितोषण अवैधानिक नहीं था जब तक प्रतिकूल साबित नहीं कर दिया है तब तक धारा 4 (1) का अभिप्राय यह होता है कि धारा 4 (1) द्वारा उद्भूत की उपधारणा का खण्डन सबूत द्वारा खण्डन किया। जाना होता है और न कि कतिपय स्पष्टीकरण द्वारा जो संभवतः संभाव्य हो सकता है। लेकिन अपेक्षित सबूत के इस प्रकार होने की अपेक्षा नहीं जानी होती है जिसकी प्रत्याशा एक दाण्डिक दोषसिद्धि को संघृत करने के लिए की जाती है। इसके द्वारा मात्र उच्चतर मात्रा को स्थापित करना होता है।

    काली राम बनाम हिमाचल प्रदेश, 1974 क्रि० रूलिंग 49 ए आई आर 1974 उच्चतम 148 के प्रकरण में कहा गया है कि ये सभी कतिपय ऐसे मामले हैं जिनमें अभियुक्त के दोष से संबंधित उपधाराएं उत्पन्न होती हैं किन्तु इन सभी मामलों में भार उन तथ्यों को साबित करने का जो उपधारणा किये जा सकने के पूर्व प्रस्तुत किया जाना चाहिए, जब एक बार उन सभी तथ्यों को साबित करने के अभियोजन द्वारा साबित किया जा सकता है, तब न्यायालय विधिसंगत उपधारणाएं कर सकता है।

    इस प्रकार के मामलों में अभियुक्त पर उतना भारी नहीं होता है जितना कि अभियुक्त के दोष को साबित करने के लिए अभियोजन पर होता है। यदि कतिपय तात्विकता अभियुक्त के निर्दोपिता के संगत अभिलेख पर लाया जाता है, तो जो युक्तियुक्त पूर्ण ग से सत्य होता है और यह भी सत्य होना सकारात्मक दृष्टिकोण साबित कर दिया जाता है, तो अभियुक्त दोषमुक्त किये जाने का हकदार होगा।

    एक अन्य मामले में कहा गया है कि जब कानून अभियुक्त के विरुद्ध उपधारणा को जन्म देता है और उसको प्रतिरक्षा साबित करने के लिए बुलाया जाता है, तब यह विस्थापित करने के लिए सबूत की मात्रा एवं न्याय की उपधारणा एक मामले उन सभी के न्यायपूर्ण होने की अपेक्षा करेगी और इसके विरुद्ध होने को साबित हुआ कहा जायेगा यदि अभियुक्त वह स्थापित करने में अभियुक्त में सफलता प्राप्त करता है कि अभियोजन द्वारा प्रस्तुत किये गये उस सुझाव से एक निर्वचन के संदर्भ में उसको अभ्यारोपित किया गया समर्थ है।

    धारा 20 के अधीन उपधारणा ठीक उसी क्षण उद्भूत हो जाती है जिस क्षण अभियोजन ने यह कर दिया है कि अभियुक्त ने परितोषण के रूप में परन्तुक द्वारा न आच्छादित की गयी रकम को स्वीकार कर लिया है या स्वीकार करने के लिए सहमत हो गया है। यदि इसे अभिखण्डित किया जाय और इसके प्रतिकूल साबित कर दिया जाता है तो परितोषण अधिनियम में यथावर्णित या परितोषण के रूप में भ्रष्टाचार तरीके से संदाय किया गया या प्राप्त किया हुआ समझा जायेगा।

    किन्तु इस प्रकार के मामले में अभियुक्त पर अभियुक्त का भार दोष साबित करने में अभियोजन पर यथा उल्लिखित भार से कम होता है और यह उसका तत्संवादी होता है जो वादी या परिवादी पर आधारित होता है जिससे संभाव्यताओं की प्राबल्यता की दृष्टिकोण से एक सिविल कार्यवाही में एक विवाद को साबित करने की अपेक्षा की जाती है।

    मध्य प्रदेश राज्य बनाम विद्यानाथ अय्यर, (ए आई आर 1958 सु को 61) के मामले में जो अभिनिर्धारण किया गया, जिसका अनुसरण श्री कृष्ण नारायण राव बनाम रिपब्लिक ऑफ इण्डिया, (ए आई आर 1958 केरल 136) के मामले में इस मुद्दे पर दृष्टिकोण व्यक्त करते हुए किया गया कि धारा 20 के अधीन उपधारणा का खण्डन करने के लिए एक स्पष्टीकरण प्रस्तुत करने हेतु अभियुक्त के लिए पर्याप्त नहीं होता है जिस न्यायालय की मानसिकता में कुछ भ्रमात्मक स्थिति पैदा करने के लिए अस्वीकृत नहीं किया है। किन्तु यह अभियुक्त को साबित करने के लिए आवश्यक होता है कि उसने धन को अवैधानिक परितोषण या रिश्वत से भिन्न अर्थात् निर्दोषितापूर्ण ढंग से ही प्राप्त किया था।

