राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 (NSA) भाग:2 निरोध आदेश बनाने की शक्ति (धारा 3)

Shadab Salim

19 Nov 2021 10:11 AM GMT

  • राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 (NSA) भाग:2 निरोध आदेश बनाने की शक्ति (धारा 3)

    राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (National Security Act) एक केंद्रीय कानून है। यह कानून भारत की सुरक्षा के उद्देश्य से बनाया गया है जिसके अंतर्गत यदि कार्यपालिका को कहीं भी यह प्रतीत होता है कि किसी व्यक्ति द्वारा भारत की सुरक्षा को खतरा है ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध निरोध का आदेश कार्यपालिका द्वारा किया जा सकता है।

    अलग-अलग राज्यों ने अपने राज्यों के लिए भी राज्य सुरक्षा अधिनियम बनाए हैं वे अधिनियम राज्य के भीतर होने वाले आपराधिक क्रियाकलापों को रोकने के उद्देश्य से बनाए गए हैं जैसे मध्य प्रदेश राज्य सुरक्षा अधिनियम, 1990, यह अधिनियम कुछ अपराधियों को निरोश करने के आदेश देने की कार्यपालिका शक्ति का उल्लेख करता है जिसमें ऐसे व्यक्ति जो समाज में अपराध फैलाने का कार्य करते हैं उन्हें नजरबंद किया जाता है।

    बहरहाल राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम,1980 संपूर्ण भारत में लागू है इसका विस्तार सारे भारत में है। इस आलेख के अंतर्गत इस अधिनियम की धारा 3 को प्रस्तुत किया जा रहा है और उससे संबंधित कुछ न्याय निर्णय भी प्रस्तुत किए जा रहे हैं।

    अधिनियम में प्रस्तुत की गई धारा का मूल स्वरूप:-

    धारा 3-

    विशेष व्यक्तियों के निरोध के लिए आदेश बनाने की शक्ति:-

    (1) केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार

    (क) यदि किसी व्यक्ति के संबंध में संतुष्ट है, कि भारत की प्रतिरक्षा की किसी हानिकारक कार्य को रोकने के दृष्टि से जो कि भारत की सुरक्षा वैदेशिक शक्तियों से भारत के संबंध में, या

    (ख) यदि किसी भी विदेशी के बारे में इस बात से संतुष्ट हैं कि वह अपनी लगातार उपस्थिति भारत में विनियमित करने की दृष्टि से या भारत से स्वयं को भगाने की व्यवस्था करने की दृष्टि से प्रयत्न कर रहा है, इसलिए यह आवश्यक समझा जाएगा। कि ऐसे व्यक्ति को निरुद्ध करने के लिए आदेश बनाने हेतु निर्देशित करें।

    (2) केन्द्रीय सरकार अथवा राज्य सरकार यदि किसी व्यक्ति के संबंध में संतुष्ट है, उसे ऐसे किसी भी हानिकारक कार्य को करने से रोकने की दृष्टि से जो कि लोक व्यवस्था बनाए रखने में बाधक हो या समाज के लिए आवश्यक सेवा और पूर्ति की व्यवस्था बनाए रखने के लिए हानिकरक कार्य कर रहा हो, ऐसे व्यक्ति के निरुद्ध किए जाने हेतु निर्देशित करेगा।

    स्पष्टीकरण- इस उपधारा के प्रयोजन हेतु समाज के लिए आवश्यक सेवाओं की पूर्ति की व्यवस्था में हानिकरक कार्य से समाज के लिए आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति व्यवस्था के लिए हानिकारक कार्य करना शामिल नहीं है, जैसा कि चोर बाजारी एवं आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति व्यवस्था अधिनियम, 1980 (1980 का 7) की धारा 3 की उपधारा 1 के स्पष्टीकरण में परिभाषित और र तदनुसार इस अधिनियम के अधीन किसी भी आधार पर कोई भी निरोध आदेश नहीं बनाया जा सकेगा, जबकि ऐसा निरोध आदेश उस अधिनियम के अन्तर्गत बनाया जा सकता है।

