संविदा विधि (Law of Contract ) भाग 22 :  अभिकरण की संविदा के अंतर्गत अभिकर्ता के कर्तव्य और अधिकार क्या होतें हैं ( Rights and duties of Agent)

Shadab Salim

15 Nov 2020 5:17 AM GMT

  • संविदा विधि (Law of Contract ) भाग 22 :  अभिकरण की संविदा के अंतर्गत अभिकर्ता के कर्तव्य और अधिकार क्या होतें हैं ( Rights and duties of Agent)

    संविदा विधि से संबंधित सीरीज के अंतर्गत संविदा विधि के प्रावधानों पर सारगर्भित आलेख लेखक द्वारा लिखे जा रहे हैं। अब तक के आलेखों में संविदा विधि के आधारभूत सिद्धांतों का अध्ययन किया जा चुका है और उसके साथ उपनिधान, गिरवी, प्रत्याभूति,क्षतिपूर्ति तथा एजेंसी जैसे विषय का भी सारगर्भित अध्ययन किया जा चुका है।

    पिछले आलेख में एजेंसी की संविदा के अंतर्गत अभिकर्ता को प्राप्त प्राधिकार के संबंध में चर्चा की गई थी। इस आलेख में एक अभिकर्ता के अपने स्वामी के प्रति क्या अधिकार होते हैं और क्या कर्तव्य होते हैं इस पर चर्चा की जा रही है।

    अभिकर्ता के कर्तव्य

    भारतीय संविदा विधि 1872 के अंतर्गत अभिकरण की संविदा पर विस्तारपूर्वक उल्लेख किया गया है। अभिकरण की संविदा के अंतर्गत मालिक तथा स्वामी के बीच संविदा होती है, इस संविदा में मालिक के प्रति अभिकर्ता के कर्तव्यों का सर्वाधिक महत्व है।

    भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 211 मालिक के प्रति अभिकर्ता के कर्तव्य के संबंध में उल्लेख कर रही है। हालांकि केवल यह धारा ही अभिकर्ता के कर्तव्यों का उल्लेख नहीं करती है अपितु इस अधिनियम के अंतर्गत ऐसी अनेकों धाराएं हैं जो मालिक के प्रति अभिकर्ता के कर्तव्यों का उल्लेख कर रही है।

    धारा 211 मालिक के कारोबार की बाबत अभिकर्ता के कर्तव्य का उल्लेख करती है। यह धारा अभिकर्ता के मालिक के निर्देशों या रूढ़ियों के अनुसार कार्य करने पर बल देती है।

    इस धारा के अनुसार- अभिकर्ता अपने स्वामी के कारोबार का संचालन मालिक द्वारा दिए गए निर्देशों के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य है किंतु यदि कोई निर्देश नहीं है और निर्देशों का अभाव है तो ऐसी स्थिति में अभिकर्ता का यह कर्तव्य है कि वह मालिक के कारोबार का संचालन उन रूढ़ियों के अनुसार करें जो उस स्थान पर जहां अभिकर्ता ऐसे कारोबार का संचालन करता है और उसी किस्म के कारोबार में प्रचलित है।

    धारा 211 में स्पष्ट यह उल्लेखित है कि अभिकर्ता अपने मालिक के कारोबार का संचालन मालिक द्वारा दिए गए निर्देशों के अनुसार या ऐसे निर्देशों के अभाव में उस रूढ़ि के अनुसार करने के लिए बाध्य है जो उस स्थान में जहां की अभिकर्ता ऐसे कारोबार का संचालन करता है उसी किस्म का कारोबार करने में प्रचलित हो जबकि अभिकर्ता अन्यथा कार्य करें तब यदि कोई हानि हो तो उसके लिए अपने मालिक की प्रतिपूर्ति करनी होगी यदि कोई लाभ हो तो उसका लेखा देना होगा।

    भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 211 के अंतर्गत अध्ययन करने पर कुछ तत्व का समावेश नजर आता है जो इस प्रकार है-अभिकर्ता द्वारा मालिक के निर्देशों के अनुसार कार्य करना।

    ऐसे निर्देशों के अभाव में रूढ़ि के अनुसार अपने कृत्यों का संपादन करना। अभिकर्ता रूढ़ियों के अनुसार अपने कृत्यों का संपादन करने के लिए आबद्ध है।

