लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 भाग 8: गुरुतर लैंगिक हमले की परिभाषा

Shadab Salim

24 Jun 2022 2:55 PM IST

  • लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 भाग 8: गुरुतर लैंगिक हमले की परिभाषा

    लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (The Protection Of Children From Sexual Offences Act, 2012) धारा 5 गुरुतर लैंगिक हमले की परिभाषा प्रस्तुत करती है। जैसे धारा तीन लैंगिक हमले को परिभाषित करती है इस ही तरह धारा 5 गुरुतर लैंगिक हमले की परिभाषा देती है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि गुरुतर अर्थात बड़ा।

    अगर कोई किसी विश्वास के पद पर रहते हुए किसी बालक के साथ लैंगिक हमला करता है तो इसे गुरुतर लैंगिक हमला माना गया है। जैसे एक पुलिस अधिकारी पद पर रहते हुए अगर लैंगिक हमला करेगा तो यह गुरुतर लैंगिक हमला होगा। इस आलेख में धारा 5 पर प्रकाश डाला जा रहा है।

    एक मामले में कहा गया है कि तीन वर्ष की लड़की की योनि में अंगुली डालना, जो चिकित्सीय साक्ष्य के द्वारा समर्पित है इसमें कोई संदेह नहीं छोड़ता है कि गुरुतर लैंगिक हमले के अपराध के आवश्यक तत्व पूर्ण रूप में साबित होते है। बलात्संग अथवा प्रवेशन लैगिक हमले के अपराध के लिए पूर्ण प्रवेशन अपरिहार्य नहीं होता है। किसी भी रूप में प्रवेशन ऐसे अपराधों के आवश्यक तत्वों को करने के लिए पर्याप्त होता है।

    पुलिस थाना का लक्ष्यार्थ

    पुलिस थाना" का तात्पर्य ऐसी कोई चौकी अथवा स्थान है, जिसे राज्य सरकार के द्वारा सामान्यतः अथवा विशेष रूप में पुलिस थाना होना घोषित किया गया हो और इसमें इस निमित्त राज्य सरकार के द्वारा विनिर्दिष्ट कोई स्थानीय क्षेत्र शामिल है।

    राज्य सरकार अथवा उच्चतर सक्षम पुलिस अधिकारी के निर्देश पर विशेष अपराध के के प्रयोजन के लिए अभिलेख पर प्रस्तुत की गयी उपरोक्त प्रश्नास्पद सामग्री सीआईडीसीओडी की स्थिति को धारा 2 (ध) के अर्थ के अन्तर्गत 'पुलिस थाना होना बनाती है और यह कि उप-निरीक्षक की श्रेणी तथा उससे उच्चतर इस संगठन से संलग्न प्रत्येक पुलिस अधिकारी दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (1) के अर्थ के अन्तर्गत पुलिस थाना का भारसाधक अधिकारी होता है।

    इसलिए अन्वेषण अधिकारी के धारा 2 (घ) और 156 के अर्थ के अन्तर्गत पुलिस थाना के भारसाधक अधिकारी के रूप में कार्य करने और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 के अधीन आरोप-पत्र प्रस्तुत करने में परिणामित उसके द्वारा किए ये अन्वेषण में कोई त्रुटि नहीं है।

    पुलिस थाना के भारसाधक अधिकारी की अनुपस्थिति

    पुलिस थाना का भारसाधक अधिकारी में, जब पुलिस थाना का भारसाधक अधिकारी पुलिस थाना से अनुपस्थित हो अथवा बीमारी अथवा अन्य कारण से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में असमर्थ हो, तब पुलिस थाना में उपस्थित पुलिस अधिकारी जो ऐसे अधिकारी से श्रेणी में अगला हो तथा कांस्टेबिल की श्रेणी से ऊपर हो अथवा जब राज्य सरकार इस प्रकार निर्देशित करती है, इस प्रकार प्रस्तुत कोई अन्य पुलिस अधिकारी शामिल होता है।