    चेपर बनाम स्लेड, में तथा आर बनाम दूनार, के मामले में विनिश्चय पर विश्वास करते हुए केरल उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि इस प्रकार के मामलों में अभियुक्त द्वारा अपेक्षित किया जाने वाला सबूत का भार इस संदेह पर साबित करने में अभियोजन के हाथों से कम होता है और यह कि प्रश्नगत भार को उसकी संभाव्यता के संदर्भ में न्यायालय का समाधान करके उसे उन्मोचित किया जा सकता है जिसको स्थापित करने के लिए अभियुक्त को बुलाया जाता है।

    इसके अलावा, जहाँ भार अभियुक्त व्यक्ति पर रखा जाता है, वहाँ उसको साबित करके इसे उन्मोचित किया जा सकता है, जो एक सिविल कार्यवाही में उसके पक्ष में एक अधिमत का समर्थन करने के लिए पर्याप्त होता है और यह कि सिविल मामलों में संभाव्यता की प्राबल्यता को अधिमत के लिए पर्याप्त आधार का गठन कर सकता है।

    अभियुक्त के ऊपर पड़ने वाले भार की प्रकृति ठीक वैसे नहीं होती है जैसे यह अभियोजन पर होता है जिसे न केवल अपने मामले को मात्र साबित करना चाहिए।

    बल्कि जदुनाथ खटाऊ बनाम राज्य, (1982 क्रि लॉ ज 954 उड़ीसा) में युक्तियुक्तपूर्ण संदेह के परे साबित कर दिया। चतुरदास भगवान दास पटेल बनाम गुजरात राज्य के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि जब एक लोक सेवक ऐसा परितोषण स्वीकृत करता है जो विधिक पारिश्रमिक नहीं होता है तब अधिनियम की धारा 4 (1) (पुराने अधिनियम की धारा) के अधीन उपधारणा को पूर्णतया आकर्षित किया जायेगा और यह प्रदर्शित करने का भार अभियुक्त पर चला जाता है कि उसने भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 161 में जैसा उल्लिखित है, ठीक उसी प्रकार के एक हेतुक या परितोषण के रूप में धन को स्वीकृत नहीं किया था।

    इसमें निम्नवत् ढंग से प्रेक्षण किया गया,

    "यह सत्य है कि वह भार जो इस उपधारणा को प्रतिस्थापित करने के लिए एक अभियुक्त पर निर्भर करता है, यह उतना भारी नहीं होता है जितना कि इसके मामले को साबित करने के लिए अभियोजन पर होता है। इतना होते हुए भी अभियुक्त पर इस भार को पारिस्थितिक या प्रत्यक्ष साक्ष्य को अभिलेख पर लाकर उन्मोचित किया जाता है जो युक्तियुक्तपूर्ण ढंग से संभाव्यता को स्थापित करता है कि धन को धारा 161 में यथा उल्लिखित ढंग से हेतुक या परितोषण के रूप में अभियुक्त से भिन्न द्वारा स्वीकार किया गया है।"

    जिस समय उच्चतम न्यायालय इसी प्रश्न पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रहा था उसी समय (ए आई आर 1979 सु को 1455 के मामले में मान सिंह बनाम दिल्ली प्रशासन, के मामले में यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ तक अधिनियम की धारा 4 के अधीन उपधारणा करने का प्रश्न उठता है, तो इसमें यह उल्लेख किया जा चुका है कि अभियुक्त से संदेह के परे सबूत के कठोर मानक द्वारा उसका बचाव करने की अपेक्षा नहीं की जाती है। किन्तु यह उस दशा में पर्याप्त होता है जहाँ वह एक ऐसी भेंट या स्पष्टीकरण प्रस्तुत करता है जो संभाव्य है और जब एक बार ऐसा कर दिया जाता है, तब भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 की धारा 4 (1) के अधीन उपधारणा स्वतः हुई समझी जाती है।

    पालनिया पिल्लई व अन्य बनाम राज्य, 1991 क्रि लॉ ज 1563 के मामले में कहा गया है कि जहाँ तक अधिनियम की धारा 4 (1) के अधीन उपधारणा के उद्भूत होने का प्रश्न उठता है तो अभियोजन को यह साबित करना होता है कि अभियुक्त ने विधिक पारिश्रमिक से भिन्न परितोषण प्राप्त किया है। जब यह प्रदर्शित कर दिया जाता है कि अभियुक्त ने एक निश्चित मात्रा में एक धनराशि प्राप्त किया है जो उसकी विधिक पारिश्रमिक नहीं थी, तब यह उपधारणा को जन्म देने के लिए पर्याप्त होगा। अधिनियम की धारा 4 (1) के अधीन अभियुक्त के ऊपर पड़ने वाले सबूत का भार का स्वतः समाधान हो जायेगा यदि उसने संभाव्यताओं की प्रबलता द्वारा अपने मामले को स्थापित कर दिया है जैसा कि एक सिविल मामले में किया जाता है।

    यह आवश्यक नहीं था कि उसे अपने मामले को संदेह के परे सबूत के परीक्षण द्वारा स्थापित करना चाहिए। इतने पर भी जालसाजी की संपुष्टि की आवश्यकता नहीं पड़ती है या अनुप्रमाणित करने वाले साक्षी का अवधारण किया जा सकता है और संपुष्टि के लिए किसी भी आवश्यकता को स्ट्रेट जैकेट सूत्र द्वारा सार्वभौमिक रूप से एक आवरण नहीं प्रदान किया जा सकता है।

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