क्या एक नाबालिग को आवश्यकताओं की आपूर्ति करने वाला व्यक्ति प्रतिपूर्ति पाने का हकदार है? जानिए क्या कहता है कानून
SPARSH UPADHYAY
27 Nov 2019 7:59 AM IST
जैसा कि हमने पिछले लेख अर्ध-संविदा क्या होती है एवं अनुचित सम्पन्नता के सिद्धांत का इससे क्या है संबंध? में जाना है कि 'अर्ध-संविदा' (Quasi Contract) एक ऐसी स्थिति है, जो पक्षों पर कानून के अनुसार दायित्वों या अधिकारों को लागू करती है, न कि पक्षों द्वारा तय संविदा की शर्तों के अनुसार। इसके अंतर्गत अदालत द्वारा एक पक्ष के दूसरे व्यक्ति के प्रति दायित्व का निर्धारण किया जाता है, जहां पक्षों के बीच कोई वास्तविक संविदा मौजूद नहीं है।
यह पार्टियों के आचरण, आपसी संबंध और इस संभावना पर आधारित है कि एक व्यक्ति को हुए नुकसान की कीमत पर किसी दूसरे व्यक्ति को अनुचित लाभ प्राप्त हो सकता है और जिसे होने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। कानूनी शब्दों में, एक 'अर्ध-संविदा', एक औपचारिक/सामान्य संविदा का गठन नहीं करती है, लेकिन इसे एक कानूनी उपाय की तरह समझा जा सकता है, जिससे एक पक्ष के साथ हुए अन्याय (किसी अन्य पक्ष द्वारा इरादतन या संयोग वश) को ठीक किया जा सके।
हालांकि भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 एक 'अर्ध-संविदा' को परिभाषित नहीं करता है, परन्तु यह इसे मूल संविदाओं से मिलता-जुलता (OF CERTAIN RELATIONS RESEMBLING THOSE CREATED BY CONTRACT) हुआ घोषित करता है। अधिनियम की धारा 68-72 में अर्ध-संविदा के कुछ मामले दिए गए हैं, मौजूदा लेख में हम सिर्फ धारा 68 पर चर्चा करेंगे।
संविदा करने में असमर्थ व्यक्ति को या उसके लेखे प्रदाय की गई आवश्यक वस्तुओं के लिए दावा
धारा 68 - यदि किसी ऐसे व्यक्ति को, जो संविदा करने में असमर्थ है या किसी ऐसे व्यक्ति को जिसके पालन-पोषण के लिए वह वैध रूप से आबद्ध हो, जीवन में उसकी स्थिति के योग्य आवश्यक वस्तुएँ किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रदाय की जाती हैं तो वह व्यक्ति जिसने, ऐसे प्रदाय किये हैं, ऐसे असमर्थ व्यक्ति की सम्पत्ति से प्रतिपूर्ति पाने का हकदार है।
ऐसे व्यक्ति (या उसपर निर्भर व्यक्तियों) को, जो स्वयं संविदा करने में सक्षम नहीं है, यदि आवश्यक वस्तुएं/सेवाएं या अन्य आवश्यकताएं उपलब्ध करायी जाती हैं, तो आपूर्ति-कर्ता (Supplier) उसके सापेक्ष प्रतिपूर्ति (Reimbursement) पाने का अधिकारी होता है। दूसरे शब्दों में, यदि किसी व्यक्ति द्वारा किसी अन्य को, जो स्वयं संविदा करने में सक्षम नहीं, उसकी यथोचित जरूरतों के मुताबिक आवश्यकताएं उपलब्ध करायी जाती हैं, तो ऐसा व्यक्ति उस आपूर्ति को वसूलने का हक़दार है। यह इसलिए भी जरुरी है कि किसी व्यक्ति को, किसी अन्य व्यक्ति को हुए नुकसान की कीमत पर लाभ लेने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए (अनुचित सम्पन्नता का सिद्धांत)।
गौरतलब है की एक नाबालिग, एक पागल, एक पागल की पत्नी या उसकी नाबालिग बेटी, या कोई अन्य व्यक्ति जिसे कानून द्वारा, जिसके वह अधीन है, संविदा करने से अयोग्य घोषित किया गया है, उसके सम्बन्ध में यह प्रावधान लागू होता है। उदाहरण के लिए, जैसा कि हम जानते हैं कि एक विवाहित महिला को कानूनी रूप से अपने पति से पालन-पोषण/रखरखाव भत्ता प्राप्त करने का अधिकार है। यदि किसी व्यक्ति द्वारा उसे (पत्नी को), उसके लिए आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति की जाती है, तो ऐसे आपूर्ति-कर्ता व्यक्ति को प्रतिपूर्ति का अधिकार है और यह प्रतिपूर्ति, असमर्थ/अक्षम व्यक्ति की संपत्ति से प्राप्त की जाएगी।
किस व्यक्ति के लिए क्या वस्तुएं/सेवाएं या अन्य मूर्त/अमूर्त आवश्यकताएं जरुरी हैं, यह प्रत्येक मामले में तथ्य और कानून का मिश्रित प्रश्न होता है। अक्षम (एवं अक्षम व्यक्ति पर निर्भर) पक्षों के अनुकूल चीजें, 'आवश्यकता' के रूप में वर्गीकृत की जा सकती हैं। आवश्यकताओं में उन वस्तुओं/सेवाओं या अन्य आवश्यकताओं को शामिल किया जा सकता है, जो उस व्यक्ति के जीवन स्थिति एवं स्तर, जिसमे वह है, उसे बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं। इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि ऐसी आवश्यकताएं, व्यक्ति की स्थिति पर एवं जब उस वस्तु की आपूर्ति की गयी, उस समय उस व्यक्ति की क्या जरूरतें थीं, उसपर निर्भर करती हैं - चैपल बनाम कूपर (1844 13M&W 252)।