    पद "पुलिस अधिकारी" साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 के अन्तर्गत विभिन्न राज्य में विभिन्न पुलिस अधिनियम पुलिस अधिकारियों पर विशेष शक्ति प्रदत्त करते हैं और विशेष कर्तव्य अधिरोपित करते हैं। केन्द्रीय रिवर्ज पुलिस बल के सदस्य को वे विशेष शक्तिया अथवा कर्तव्य तब तक प्राप्त नहीं होंगे, जब तक वे विशेष रिजर्व पुलिस बल अधिनियम, 1949 की धारा 16 के अधीन उस पर प्रदत्त अथवा अधिरोपित न की गयी हो, परन्तु मात्र इस कारण से कि विशेष शक्तिया अथवा कर्तव्य केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के सदस्यों पर प्रदत्त अथवा अधिरोपित नहीं की गयी इसका तात्पर्य यह नहीं होगा कि वे साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 के अर्थ के अन्तर्गत पुलिस अधिकारी नहीं होते हैं।

    अब यह सुनिश्चित विधि है कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 मे पद पुलिस अधिकारी को तकनीकी अर्थ में नही पढ़ा जाना है, परन्तु उसके अधिक व्यापक और चर्चित अर्थ के अनुसार पढ़ा जाना है। लेकिन, शब्दों का ऐसे व्यापक अर्थ में अर्थान्वयन नहीं किया जाना है, जिससे कि इसमें ऐसे व्यक्तियों को शामिल किया जा सके, जिस पर पुलिस के द्वारा प्रयोग की जाने वाली केवल कुछ शक्तिया प्रदत्त की गयी हो।

    शब्द "लोक सेवक" का अर्थ

    शब्द लोक सेवक का तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है, जो इस समय सेवा में, जब न्यायालय से अपराध का संज्ञान लेने के लिए कहा गया हो।

    बलात्संग के अपराध से सम्बन्धित विधि में परिवर्तन के लिए प्रेरणा विख्यात मथुरा वाद जहाँ पीडिता मथुरा नामक जनजातीय लड़की थी ने बलात्संग के अपराध से सम्बन्धित विधि में परिवर्तन के लिए प्रभावित किया था। वर्तमान वाद में एक युवा लड़की के साथ पुलिस थाना में बलात्संग किए जाने का अभिकथन किया गया था। उसे स्वयं उसके भाई के द्वारा परिवाद पर उसके पति के साथ रात में पूछताछ के लिए बुलाया गया था। पूछताछ के पश्चात पुलिस कांस्टेबिल पीड़िता को शौचालय में ले गया था और उसके साथ बलात्संग कारित किया था।

    परिवाद दर्ज कराया गया और घटना के बीस घण्टे पश्चात चिकित्सीय जांच की गयी थी। चिकित्सीय जांच यह प्रकट करती थी कि उसके शरीर पर कोई क्षति नहीं थी और यह कि उसका योनिच्छद पुराने फटाव को प्रदर्शित करती थी लेकिन लड़की और अभियुक्त के कपड़ों पर वीर्य पाए गये थे। डॉक्टर ने लड़की की आयु 15 से 16 वर्ष के बीच होना आकलित किया था। यह अभिनिर्धारित किया गया था कि प्रश्नगत लैंगिक समागम साबित नहीं हुआ था। परन्तु मामले से अप्रत्याशित मात्रा में विरोध हुआ था, जिसने बलात्संग की विधि में परिवर्तन को अग्रसर किया था। यह लोगों के द्वारा प्राधिकार में अभिरक्षीय बलात्संग को मान्यता प्रदान करता है और बलात्संग की विशेष प्रजाति को गठित करता है।

    अभिरक्षीय बलात्संग के प्रकार जब बलात्संग लोक सेवक, जेल अधीक्षक तथा प्रतिप्रेषण गृह आदि के द्वारा अपनी अभिरक्षा में महिला के साथ अथवा प्रबन्ध के किसी सदस्य अथवा अस्पताल के स्टॉफ के द्वारा उसे अस्पताल में किसी महिला के साथ कारित किया जाता है तब बलात्संग के ऐसे प्रकारों को अभिरक्षीय बलात्संग कहा जाता है। भारतीय दण्ड संहिता 1860 की धारा 376-ग, जो प्राधिकार में किसी व्यक्ति के द्वारा लैंगिक समागम के लिए प्रावधान करती है, निम्न प्रकार से पठित है-