    अन्यथा कार्य करने की स्थिति में अभिकर्ता मालिक को हुई हानि के लिए प्रतिकर देने के दायित्वधीन होगा। लेखा मालिक को देने के लिए बाध्य है।

    अभिकर्ता ऐसी रूढ़ियों के अनुसार मालिक के कारोबार का संचालन उसी अवस्था में कर सकता है जबकि उसी किस्म के कारोबार प्रचलन में हो।

    अरपा नायक बनाम नरसी केस जी 1870 के एक बहुत पुराने प्रकरण में कहा गया है अभिकर्ता द्वारा उक्त स्थिति में अपने कार्यों का संपादन उक्त रूढ़ियों के संदर्भ में तभी किया जा सकता है जबकि उक्त संदर्भ में मालिक का कोई स्पष्ट निर्देश न हो, यदि मालिक ने कोई निर्देश दे रखा है तो उस रूढ़ियों के विपरीत है तो ऐसी स्थिति में अभिकर्ता उक्त निर्देश का अनुसरण करने के लिए बाध्य है।

    इस प्रकरण से यह समझा जा सकता है कि यदि मालिक द्वारा कोई निर्देश दिया गया है और ऐसा दिया गया निर्देश उस समय उस स्थान पर उसी तरह के कारोबार में प्रचलित रूढ़ि के विरुद्ध है तो अभिकर्ता यहां पर मालिक द्वारा दिए गए निर्देश का पालन करेगा न कि वहां पर प्रचलित रूढ़ियों का पालन करेगा।

    अभिकर्ता के कौशल का प्रयोग

    भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 212 अभिकर्ता के कौशल के संबंध में उल्लेख कर रही है। इस धारा के अनुसार अभिकर्ता अभिकरण के कारोबार का संचालन उतने कौशल से करने के लिए बाध्य हैं जितने कौशल से वैसे कारोबार में लगे व्यक्तियों में साधारण होता है।

    जब तक की मालिक को उसके कौशल के अभाव की कोई जानकारी न हो अभिकर्ता युक्तिसंगत तत्परता से कार्य करने और जितना कौशल उसके पास है उसका प्रयोग करने के लिए बाध्य है। यह धारा अभिकर्ता को इस हेतु बाध्य करती है कि यदि इसमें कोई एजेंसी की संविदा की है तो ऐसी संविदा के अंतर्गत हुए अपने समस्त कौशल का प्रयोग करेगा। इसके अनुसार अभिकर्ता अभिकरण के कारोबार का संचालन उतने कौशल से करने के लिए बाध्य है जितना वैसे कारोबार में लगे हुए व्यक्तियों में साधारण होता है।

    जब तक की मालिक को उसके कौशल के अभाव की कोई स्पष्ट सूचना न हो अभिकर्ता सदैव ही युक्तियुक्त तत्परता से कार्य करने के लिए और उसका जितना कौशल है उसे उपयोग में लाने के लिए और अपनी स्वयं की उपेक्षा कौशल के अभाव में यह विचार के प्रत्यक्ष परिणामों की बाबत अपने मालिक को प्रतिकर देने के लिए आबद्ध है।

    पन्नालाल जानकी दास बनाम मोहनलाल एआईआर 1951 एससी 145 के प्रकरण में कहा गया है अभिकर्ता क को मालिक ख को उधार माल बेचने का अधिकार देता है और वह ग को उसकी शोधन क्षमता की उचित जांच संपादित किए उधार माल बेचता है विक्रय के समय ग दिवालिया है।

    इससे होने वाली हानि के लिए क ख को प्रतिकर देने के लिए दायित्वधीन है क्योंकि यहां पर क ने अपने किसी कौशल का प्रयोग नहीं किया जबकि यदि क अपने किसी कौशल का प्रयोग करते हुए किसी भी दिवालिया को कोई भी माल उधारी पर नहीं बेचता, किसी भी दिवालिया कोई भी ऋण नहीं दिया जाता है।