    (3) यदि किसी क्षेत्र में ऐसी परिस्थितियाँ उत्पत्र हैं, या होने की संभावना है, तो वहाँ का जिला दंडाधिकारी या एक पुलिस कमिश्नर जिसके कि अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमाओं के किसी क्षेत्र में है एवं राज्य सरकार इस बात से सतुष्ट है कि ऐसा करना आवश्यक है, वह एक लिखित आदेश द्वारा ऐसे किसी भी समय के लिए, जो कि आदेश में उल्लिखित किया जावेगा, निर्देश दे सकती है कि अमुक जिला दंडाधिकारी अथवा पुलिस कमिश्नर भी यदि संतुष्ट हो, जैसा कि उपधारा (2) में उल्लिखित किया गया है, उक्त उपधारा के अन्तर्गत प्रदत्त शक्तियों को प्रयोग में लाते हुए ऐसा कर सकता है:

    परन्तु प्रतिबन्ध यह है कि राज्य सरकार द्वारा निरोधादेश में उल्लेखित समयावधि प्रथम अवसर पर 3 माह से अधिक नहीं हो सकेगी, लेकिन राज्य सरकार यदि, जैसा कि ऊपर कहा गया है, संतुष्ट है कि ऐसा करना आवश्यक है, उक्त आदेश को समय-समय पर कितने भी समय तक संशोधित कर सकता है, लेकिन एक समय में समयावधि तीन मास से अधिक नहीं होगी।

    (4) जब कोई आदेश किसी अधिकारो द्वारा उपधारा (3) के अन्तर्गत बनाया जाता है. तब वह तत्काल राज्य सरकार को, जिसके कि अधीन वह कार्यरत है, उन सभी तथ्यों के साथ रिपोर्ट देगा, जिन आधारों पर निरोधादेश बनाया गया है एवं अन्य जानकारी, जो कि उसकी राय में प्रकरण पर असरकारक है एवं ऐसा कोई भी आदेश 12 दिन के पश्चात् प्रभावी नहीं होगा, जब तक कि उसके बनाए जाने के पश्चात् इस बीच राज्य सरकार द्वारा अनुमोदित नहीं कर दिया गया हो।

    परन्तु प्रतिबन्ध यह है कि जहाँ धारा 8 के अधीन निरोधादेश बनाने वाले अधिकारी के निरोध के आधारों को निरोध दिनांक से पांच दिन के पश्चात् लेकिन दस दिन के पूर्व, यह उपधारा के संशोधन के अधीन लागू नहीं होगी कि शब्द "बारह दिन" के स्थान पर शब्द "पन्द्रह दिन" प्रतिस्थापित किया जावेगा।

    (5) जबकि एक आदेश बनाया गया है या इस उपधारा के अधीन राज्य सरकार द्वारा अनुमोदित कर दिया गया है, राज्य सरकार सात दिन के भीतर केन्द्रीय सरकार को इस तथ्य की उन सभी आधारों की जानकारी के तथ्य देगा, जिस पर कि निरोधादेश बनाया गया है एवं अन्य दूसरी जानकारी, जो कि राज्य सरकार की राय में उक्त आदेश की आवश्यकता पर प्रभाव डालती है।

    यह इस धारा का मूल स्वरूप था जो अधिनियम में प्रस्तुत किया गया है। केन्द्र सरकार या राज्य सरकार द्वारा भारत की प्रतिरक्षा को नुकसान पहुंचाने वाले काम एवं उससे जुड़े व्यक्तियों के संबंध में संतुष्टि हो जाने पर निवारक निरोध आदेश बनाया जायेगा, इसी तरह भारत से मैत्री संबंध रखने वाली विदेशीय शक्तियों के प्रतिकूल आचरण एवं व्यवहार करने वाले व्यक्तियों को निरोधित किया जा सकेगा।