    376-ग प्राधिकार में किसी व्यक्ति द्वारा मैथुन जो कोई

    (क) प्राधिकार की किसी स्थिति या वैश्वासिक संबंध रखते हुए या

    (ख) कोई लोक सेवक होते हुए, या

    (ग) तत्समय प्रवृत्त किसी विधि द्वारा या उसके अधीन स्थापित किसी जेल. प्रतिप्रेषण गृह या अभिरक्षा के अन्य स्थान का या स्त्रियों या बालकों की किसी संस्था का अधीक्षक या प्रबंधक होते हुए, या

    (घ) अस्पताल के प्रबंधतंत्र या किसी अस्पताल का कर्मचारिवृंद होते हुए,

    ऐसी किसी स्त्री को जो उसकी अभिरक्षा में है या उसके भारसाधन के अधीन है या परिसर मे उपस्थित है, अपने साथ मैथुन करने हेतु जो बलात्संग के अपराध की कोटि में नही आता है उत्प्रेरित या विलुब्ध करने के लिए ऐसी स्थिति या वैश्वासिक संबंध का दुरुपयोग करेगा वह दोनों में से किसी भाति के कठोर कारावास से, जो पाच वर्ष से कम का नहीं किन्तु जो दस वर्ष तक का हो सकेगा. दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा।

    स्पष्टीकरण/- इस धारा में मैथुन से धारा 375 के खंड (क) से खंड (घ) में वर्णित कोई कृत्य अभिप्रेत होगा।

    स्पष्टीकरण 2-इस धारा के प्रयोजनों के लिए धारा 375 का स्पष्टीकरण भी लागू होगा।

    स्पष्टीकरण 3―किसी जेल प्रतिप्रेषण गृह या अभिरक्षा के अन्य स्थान या स्त्रियो या बालको की किसी संस्था के संबंध में अधीक्षक के अंतर्गत कोई ऐसा व्यक्ति है, जो जेल. प्रतिप्रेषण गृह स्थान या संस्था में ऐसा कोई पद धारण करता है जिसके आधार पर वह उसके निवासियों पर किसी प्राधिकार या नियंत्रण का प्रयोग कर सकता है।

    स्पष्टीकरण 4-अस्पताल और स्त्रियों या बालको की संस्था पदों का क्रमशः वही अर्थ होगा जो धारा 376 की उपधारा (2) के स्पष्टीकरण में उनका है।

    ओकार प्रसाद वर्मा बनाम मध्य प्रदेश राज्य एआईआर 2007 एससी 1381 कारित बलात्संग दोषसिद्धि उचित नहीं यह अभिकथन किया गया था कि एक सरकारी स्कूल के अध्यापक ने विद्यार्थी के साथ बलात्संग कारित किया था। अध्यापक यद्यपि लोक सेवक था फिर भी विद्यार्थी को उसकी अभिरक्षा में होना नहीं कहा जा सकता है। यदि विद्यार्थी और अध्यापक प्रेम में हो, तब अध्यापक को अपनी स्थिति का असम्यक लाभ लेने के लिए नहीं कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त जब अपराध स्कूल के बाहर कारित किया गया था तब अध्यापक की दोषसिद्धि उचित नहीं थी।

    लैंगिक भावना को संतुष्ट करना अभियुक्त ने अपने लैंगिक भावना को संतुष्ट करने के लिए कृत्य कारित किया था, जिसका अन्वेषण अधिकारी के रूप में उसके कर्तव्यों के निर्वहन से कोई सम्बन्ध नहीं था। अन्यथा भी मंजूरी के अभाव के बारे में उसके द्वारा विचारण के दौरान आपत्ति उठायी गयी थी। वह उसे अपील में नहीं उठा सकता था।