    जय भारती बनाम नाडा एआईआर 1992 एससी 596 के प्रकरण में कहा गया है कि अभिकर्ता को मालिक का यह निर्देश था कि वह माल क्रय करें, उसने मालिक को सूचना दी कि माल क्रय कर लिया गया है वह परिवहन का पड़ताल होते ही माल भेज दिया जाएगा। वास्तविकता यह थी कि माल क्रय ही नहीं किया गया था। अभिकर्ता मालिक को होने वाली हानि के लिए दायीं ठहराया गया।

    अभिकर्ता का लेखा


    भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 213 अभिकर्ता के एक और कर्तव्य का उल्लेख करती है जिसके अनुसार अभिकर्ता को एक लेखा रखना होगा और अपने मालिक द्वारा मांगे जाने पर उस उचित लेखे को प्रस्तुत करना होगा। यह धारा अभिकर्ता को मालिक को लेखा देने के लिए बाध्य करती है।

    जिस समय भी मालिक किसी लेखे की मांग करता है तो अभिकर्ता का यह कर्तव्य है कि वह उस लेखे को प्रस्तुत कर दे। उसके द्वारा रखे जाने वाला लेखा उचित होना चाहिए स्पष्ट होना चाहिए असंदिग्ध होना चाहिए। अभिकर्ता का यह कर्तव्य है कि वह अपने मालिक की मांग पर मालिक को उचित लेखा प्रदान करें।

    मालिक से संपर्क रखने का अभिकर्ता का कर्तव्य


    भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 214 एक अभिकर्ता को मालिक से निरंतर संपर्क में रहने के लिए बाध्य करती है। इस धारा के अंतर्गत अभिकरण के संदर्भ में मालिक के अधिकार का उस प्रस्तुति में वर्णन किया गया है जबकि अभिकर्ता अभिकरण के कारोबार में मालिक की संपत्ति की बिना अपने ही लेखे से व्यवहार करता है। इसके अनुसार अभिकर्ता को अभिकरण के कारोबार में मालिक की सम्मति के बिना अपने लेखे में कोई संव्यवहार नहीं करना चाहिए।

    इस धारा के अनुसार यदि कोई अभिकर्ता अपने मालिक की सम्मति से अभिप्राप्त किए बिना और उसके उन सब तात्विक परिस्थितियों में से जो उस विषय पर उसके परिज्ञान में आई हो परिचित कराए बिना अभिकरण के कारोबार में अपने ही लेखे व्यवहार करें तो यदि मामले से यह दर्शित हो कि या तो कोई तात्विक तथ्य अभिकर्ता द्वारा बेईमानी से मालिक से छुपाया गया है या अभिकर्ता के व्यवहार मालिक के लिए आहित कर रहे हैं तो ऐसी स्थिति में मालिक उक्त व्यवहार का निराकरण कर सकता है।

    इस धारा के अनुसार एक अभिकर्ता को समय-समय पर विपरीत परिस्थितियों में भी मालिक से संपर्क बनाए रखने के लिए बाध्य किया जाता है। एक अभिकर्ता को किसी भी परिस्थिति में मालिक से संपर्क बनाए रखना होगा।

    मालिक के लिए प्राप्त की गई राशियों का भुगतान करना

    भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 218 अभिकर्ता के कर्तव्य का उस स्थिति में उल्लेख करती है जबकि उसने मालिक के निमित्त कोई राशि अभिप्राप्त की है। इसके अनुसार ऐसी कटौतियों के अधीन अभिकर्ता मालिक की उन सब राशियों को संदाय करने के लिए बाध्य है जो मालिक के लेखे से उसे प्राप्त हुई है अर्थात इस धारा की प्रमुख बातों में अभिकर्ता का यह कर्तव्य है कि वह मालिक के लेखे प्राप्त धनराशियों को वापस कर दे।

    इस धारा के अनुसार वह उस रकम की कटौती कर सकता है जो मालिक द्वारा इसे विधिपूर्ण देय हो।

    इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अभिकर्ता का यह कर्तव्य है कि मालिक के लेखे प्राप्त धनराशियों को मालिक को प्रदान कर दें किंतु उसे इस बात की भी स्वतंत्रता है कि वह उसमें से वह कटौती कर सकता है जो की विधितः उचित हो।