    किसी विदेशी व्यक्ति द्वारा भारत में आपराधिक कार्य करने के लिए निरंतर उपस्थित रहने की प्रक्रिया प्रारंभ की गई अथवा वह भारत देश से बाहर जाने के लिए प्रयत्नशील है। लोक व्यवस्था को बनाए रखने में बाधा उत्पन्न करने वाले व्यक्तियों को ही नजरबंद किया जायेगा। समाज के लिए आवश्यक सेवा और पूर्ति की व्यवस्था बनाए रखने में बाधा उत्पन्न करने वाले व्यक्तियों को नजरबंद किया जा सकेगा। इसके अंतर्गत कालाबाजारी एवं आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति में बाधा डालने जैसे प्रमुख विषय लिए जा सकते हैं।

    (2) भारत की सुरक्षा

    भारत की संप्रभुत्ता, उसमें निवास करने, धन-सम्पदा एवं आर्थिक प्रगति को किसी क्षति पहुँचाने से रोकने के लिए किसी व्यक्ति द्वारा राष्ट्र की सीमा एवं उसके भीतर प्रवेश कर के अंतर्गत रहते हुए कोई क्षति पहुंचाई जाती है या इस हेतु अपराध की ओर अग्रसर है अथवा ऐसे व्यक्ति द्वारा भारत के मित्र राष्ट्रों को किसी तरह क्षति पहुंचाने का कोई कार्य किया जाता है या इस हेतु प्रयासरत् है, ऐसे व्यक्ति को उक्त अधिनियम के अधीन निरुद्ध किया जा सकेगा।

    सम्पूर्ण राष्ट्र अंतर्गत वे सभी व्यक्ति सम्मिलित हैं, जो राष्ट्र के लिए कर्त्तव्यनिष्ठ हैं, उसके द्वारा संरक्षित है औ उसके कार्य हेतु समर्पित व सेवारत् है। भारत में निवास करने वाले विदेशी राजदूत, पर्यटक एवं अन्य सभी व्यक्ति, राष्ट्र की परिधि में निवास करने वाले माने जायेंगे। राज्य की लोक संपत्ति के उसके नागरिकों की निजी संपत्ति, सार्वजनिक उपयोग में आने वाली समस्त इमारतें, संरचना, ऐतिहासिक स्मारक, धार्मिक स्थल, तीर्थ, जल स्रोत, समुद्री सीमाएँ द्वीप, वायु सीमाएँ एवं आवागमन के मार्ग को क्षति कारित किया जाना राष्ट्र की प्रतिरक्षा पर प्रहार किया जाना मन जायेगा।

    भारत के निर्वाचित प्रतिनिधि, संसद, लोक सदन एवं लोकतांत्रिक संरचना के किसी आयाम को क्षति कारित किया जाना इसके अधीन हानि पहुँचाना माना जायेगा। भारतीय दण्ड संहिता, 1860 के अध्याय 6 के अंतर्गत राज्य के विरुद्ध अपराध के विषय में धारा 121 से 140 के अंतर्गत भारत की प्रतिरक्षा को क्षतिकारित किये जाने के लिए किए जाने वाले अपराधों को दण्डनीय बनाया गया है।

    अब्दुल रज्जाक नन्हे खाँ विरुद्ध पुलिस आयुक्त के मामले में कहा गया है कि व्यक्ति के कृत्य के आधार पर यह सुनिश्चित किया जायेगा कि उसके द्वारा लोक व्यवस्था को भंग किया गया अथवा केवल विधि एवं व्यवस्था का प्रकरण है।