    अभिरक्षीय बलात्संग का दण्डादेश अभिरक्षीय बलात्संग के मामलों में जब एक बार अभियुक्त के द्वारा लैंगिक समागम साबित हो गया हो अथवा महिला यह साक्ष्य देती है कि उसने सम्मति प्रदान नहीं किया था, तब न्यायालय यह उपधारणा करेगा कि उसने सम्मति प्रदान नहीं किया था।

    अभिरक्षीय बलात्संग में अभियोक्त्री के अभिसाक्ष्य को संपुष्ट करने के लिए किसी अन्य स्वतंत्र साक्षी को प्राप्त करना बहुत कठिन होता है। जब अभिरक्षा में व्यक्ति युवा लड़की पर बलात्संग का ऐसा गम्भीर अपराध कारित करता है, तब सहानुभूति अथवा दया की कोई गुंजाइश नहीं होती है। ऐसे मामलों में दण्ड उदाहरणात्मक होना चाहिए। पांच वर्ष के कठोर कारावास और 1,000 रुपये के जुर्माने के दण्डादेश को उचित होना अभिनिर्धारित किया गया।

    इस वाद में अभियुक्तगण कांस्टेबिल और व्यवसायी थे, जो एक के पश्चात् एक विवाहित श्रमिक के साथ बलात्संग कारित किए थे मिथ्या फसाव के मात्र अभिकथन का कोई महत्व नहीं होता है।

    युद्ध के समय बलात्संग की हिंसा का प्ररूप युद्ध के समय बलात्संग ऐसे हिंसा के प्ररूपों में से एक है, जो युद्ध के समय के दौरान महिलाओं तथा युवा लड़कियों के विरुद्ध व्यापक रूप में प्रयोग किया जाता है। महिलाओं के विरुद्ध हिंसा पर वर्ष 1995 में मैड्रिड में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन ने युद्ध के समय में महिलाओं के विरुद्ध अपराधों को युद्ध अपराध के रूप में वर्गीकृत कराने का प्रयत्न किया था। युगोस्लाविया में युद्ध के दौरान हजारों महिलाओं के साथ नियोजित सेना की रणनीति के भाग के रूप में बलात्संग कारित किया गया था।

    अनेक युद्ध के समय बलात्संग की पीड़िताओं ने अपने पतियों तथा परिवारों से पारिणामिक नामंजूरी को झेला था। युगाण्डा में सैनिकों ने विद्रोहियों की तलाश में ग्रामीणों की स्क्रिनिंग करते समय महिलाओं तथा लड़कियों के साथ बलात्संग कारित किया था और फिलिपींस में महिलाओं के समूह ने सेना के प्रवर्तन के दौरान महिलाओं के बलात्संग और लैगिक दुरुपयोग के अनेक मामलों को अभिलिखित किया था।

    राज्य बनाम निराकार पाणिग्राही 2003 कि लॉ ज 4391 (उड़ीसा) अभिकचित रूप में कारित बलात्संग अपील की लंबित रहने के दौरान जन प्रकथन के अनुसार दो अभियुक्त अभियोक्त्री के घर में घुसे थे और उनमें से एक ने उसके साथ बलात्संग कारित किया था। अभियुक्त जिसने अभिकथित रूप में बलात्संग कारित किया था की अपील की लम्बितता के दौरान मृत्यु हो गयी थी। अन्य अभियुक्त के विरुद्ध बलात्संग कारित करने का कोई अभिकथन नहीं था, न तो अतिचार के अपराध के सम्बन्ध में उसके विरुद्ध कोई साक्ष्य था। अन्य अभियुक्त की दोषमुक्ति उचित अभिनिर्धारित की गयी।

