राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 (NSA) भाग: 3 अधिनियम के महत्वपूर्ण प्रावधान

Shadab Salim

20 Nov 2021 4:00 AM GMT

  • राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 (NSA) भाग: 3 अधिनियम के महत्वपूर्ण प्रावधान

    राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (National Security Act) की धारा 3 के अंतर्गत व्यक्तियों के विरुद्ध निरोध का आदेश बनाने की शक्ति दी गई है। इस अधिनियम के अंतर्गत धारा 3 के अतिरिक्त कुछ और महत्वपूर्ण धाराएं हैं जो इस अधिनियम की प्रक्रिया से संबंधित है। इस आलेख के अंतर्गत उन सभी महत्वपूर्ण धाराओं को प्रस्तुत किया जा रहा है जो इस अधिनियम को संपूर्ण करती हैं।

    धारा 5:-

    अधिनियम में धारा 5 को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है-

    "निरोधादेश की परिस्थितियों और स्थान को नियंत्रित करने की शक्ति:-

    प्रत्येक व्यक्ति जिसके लिए निरोधादेश बनाया गया है, उत्तरदायी होगा

    (क) निरुद्ध रहने के लिए ऐसे स्थान से और परिस्थितियों के अधीन अनुशासन और व्यवस्था के प्रतिबंधों के सहित और अनुशासनहीनता के लिए दंड जो उपयुक्त सरकार द्वारा सामान्य या विशेष आदेश में निर्दिष्ट हो, और

    (ख) हटाये जाने के लिए निरोध के एक स्थान से अन्य स्थान को, भले ही उसी राज्य में या अन्य राज्यों में समुचित सरकार के आदेश द्वारा,

    परन्तु यह प्रतिबंध है कि खंड (ख) के अधीन राज्य सरकार के द्वारा एक राज्य से अन्य राज्य में जब तक कि अन्य सरकार की स्वीकृति न हो, व्यक्ति को हटाने के लिए आदेश नहीं होगा।"

    यह धारा जिस व्यक्ति को निरोध का आदेश दिया है उस व्यक्ति को एक निर्देश के समान है। इस धारा में निरुद्ध व्यक्ति को निरोध आदेश के पालन में काम करने के लिए निर्देश दिया गया है। वह उस स्थान पर रहेगा, जहां कि आदेश के अनुपालन में उसे रखा जायेगा और अनुशासन बढ़ निरुद्ध रहेगा। उसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर समुचित सरकार द्वारा हटाया जा सकेगा, परन्तु एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानांतरित किये जाने पर राज्य सरकार द्वारा अन्य सरकार की स्वीकृति ली जाना अनिवार्य किया गया है।

    सरकार द्वारा निरुद्ध व्यक्ति के लिए निरुद्ध रखे जाने का स्थान जो भी निश्चित किया जाएं, निरुद्ध व्यक्ति उस स्थान पर अनुशासित तरीके से शर्तों का अनुपालन करते हुए रहेगा और इस हेतु उससे यह अपेक्षा की जायेगी कि वह अनुशासन तोड़ने पर दण्ड प्राप्त करने के लिए तत्पर रहेगा।

    उसे सामान्य या विशेष आदेश द्वारा निर्दिष्ट किया जायेगा, किसी एक राज्य से दूसरे राज्य अथवा किसी एक स्थान से दूसरे स्थान पर हटाये जाने पर वह सहयोग करेगा, परन्तु एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानांतरित किए जाने के लिए अन्य राज्य की सरकार से स्वीकृति प्राप्त होने पर हटाया किया जायेगा।

    व्यक्ति को निरुद्ध रखे जाने हेतु दो या अधिक आधारों पर आदेश दिया गया हो यह माना जायेगा कि निरोध आदेश प्रत्येक आधार पर पूर्णतः एवं पृथक्तः दिया गया है। कोई आदेश अस्पष्ट या अस्तित्व में न होने के आधार पर अप्रर्वतनीय नहीं समझा जायेगा, किसी अन्य आधार पर अवैध होने मात्र से आदेश अप्रवर्तनीय नहीं होगा।