    अब्दुल कय्यूम उर्फ बाबू पंडित उर्फ बाबू कारेहा एवं अन्य विरुद्ध भारत संघ एवं अन्य, 2010 के मामले में जिला मजिस्ट्रेट द्वारा दिनांक 11-11-2009 को निरोधादेश आदेश पारित किया गया। भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 489-ब और 489-स के अन्तर्गत प्रार्थी को अभिरक्षा में लिया गया। उसके आधिपत्य से नकली नोट भारी मात्रा में बरामद किए गए। उच्चतम न्यायालय द्वारा कहा गया कि प्रार्थी आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति में विघ्न उत्पन्न करना चाहता है। उसका जीवन समाज और व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने का है। उसे निरुद्ध किया जाना तर्कसंगत है। याचिका खारिज की गई।

    लोक व्यवस्था का अर्थ:-

    समाज के स्वरूप को विखंड़ित करने के लिए किसी व्यक्ति द्वारा समस्त लोक की संचना अथवा सुचारू व्यवस्था को किसी तरह क्षति पहँचाई जाती है, प्रतिदिन के जन-जीवन को सुव्यवस्थित बनाए रखने में बाधा उत्पन्न की जाती है, आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता में व्यवधान उत्पन्न किया जाता है। वस्तुओं का अनुचित लाभ प्राप्त करने के तरीके से व्यापार अथवा व्यवसाय किया जाता है, जिससे प्रतिदिन की उपयोगी वस्तुओं की कृत्रिम न्यूनता आती है अथवा मूल्य वृद्धि कर कालाबाजारी की जाती है।

    यह लोक व्यवस्था को क्षति कारित किया जाना माना गया है। किसी व्यक्ति द्वारा समाज और व्यवस्था के लोक मूल्यों को ध्वस्त करने के लिए किसी भी तरह का विधिविरुद्ध कार्य किया जाता है, उसे निरुद्ध किया जा सकेगा।

    सतीश शर्मा वि. भारत संघ एवं अन्य (2010) के मामले में जाली मुद्रा के कारोबार में निरुद्ध व्यक्ति सम्मिलित है और आपराधिक व्यक्तियों के संग विधिविरूद्ध समूह बना कर के अवैधानिक कामों में संलिप्त है, यह राष्ट्रीय अपराध है। जिससे देश की अर्थव्यवस्था जुड़ी हुई है, असामाजिक तत्व द्वारा समाज विरोधी कार्य किया जाना अनुचित और अपराध है। ऐसे व्यक्ति को निरुद्ध किया जाना उचित एवं तर्कसंगत है।

    जुगरू उर्फ वीरेन्द्र बनाम म.प्र. राज्य एवं अन्य, 2010 के मामले में जिला मजिस्ट्रेट द्वारा निरोध आदेश पारित किया गया, जिसे याची ने चुनौती दी चुनौती का आधार यह लिया गया कि याची के विरुद्ध कुछ आपराधिक मामले न्यायिक प्रक्रिया में विनिश्चित किये गये हैं उसे दोषमुक्त किया गया है, परन्तु उसे दस्तावेज उपलब्ध नहीं कराये गये। न्यायालय द्वारा अभिमत दिया गया कि इसके अंतर्गत जिला मजिस्ट्रेट का समाधान होना एकमात्र आधार सर्वोपरिय तथ्य है।

    मजिस्ट्रेट द्वारा समाधान करते समय यह देखा जायेगा कि किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता लोक व्यवस्था बनाये रखने पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। अभिलेख पर यह यह तथ्य आया कि याची की छवि घोर अपराधी की है, उसका आचरण सामाजिक जन-जीवन को ध्वस्त एवं रहवासियों आतंकित करने का है।

    उसके मौजूद रहने मात्र से व्यवसायिक दुकान बंद कर चले जाते है, कई व्यक्ति घरों में छुपने के लिये विवश हो जाते हैं। यह माना गया कि उसका आचरण लोक व्यवस्था को क्षति पहुँचाने का है। सलाहकार मंडल द्वारा निरोध आदेश की अभिपुष्टि की गई। निरोध आदेश समुचित आधारों पर होने से रिट याचिका खारिज की गई ।