    थाम्बी नासिर बनाम राज्य, 2003 कि लॉ ज 493 (बम्बई ) यह अभिकथन किया गया था कि पीड़िता-विदेशी व्यक्ति निवास के अपने तत्सम्बन्धी स्थानों पर वापस लौट रही थी, उस समय अभियुक्तगण घात लगा करके बैठे हुए थे और उनके द्वारा उनके सामानों को लूट लिया गया था तथा इसके पश्चात् दोनों पीड़िताओं के साथ बलात्संग कारित किया गया था। उन पीड़िताओं, जिनके साथ बलात्संग कारित किया था, का अभिसाक्ष्य चिकित्सीय साक्ष्य के द्वारा संपुष्ट था।

    पीड़िताओं का साक्ष्य यह था कि अभियुक्त उनके शरीरों पर टार्च की लाइट जला रहे थे, जिसके कारण वे उन व्यक्तियों को नहीं पहचान सकी थीं, जो उनके साथ बलात्संग कारित किए थे। पीड़िताओं से सम्बन्धित वस्तुओं को अपराध कारित करने के ठीक पश्चात् अभियुक्तों से बरामद किया गया था। यद्यपि पहचान परीक्षण परेड के साक्ष्य को विधिक शैथिल्यताओं के कारण नामंजूर कर दिया गया था। परन्तु न्यायालय में अभियुक्तों की पहचान उनके कब्जे से विभिन्न वस्तुओं की बरामदगी के सम्बन्ध में परिस्थितिजन्य साक्ष्य के द्वारा पर्याप्त रूप में संपुष्ट हुई है। अभियुक्तों की दोषसिद्धि को उचित अभिनिर्धारित किया गया था।

    कर्नाटक राज्य बनाम नायक, एआईआर 1992 एससी 2043 के मामले में बलात्संग के पश्चात् आत्महत्या कारित करना वर्तमान मामले में अभिलेख पर ऐसा कोई विधिक साक्ष्य नहीं है कि अभियोक्त्री ने कथन करने पर अथवा करते समय अभिकथित रूप में उस अपमान, जो उसके शरीर पर बलात्संग कारित करके किया गया था, के कारण अभिकथित रूप में आत्महत्या कारित करने के अपने विचार को प्रकट की थी। अभियोजन साक्ष्य भी मृतका की मृत्यु का कारण प्रकट नहीं करता है।

    उसके कथन में कथित परिस्थितियां यह सुझाव नहीं देती है कि ऐसा कथन करने वाला व्यक्ति सामान्य परिस्थितियों के अधीन साढ़े पांच महीने से भी अधिक समय पश्चात् आत्महत्या कारित कर लेगा। इसलिए उच्च न्यायालय यह अभिनिर्धारित करते हुए उसके कथन पर मृत्युकालिक घोषणा के रूप में विश्वास व्यक्त करने में न्यायसंगत नहीं था कि उक्त कथन उस सव्यवहार की परिस्थितियों की श्रृंखला में जो घटना के साढ़े पांच महीने के पश्चात् मृतका की मृत्यु में परिणामित हुआ था।

    अन्य परिस्थितियों, जैसे प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में विलम्ब अभियोक्त्री की चिकित्सीय जांच, तात्विक साक्षियों की अपरीक्षा और साक्षियों का विद्रोही हो जाने और यह कि घटना, जो स्कूल में 9 जुलाई को घटित हुई थी. के पश्चात् अभियोक्त्री को 10 तथा 11 जुलाई को भली-भांति स्कूल में उपस्थित होना दर्शाया गया है और अभियोक्त्री ने तीन दिन पश्चात् घटना के बारे में अपने माता-पिता को बताया था, की दृष्टि में यह कहा जा सकता है कि अभियोजन युक्तियुक्त संदेह से परे यह साबित करने में विफल हुआ है कि अपीलार्थीगण अभियोक्त्री के साथ बलपूर्वक लैंगिक समागम कारित किए थे।