    अभिकर्ता का कर्तव्य है कि वह जो धनराशि मालिक के नाम प्राप्त करता है उसे वह मालिक को वापस कर दें, यदि वह ऐसा नहीं करता है तो मालिक उक्त धनराशि वापस लेने के दायित्वधीन होता है।उस मामले में जहां की कोई अभिकर्ता मालिक की ओर से कोई धन अभिप्राप्त करता है किंतु उसे अपने स्वयं के प्रयोग में लेता है तो ऐसी स्थिति में उक्त धन का स्वयं के लिए विनियोग करना अभिकर्ता का अवैध कृत्य माना गया है और यह अभिनिर्धारित किया गया कि वह धन मालिक उससे वसूल करने के लिए अधिकृत होगा।

    राजेंद्र बनाम नागेंद्र एआईआर 1947 कोलकाता 917 के प्रकरण में कोलकाता उच्च न्यायालय ने विचार व्यक्त किया कि जहां जमीदार के अभिकर्ता ने जमीदार के नाम पर वसूली की किंतु वसूल किया गया धन उस के जमीदार को नहीं दिया उसे स्वयं के लाभ के लिए ले लिया, न्यायालय ने कहा कि जमीदार उक्त धनराशि अभिकर्ता से वसूल कर सकता है क्योंकि जमीदार ने उक्त वसूली स्वयं के लिए की थी।

    अभिकर्ता के अधिकार


    जिस प्रकार भारतीय संविदा अधिनियम के अंतर्गत अभिकरण की संविदा की अवधारणा में एक अभिकर्ता के कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है इसी प्रकार अभिकर्ता के अधिकारों का भी उल्लेख किया गया है। भारतीय संविदा अधिनियम एक अभिकर्ता को भी अधिकार देता है, एक मालिक अभिकर्ता के इन अधिकारों से बंधा हुआ होता है, अभिकर्ता के अधिकारों के संबंध में सार संक्षेप में उल्लेख किया जा रहा है।

    पारिश्रमिक प्राप्त करने का अधिकार-


    भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 219 सर्वप्रथम अभिकर्ता के पारिश्रमिक का उल्लेख करती है। इस धारा के अनुसार अभिकर्ता का सबसे पहला अधिकार है कि वह अपने मालिक से पारिश्रमिक प्राप्त करें। जब अभिकर्ता को सौंपा गया कार्य पूर्ण हो जाता है तब अभिकर्ता उस कार्य के लिए अपने मालिक से पारिश्रमिक प्राप्त करने का हकदार हो जाता है।

    जैसे राम से 1000 वसूल करने के लिए शाम को घनश्याम ने नियोजित किया, श्याम के कपट के कारण धन वसूल नहीं होता है, यहां पर श्याम अपनी सेवाओं के लिए किसी भी पारिश्रमिक का हकदार नहीं है।

    श्री दिग्विजय सीमेंट कंपनी लिमिटेड बनाम स्टेट ट्रेडिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया एआईआर 2006 दिल्ली 276 के वाद में विदेशी क्रेता को प्रदान करने हेतु स्टेट ट्रेडिंग कॉरपोरेशन ने सीमेंट को क्रय करने की संविदा की थी। वादी ने इस कॉर्पोरेशन की तरफ से सीमेंट की पैकेजिंग के लिए क्राफ्ट पेपर आयात किया परंतु कुछ कारणों से विदेशी क्रेता को सीमेंट का प्रदाय नहीं किया जा सका। वादी ने क्राफ्ट पेपर आयात में हुए खर्च को प्राप्त करने के लिए उक्त कॉर्पोरेशन के विरुद्ध वाद दायर किया।

    निर्णय हुआ कि वादी यह खर्च पाने का अधिकारी है क्योंकि भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 219 वादी के पारिश्रमिक को प्राप्त करने के अधिकार का उल्लेख कर रही है।

    मूल रूप में जैसे ही कोई कार्य पूर्ण होता है परिश्रमिक का संदाय किया जाना अपेक्षित हो जाता है। उपरोक्त संदर्भ में कृत्य की पूर्णता एक प्रमुख एवं तात्विक विषय है अर्थात मालिक द्वारा निर्दिष्ट कार्य जैसे ही अभिकर्ता पूरा कर देता है तो वह युक्तियुक्त पारिश्रमिक का हकदार बन जाता है।