    शकीला बानो विरुद्ध मध्यप्रदेश राज्य एवं अन्य, 2013 के प्रकरण में पुलिस अधीक्षक गुना द्वारा दिनांक 7-2-2012 को एक पत्र जिला मजिस्ट्रेट के नाम सम्बोधित करते हुए प्रेषित किया गया। उसके अन्तर्गत सूचित किया गया कि श्रीमती शकीला बानो गुना में कई आपराधिक मामले कर चुकी है, जिसमें मूलतः स्मैक का कारोबार अवैध रूप से किए जाने और आपराधिक क्षेत्रों से निरन्तर सम्पर्क रखने से जन-साधारण पर प्रतिकूल प्रभाव हो सकता है। कई प्रावधानों के अन्तर्गत प्रतिबन्धात्मक कार्यवाही की गई।

    उसका निरन्तर आपराधिक कृत्य में संलिप्त रहने से धारा 3 (2) राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 के अन्तर्गत उसे निरुद्ध किया जाना आवश्यक है। निरुद्ध किए जाने का समुचित लेख होने पर निरूद्ध प्राधिकारी द्वारा निष्कर्ष दिया गया कि स्वापक कारोबार और परिवहन में उसे संलिप्त रहते हुए निरुद्ध किया जाना आवश्यक हो गया है।

    राज्य सरकार को और सलाहकार मण्डल को निरुद्ध व्यक्ति द्वारा उसे निरूद्ध किए जाने के विरुद्ध समुचित अभ्यावेदन प्रस्तुत किया गया। उसके द्वारा संविधान के अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत रिट याचिका प्रस्तुत कर निरोधादेश को चुनौती दी गई।

    उच्च न्यायालय द्वारा अभिमत दिया गया कि निरुद्ध व्यक्ति को कारावास से रिहा किया जाने की सम्भावना थी और उसके स्वतंत्र होते ही आपराधिक जीवन की पुनः शुरुआत हो सकती थी। इस स्थिति में उसके विरुद्ध सम्पूर्ण अभिलेख से प्रतीत होता है कि वह समाज को निरन्तर स्वापक औषधियों में लिप्त कर रही है। उसे निरुद्ध रखा जाना तर्कसंगत है।

    प्राधिकारी द्वारा दस्तावेजों के आधार पर संतुष्टि की जायेगी और समुचित आधार लिए जाकर निरोध आदेश पारित किया जायेगा । आदेश में व्यक्ति को निरुद्ध रखने के लिए निर्देशित किया जायेगा और इस हेतु सामान्यतः संविधिक अवधि का उल्लेख किया जायेगा। उक्त अवधि संविधान के अनुच्छेद 22(4) में दी गई है, यह अवधि तीन माह रखी गई है। सामान्यतः ऐसी कोई त्रुटि की जाए और संविधिक अवधि का उल्लेख न भी किया जाएँ, उससे निरोध आदेश अभिखंडित किए जाने योग्य नहीं है। यह सारवान् त्रुटि न होकर, तकनीकि त्रुटि है।

    एक मामले में प्रार्थी के विरुद्ध निरोधादेश पारित किया गया। वह प्रतिबंधित संगठन का सक्रिय सदस्य है और भारत सम्प्रभु राष्ट्र की सुरक्षा को उससे खतरा है। वह राज्य की लोक व्यवस्था को बनाए रखने में भी विघ्नसंतोषी है। निरोधादेश में उसे निरुद्ध किए जाने की अवधि न दिया जाना घातक नहीं है। प्राधिकारी के लिए यह आवश्यक नहीं किया गया है कि याची का मामला परामर्श मंडल को भेजे जाने की सूचना याची को देवें। निरोधादेश विधिसम्मत ठहराया गया।