आवश्यकताएं वे हैं, जिनके बिना कोई व्यक्ति यथोचित रूप से अस्तित्व में नहीं रह सकता है। उदाहरण के लिए, एक डिक्री के निष्पादन में उसकी संपत्ति को बिक्री से बचाने के लिए एक नाबालिग को ऋण दिया जाना, एक 'आवश्यकता' है। एक नाबालिग के पिता के अंतिम संस्कार के दायित्वों के लिए दिया गया ऋण, एक 'आवश्यकता' है। एक नाबालिग को पढाई जारी रखने के लिए किराये पर घर दिया जाना, एक 'आवश्यकता' है।
भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 68 लागू होने के लिए यह महत्वपूर्ण है कि:-
* आवश्यकताओं की आपूर्ति की गयी हो
* या तो एक ऐसे व्यक्ति को, जो स्वयं संविदा करने में अक्षम हो
* या ऐसे व्यक्ति को, जो संविदा करने में अक्षम व्यक्ति के ऊपर निर्भर हो (कानूनी रूप से)
* आवश्यकताएं, व्यक्ति के जीवन स्तर के मुताबिक जरुरी हों
नाबालिग का मामला
जैसा कि हमने जाना कि नाबालिग द्वारा किया गया करार शून्य (Void) होता है। इसके अलावा मोहिरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष 1903 30 Cal 539 के निर्णय में प्रिवी काउंसिल ने यह माना था कि एक नाबालिग का करार, void ab initio (आरंभतः शून्य) है, अर्थात एक ऐसा करार जो शुरुआत से ही शून्य है। इस निर्णय के बाद से यह साफ़ है कि कानून की नजर में ऐसे करार का कोई मूल्य नहीं होता है।
हालाँकि, भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 68 के अनुसार यह साफ़ है कि यदि एक नाबालिग को आवश्यकताओं की आपूर्ति की जाती है तो आपूर्ति-कर्ता (Supplier), प्रतिपूर्ती (Reimbursement) पाने का अधिकार रखता है। हमे यह समझना होगा कि प्रतिपूर्ति पाने का अधिकार, आपूर्ति-कर्ता एवं नाबालिग के बीच हुए किसी वैध समझौते के चलते उत्पन्न नहीं होता है, बल्कि आपूर्ति-कर्ता को यह अधिकार इसलिए दिया जाता है, क्यूंकि कानून ऐसे व्यवहार (आवश्यकताओं की आपूर्ति) को एक अर्ध-संविदात्मक व्यवहार (Quasi Contractual Transaction) समझता है। हालाँकि, प्रतिपूर्ति के लिए एक नाबालिग स्वयं जिम्मेदार नहीं होगा, बल्कि उसकी संपत्ति से, यदि अस्तित्व में है तो, हुए नुकसान की प्रतिपूर्ति की जाएगी।
ऐसे मामलों में नाबालिग की सहमती (Consent) की कोई आवश्यकता नहीं होती है। हालाँकि, एक नाबालिग की संपत्ति से प्रतिपूर्ति का अधिकार इसलिए उत्पन्न होता है क्यूंकि ऐसे नाबालिग को आवश्यकताओं की आपूर्ति की गयी है और इस संव्यवहार में अर्ध-संविदात्मक दायित्व उत्पन्न होता है। इसके पीछे का मुख्य आधार, कानून द्वारा ऐसे नाबालिग पर डाली गयी वह देयता (Liability) है कि उसे प्रदान की गयी आवश्यकताओं के लिए वह आपूर्ति-कर्ता को उचित प्रतिपूर्ति दे। गौरतलब है कि यह देयता व्यक्तिगत न होकर, नाबालिग की संपत्ति से सम्बंधित होती है।
जैसा कि नैश बनाम इन्मन (1908) 2 KB 1 के मामले में प्रतिपादित किया गया है कि, नाबालिग की संपत्ति से प्रतिपूर्ति वसूलने के लिए आपूर्ति-कर्ता को यह साबित करना होगा कि,
1- प्रदान की गयी आवश्यकता, उस नाबालिग के लिए यथोचित रूप से आवश्यक थी
2- उस नाबालिग के पास आपूर्ति के वक़्त, पहले से वह वस्तु/सेवा या आवश्यकता की उपलब्धता नहीं थी
इसी मामले में एक नाबालिग को बड़ी संख्या में तमाम प्रकार के कपड़े सप्लाई किये गए थे, इन कपड़ों में फैंसी कोट भी थे, अदालत ने इसे नाबालिग के लिए आवश्यकताओं की सप्लाई का मामला नहीं माना था।
एक नाबालिग, एक वयस्क के खिलाफ तो एक संविदा को लागू कर सकता है, लेकिन वह इन्फैन्सी प्लीड करके स्वयं को संविदात्मक दायित्वों से बचा सकता है। हालाँकि, जब ऐसे नाबालिग को, आवश्यकताओं की आपूर्ति की जाती है, तो ऐसे अर्ध-संविदात्मक मामले में उसे उत्तरदायी ठहराया जाता है। हम यह भी जानते हैं कि भारत में एक नाबालिग की देयता, व्यक्तिगत नहीं है। गौरतलब है कि एक अर्ध-संविदात्मक मामले में, जहाँ एक पक्ष ने दूसरे पक्ष को, ऊपर बताई गयी परिस्थितियों में आवश्यकताओं की आपूर्ति की है, वहां दोनों पक्षों के हितों को बचाने के लिए संविदा करने में अक्षम व्यक्ति की देयता उसकी संपत्ति से सुनिश्चित की जाती है।