    धारा 7:-

    अधिनियम में धारा 7 को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया:-

    फरार व्यक्ति के संबंध में शक्तियाँ: -

    "(1) यदि केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार या धारा 3 की उपधारा (3) में वर्णित अधिकारी, यथास्थिति के पास विश्वास करने का कारण हो कि वह व्यक्ति जिसके संबंध में निरोध आदेश बनाया गया है, भाग गया है, या अपने को छुपा रहा है, जिससे कि आदेश का पालन नहीं किया जा सके, तो सरकार या अधिकारी

    (क) इस तथ्य की लिखित में रिपोर्ट महानगरीय मजिस्ट्रेट अथवा न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम वर्ग, जिसके कि क्षेत्र में ऐसे व्यक्ति का सामान्य निवास स्थान है, सूचना देगा;

    (ख) राजकीय राजपत्र में आदेश प्रकाशित कर निदेशित करेगा कि वह व्यक्ति निश्चित स्थान पर और निश्चित समय में, जैसा कि आदेश में निदेशित हो, प्राधिकारी के समक्ष उपस्थित हो ।

    (2) उपधारा (1) के खंड (क) के अन्तर्गत किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध रिपोर्ट किए जाने पर दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) की धारा 82, 83 एवं 85 के उपबंध उस व्यक्ति और उसकी सम्पत्ति के संबंध में उसी प्रकार लागू होंगे, मानो कि जारी किया गया निरोधादेश मजिस्ट्रेट द्वारा जारी किया गया वारंट हो।

    (3) यदि कोई व्यक्ति उपधारा (1) के खंड (ख) का पालन करने में असफल रहता है, जब तक कि वह यह सिद्ध न करे कि उसके लिए उनका पालन किया जाना संभव नहीं था और आदेश में उल्लिखित अवधि में वह वहाँ था और उन सब कारणों सहित जिसके कारण उनका पालन किया जाना सम्भव न था और उसका पता, ठिकाना व आदेश में बताए अधिकारी को सूचित करे, वह कारावास के दंड से जिसकी अवधि एक वर्ष तक अथवा जुर्माने से या दोनों से दंडनीय होगा।

    (4) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में कुछ भी वर्णित होने पर भी उपधारा (3) के अधीन प्रत्येक अपराध संज्ञेय होगा।"

    यह धारा ऐसे व्यक्ति के संबंध में उल्लेख कर रही है जिस पर निरोध का आदेश पारित किया गया है तथा इस आदेश से बचने के उद्देश्य से जो व्यक्ति फरार हो चुका है। फरार व्यक्ति के विरुद्ध उद्घोषणा की जा सकेगी कि वह उद्घोषणा प्रकाशन की तारीख से नियत दिनांक को न्यायालय में उपस्थित हो और यह तारीख कम से कम तीस दिन पश्चात् की नियत की जायेगी।

    यह उद्घोषणा उसके निवास वाले नगर या ग्राम से सहज दश्य स्थान पर चस्पा की जायेगी। जिसे सामान्य रूप से पढ़ा जा सके। उसके निवास वाले स्थान पर भी चस्पा की जायेगी। फरार व्यक्ति की संपत्ति कुर्क की जाने का आदेश दिया जा सकेगा और उसके उपस्थित होने पर संपत्ति को कुर्की से निर्मुक्त किये जाने का आदेश दिया जायेगा, परन्तु उपस्थित न होने पर कुर्क की गई संपत्ति का विक्रय किया जा सकेगा। व्यक्ति द्वारा कारावास के दण्ड एवं अर्थदण्ड से अथवा दोनों से दण्डित किया जा सकेगा । उक्त अपराध संज्ञेय होगा और दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के प्रावधानों पर अधिप्रभाव रखेगा।

    धारा 8:-

    अधिनियम में धारा 8 को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है:-

    "आदेश द्वारा प्रभावित होने वाले व्यक्ति को निरोध के आदेश के आधारों का प्रकट किया जाना:-

    जब एक व्यक्ति निरोध आदेश के में निरुद्ध किये जाने निरुद्ध किया गया अनुपालन हो, आदेश बनाने वाले प्राधिकारी यथाशीघ्र लेकिन साधारणत: निरोध के दिनाँक से पाँच दिन के बाद नहीं और असाधारण स्थिति में जिसके कि कारण लिखित में उल्लिखित हो पन्द्रह दिन के बाद नहीं, वे आधार उसे बताएगा जिस पर वह आदेश बनाया गया हो और आदेश के विरुद्ध उसे उपयुक्त सरकार को अभ्यावेदन देने का उसे यथासंभव शीघ्र अवसर देगा।