    निवारक नजरबंदी के लिये यह आधार लिया गया कि व्यक्ति जमानत पर रिहा होते ही आपराधिक कार्यों में संलिप्त हो जायेगा। न्यायालय द्वारा अभिमत दिया गया कि किसी व्यक्ति के जमानत पर रिहा हो जाने को निवारक नजरबंदी का आधार नहीं बनाया जा सकता है। इस हेतु और भी सामग्री इस संबंध में अभिलेख पर होना आवश्यक है कि ऐसा व्यक्ति लोक व्यवस्था को भंग करने की स्थिति में है और वह निरंतर इस ओर अग्रसर है। व्यक्ति को रिहा किया गया।

    संविधान के अनुच्छेद 22(4) में यह प्रावधान किया गया है कि उच्च न्यायालय के सेवा निवृत्त अथवा पदस्थ न्यायाधीश से मिलकर सलाहकार मंडल बनाया जायेगा। इस हेतु ऐसे व्यक्ति भी चुने जा सकेंगे, जो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश होने के लिए अर्हित हैं।

    इस तरह उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त या पदस्थ न्यायाधीश के अतिरिक्त जनता में से कोई व्यक्ति सलाहकार मंडल में लिया जा सकेगा, उक्त सलाहकार मंडल को मामला निर्देशित किया जायेगा, जो तीन माह की अवधि समाप्त होने के किसी व्यक्ति को निरुद्ध रखने के संबंध में अपनी समुचित राय देगा और उन आधारों पर विचार करेगा।

    एक अन्य प्रकरण में निरोध आदेश पारित किया गया। सलाहकार मंडल को प्रकरण साथ अभ्यावेदन भेजा जाना चाहिए। यह विधि का स्थापित सिद्धांत है कि सलाहकार मंडल को मामला निर्देशित किए जाने के पश्चात् अभ्यावेदन ग्राह्य किया जा सकेगा और उस पर विधिक प्रक्रिया अनुसार विचार किया जायेगा। निरोध प्राधिकारी द्वारा प्रक्रिया के विरुद्ध कार्य सम्पादन किया गया। आदेश अभिखंडित किया गया।

    निरोध आदेश दिए जाने पर संबंधित व्यक्ति पर उसका निर्वाह किया जायेगा और उसे यह की संसूचित किया जायेगा कि वह आदेश समुचित आधारों पर पारित किया गया है और अभ्यावेदन करने के लिए ऐसे व्यक्ति को अवसर दिया जायेगा। अभ्यावेदन पर सामान्यतः सात दिवस की अवधि में विचार किया जायेगा और उसे निरस्त किए जाने अथवा मंजूर किए जाने का निर्णय लिया जायेगा। विलंब किए जाने पर ऐसा स्पष्टीकरण दिया जाना अपेक्षित है।

    विलंब का स्पष्टीकरण यायसम्मत होने पर उसका विलंब क्षम्य किया जायेगा। विलंब का स्पष्टीकरण देने में कोई चूक की ईअथवा विलंब जानबूझकर किया गया, उस स्थिति में निरोध आदेश अभिखंडित किए जाने योग्य है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक से अधिक न्याय निर्णय में यह अभिमत दिया गया है कि विलंब का कोई पैमाना विधि के अंतर्गत सुनिश्चित नहीं किया गया है और यह न्यायालय के न्यायिक विवेकाधिकार के अधीन विनिश्चित किए जाने योग्य है कि व्यक्ति के साथ विधिसम्मत व्यवहार किया गया है अथवा जानबूझकर विलंबकारी आचरण किया गया है।

    किसी भी व्यक्ति को बिना कारण उसकी स्वतंत्रता से वंचित न किया जाएं और बिना कोई कारण दशांए अभ्यावेदन के विनिश्चय में देरी न लगाई जाएं. इस हेतु केन्द्र सरकार को दायित्वाधीन किया गया है। निरोध आदेश केवल उन्ही परिस्थितियों में पारित किया जाएगा, जबकि लोक व्यवस्था और समूहगत हितों को क्षति कारित किया गया है।

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