    जिनमें अभिकर्ता युक्तियुक्त पारिश्रमिक की मांग करने हेतु अधिकृत हो जाता है,

    उसके द्वारा किया गया कार्य स्पष्ट हो,

    कार्य मालिक के निर्देशानुसार किया गया हो,

    कार्य युक्तियुक्त रूप से किया गया हो,

    कार्य संपूर्ण रूप से किया गया हो,

    इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जब अभिकर्ता कार्य का संपादन युक्तियुक्त रूप में किया है मालिक के निर्देश के अनुसार युक्तियुक्त रूप में किया है और कार्य पूर्णता संपादित किया है न कि आंशिक रूप में तो ऐसी स्थिति में यह कहा जा सकता है कि अभिकर्ता मालिक से युक्तियुक्त रूप से पारिश्रमिक पाने का हकदार होगा अब ऐसी स्थिति में मालिक अभिकर्ता के किसी पारिश्रमिक को नहीं रोक सकता है।

    क्षतिपूर्ति प्राप्त करने का अधिकार-

    कुछ अवस्थाओं में अभिकर्ता अपने को हुई क्षति के लिए मालिक से प्रतिकर प्राप्त करने का हकदार होता है।

    भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 205 के अनुसार जहां किसी अभिकरण का सर्जन एक निश्चित समय अवधि के लिए किया गया है और इसी अवधि के पूर्व ही बिना किसी युक्तियुक्त कारण के उसको रद्द कर दिया जाता है वहां अभिकर्ता अपने मालिक से प्रतिकर प्राप्त करने का हकदार होगा।

    भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 222 के अनुसार जब अभिकर्ता अपने मालिक से प्राप्त निर्देशों के अनुसार कार्य करता है तो वह ऐसे कार्यों के परिणामों के लिए मालिक से क्षतिपूर्ति प्राप्त करने का अधिकारी है।

    इस धारा के अनुसार विधिपूर्ण कार्यों के परिणामों के लिए अभिकर्ता से क्षतिपूर्ति का उपबंध स्पष्ट है। उदाहरण के लिए कोलकाता के ख क के अनुदेशकों के अधीन ग को कुछ माल परिदान करने के लिए ग से ख सिंगापुर में संविदा करता है। ख को क माल नहीं भेजता है और ग संविदा भंग के लिए ख पर वाद लाता है। यहां ख क से प्रतिकार प्राप्त करने का अधिकारी है।

    जहां अभिकर्ता द्वारा कोई नगद भुगतान किया गया हो और उक्त भुगतान अभिकर्ता द्वारा मालिक की ओर से किया गया हो तो ऐसी स्थिति में मालिक अभिकर्ता को क्षतिपूर्ति देने के लिए दायित्वधीन होगा। इस धारा की प्रमुख अनिवार्यता यह है कि अभिकर्ता द्वारा उक्त संव्यवहार अपने प्राधिकार के अंतर्गत संपादित किया गया होना चाहिए।

    धारा 223 भी धारा 222 के समांतर ही है। यह भी अभिकर्ता की क्षतिपूर्ति प्राप्त करने के अधिकार से संबंधित है। यह धारा यह स्पष्ट करती है कि जहां कि एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से कोई कार्य करने के लिए नियोजित करता है वह अभिकर्ता उस कार्य को सद्भाव से करता है। वहां वह नियोजक उस कार्य के परिणामों के लिए अभिकर्ता की क्षतिपूर्ति करने का दायीं है।

    मालिक की उपेक्षा से कारित क्षति के लिए अभिकर्ता को प्रतिकर-

    भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 225 मालिक की उपेक्षा से कारित क्षति के लिए अभिकर्ता को प्रतिकर देने का उपबंध करती है। इसके अनुसार मालिक की उपेक्षा से या उसमें कुशलता की कमी से उसके अभिकर्ता को कारित होने वाली हानि के लिए मालिक अभिकर्ता को प्रतिकर देगा। अभिकर्ता कोई भी ऐसी क्षति को वहन करने के लिए दायित्वधीन नहीं होता है जिस क्षति में उसका कोई योगदान नहीं है।