    अपीलार्थीगण को मात्र संदेह पर दोषसिद्ध तथा दण्डादेशित कोई 18 वर्षीय नायक लगभग 2:10 बजे अपरान्ह सदोष रूप में पीड़िता एक 15 वर्षीय लड़की को अवरूद्ध किया था उसे जगत में ले गया था और उसकी सम्मति के बिना तथा बलपूर्वक उसके साथ बलात्संग कारित किया था। इसके पश्चात् लड़की ने आत्महत्या कारित लिया था। चिकित्सीय साक्ष्य यह था लड़की का योनिच्छद अविकल था कोई रक्तस्त्राव कर अथवा सूखे रक्त का चिन्ह नहीं देखा गया था। कोई निःस्त्राव नहीं देखा गया था। भगाजलि अविकल थी।

    कोई सूजन नहीं थी डॉक्टर जिसने अभियुक्त की जाच किया था यह कहा थालिंग पर कोई रक्त का पन्ना अथवा कोई बाल नहीं देखा गया था। जननाग के बाल विकसित नहीं हुए थे। पिछली -चौथाई प्रथियों के मात्रा थी। मौखिक अभिसाक्ष्य स्पष्ट रूप में यह डोरसल भाग पर कुछ तरल पदार्थ की था कि लड़को के साथ बलात्संग कारित किया गया था। अभियुक्त को विचारण न्यायालय के द्वारा बलात्संग के आरोप पर दोषमुक्त किया गया था और इस दोषमुक्ति को उच्च न्यायालय के द्वारा संपुष्ट किया गया था।

    दोषमुक्ति प्रदान करने का मुख्य आधार जांच के लिए पीड़िता की अनुपलब्धता थी को उच्चतम न्यायालय ने सही तौर पर यह प्रश्न पूछा था क्या बलात्संग के अभियोजन मामले पीड़िता की उसकी मृत्यु के कारण जाच के लिए अनुपलब्धता के कारण नामंजूर किया जाना चाहिए ? उच्चतम न्यायालय ने साक्ष्य का विश्लेषण करने के पश्चात् यह विचार अपनाया था कि यदि वास्तविक बलात्संग साबित न हुआ हो, फिर भी केवल बलात्संग का प्रयत्न साबित किया गया हो, तब न्यायालय ने यह पुनर्वाचन किया था कि यह अभियुक्त की दोषमुक्ति का कोई आधार नहीं है, यदि पीड़िता की मृत्यु हो गयी हो दोषसिद्धि उपलब्ध साक्ष्य के निर्धारण पर की जा सकती है। साक्ष्य के निर्धारण तथा मूल्याकन पर न्यायालय ने यह पाया कि अभियुक्त ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 सपठित धारा 511 के अधीन अपराध कारित किया था और उसे 5 वर्ष का कठोर कारावास भुगतने के लिए दण्डादेशित किया था।

    कोक्किलिगड्डा वीरास्वामी बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य 2005 क्रि लॉ ज 869 के प्रकरण में बलात्संग के अपराध का दोषी यह कहा गया है कि चूंकि अभियुक्त कोई अन्य व्यक्ति नहीं था, वरन उसके मामा का पुत्र था उसने मृतका से भोजन प्रदान करने का निवेदन किया था। जब वह भोजन प्रदान करने वाली थी तब अभियुक्त ने उसके साथ बलात्संग कारित किया था। मृतका के पास अभियुक्त को मिथ्या रूप में फंसाने के लिए कोई अन्य कारण नहीं था। मृतका के पास अभियुक्त के विरुद्ध उसे जो इस प्रकृति के मामले में उससे घनिष्ठ रूप में सम्बन्धित था।

    फंसाने के लिए कोई सशक्त हेतुक अथवा कुदृष्टि होनी चाहिए। परन्तु मृतका के लिए अभियुक्त को मिथ्या रूप में फंसाने के लिए कोई ऐसी कुदृष्टि अथवा हेतुक नहीं है। विचारण न्यायालय के साथ ही साथ अपीलीय न्यायालय अभिलेख पर साक्ष्य के ब्यौरेवार विचारण के पश्चात् प्रदर्श पी-14 और पी-17 जो मृतका के द्वारा किए गये वास्तविक तथा स्वैच्छिक कथन है, पर विश्वास व्यक्त किया और अभियुक्त को बलात्संग के अपराध का तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 306 के अधीन भी दोषी पाया।

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