    जहां पर क्षति मालिक की उपेक्षा से कार्य हो रही है तो ऐसी परिस्थिति में मालिक प्रतिकर देने के लिए कर्तव्यधीन होता है। इस धारा के अनुसार मालिक के ऊपर यह कर्तव्य निरूपित किया गया है कि यदि कारोबार के संचालन में अभिकरण की संविदा के अंतर्गत कोई क्षति उसकी ओर से होती है या उसकी उपेक्षा के कारण होती है तो ऐसी परिस्थिति में मालिक को ही उस क्षति से होने वाली नुकसान की भरपाई करनी होगी।

    सद्भाव से किए गए कार्यों के परिणामों के लिए-

    भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 223 किसी अभिकर्ता को यह अधिकार देती है कि वह अपने प्राधिकार में रहते हुए कोई कार्य सदभावनापूर्वक करता है जो किसी कारोबार के संचालन के लिए आवश्यक हो तो ऐसी परिस्थिति पर वहां वह ऐसे कार्य के परिणामों के लिए मालिक से क्षतिपूर्ति प्राप्त करने का हकदार होता है।

    यहां यह और उल्लेखनीय है कि मालिक अभिकर्ता के आपराधिक कार्यों के लिए दायीं नहीं होता है। अभिकर्ता द्वारा कोई भी आपराधिक कार्य किए जाते हैं तो ऐसे अपराधिक कार्यों के लिए मालिक दायीं नहीं होता है, इसका उल्लेख भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 224 के अंतर्गत किया गया है।

    मालिक की संपत्ति पर धारणाधिकार-

    भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 221 के अनुसार अभिकर्ता को प्राप्त मालिक के माल, कागज पत्र एवं चल तथा अचल संपत्ति को तब तक अपने कब्जे में रखने का अधिकार है जब तक कि उसके कमीशन, वितरण एवं सेवाओं की बाबत शोध रकम का संदाय नहीं कर दिया जाता है।

    इस धारा के अनुसार जहां कोई अभिकर्ता अभिकरण के संव्यवहार में मालिक के लेखे प्राप्त उन समस्त धनराशियों का जो उसे उक्त प्रकार के संव्यवहार के संचालन में उसके द्वारा दिए गए अग्रिम धनराशिओं का यथोचित रूप से अवगत वालों के लिए उसको शोध्य हो और ऐसा परिश्रमिक का भी जो ऐसे अभिकर्ता के तौर पर कार्य करने के लिए उसे देय हो प्रतिधारण कर सकेगा।

    वह मालिक के लेखे प्राप्त राशियों की बाबत निम्नलिखित के संदर्भ में धारणाधिकार का प्रयोग कर सकता है-

    अग्रिम के संदर्भ में-

    उचित रूप में उपगत व्ययों के लिए-

    युक्तियुक्त पारिश्रमिक के लिए-

    अभिकर्ता को यह पूर्ण अधिकार प्राप्त है कि वह युक्तियुक्त अग्रिमओं के संदर्भ में धारणाधिकार का प्रयोग कर सकता है।

    शुभा पिलाई बनाम रामास्वामी अय्यर 1903 मद्रास 512 के प्रकरण में कहा गया है कि अभिकर्ता द्वारा उस स्थिति में धारणाधिकार का प्रयोग किया जाना न्यायोचित माना गया जबकि उसे उन खर्चों का संदाय नहीं किया गया था जो उसके द्वारा किए गए थे। अभिकर्ता को वह खर्च नहीं दिए गए मालिक के द्वारा जो अभिकर्ता ने किसी कारोबार के संचालन में खर्च किए हैं तो ऐसी परिस्थिति में अभिकर्ता मालिक की संपत्ति पर धारणाधिकार का प्रयोग कर सकता है। वह संपत्ति पर कब्जा उस स्थिति तक नहीं छोड़ेगा जब तक के उसके पारिश्रमिक का भुगतान नहीं कर दिया जाता है।

    अभिकर्ता अधिकरण के कारोबार में मालिक के लेकर प्राप्त राशियों में से उन सब व्ययों का जो उसे कारोबार के संचालन में उसके द्वारा दिए गए अग्रिम या और पारिश्रमिक का भी जो ऐसे अभिकर्ता के तौर पर कार्य करने के लिए उसे देय रहे हो प्रतिधारण कर सकता है और मालिक के लेखे धन राशियों में से इनकी कटौती कर सकता है परंतु ऐसी कटौती के बाद शेष धनराशि को देने के लिए बाध्य है।

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