    (2) यदि अधिकारी उपधारा (1) के अन्तर्गत तथ्यों को बताना सार्वजनिक हित के विरुद्ध समझता है, तो वह तथ्य प्रकट नहीं करेगा।"

    अधिनियम की धारा 8 एक प्रकार से उस व्यक्ति पर अधिकार प्रदान करती है इस व्यक्ति के विरुद्ध निरोध का आदेश पारित किया गया है। सक्षम प्राधिकारी द्वारा पांच दिवस की अवधि में निरुद्ध किए जाने के आधार प्रकट किए जायेंगे जब व्यक्ति को निरुद्ध किया गया है और असाधारण स्थिति यह अवधि पांच दिन से बढ़ाकर पन्द्रह दिवस की जा सकेगी, परन्तु उसमें किसी तरह अभिवृद्धि नहीं की जायेगी।

    सक्षम प्राधिकारी द्वारा निरुद्ध किए जाने के आधार प्रकट करते हुए उसे अभ्यावेदन प्रस्तुत किए जाने का यथासंभव शीघ्र अवसर प्रदान करेगा। निरुद्ध व्यक्ति की स्वतंत्रता को दृष्टिगत रखकर न्यूनतम अवधि का प्रावधान किया गया है। सामान्यतः आधारों की जानकारी दी जाने की अनिवार्यता है, परन्तु, जहां सार्वजनिक हित में आधार प्रकट किया जाना उचित नहीं है । प्राधिकारी द्वारा उन आधारों को प्रकट नहीं किया जायेगा।

    प्राधिकारी की शक्तियाँ न्यायहित में प्रयुक्त की जाने हेतु नैसर्गिक न्याय से सिद्धांतों का मुलन किया जाना आवश्यक किया गया है। इसके अंतर्गत अभ्यावेदन की जानकारी एवं दिया जाना आज्ञापक है। यह तत्परता से प्रयुक्त किया जाना अपेक्षित है और निरुद्ध व्यक्ति हो सुनवाई का अवसर दिया जाना उसका अनिवार्य भाग है।

    आजम विरुद्ध मध्यप्रदेश राज्य, 2013 के प्रकरण में वादी/व्यक्ति के विरुद्ध निरोध आदेश दिनांक 10-10-2011 को जिला मजिस्ट्रेट मन्दसौर द्वरा पारित किया गया और राज्य सरकार द्वारा दिनांक 15-12-2011 को आदेश की अभिपुष्टि की हुई। वादी द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 की धारा 3(2) के अन्तर्गत निरोध आदेश को चुनौती दी गई।

    याची द्वारा रिट याचिका प्रस्तुत की गई और उसके अन्तर्गत निरोध आदेश को चुनौती दिए जाने के कई आधार लिए गए। उसके द्वारा अभिवाक् किया गया कि केन्द्रीय सरकार को अभ्यावेदन किए जाने के अधिकार की समुचित जानकारी उसे नहीं दी गई। केवल उसे राज्य सरकार को आवेदन प्रस्तुत किया जाने के अधिकार से ही अवगत कराया गया। भारत के संविधान के अनुच्छेद 22(5) का यह उल्लंघन है।

    शासकीय अधिवक्ता की ओर से अभिवाक् का खण्डन करते हुए विधिक् प्रस्तुत की गई कि राज्य सरकार को अभ्यावेदन दिए जाने से अभिप्रायः केन्द्रीय सरकार को अभ्यावेदन दिया जाना है। उस स्थिति में युक्तियुक्त सरकार से अभिप्राय राज्य सरकार है। अधिनियम को धारा 2(1)(a) के अन्तर्गत युक्तियुक्त सरकार को परिभाषित किया गया है।

    केन्द्रीय सरकार द्वारा आदेश पारित किए जाने पर युक्तियुक्त सरकार राज्य नहीं, बल्कि केन्द्रीय सरकार होगी। इसी कई राज्य सरकार द्वारा निरोध आदेश पारित किए जाने पर केन्द्रीय सरकार नहीं, बल्कि युक्तियुक्त सरकार "राज्य सरकार" होगी । अधिनियम की धारा 8 के अन्तर्गत आदेश से प्रभावित व्यक्ति को निरोध आदेश के आधारों की जानकारी दी जाने का उपबन्ध किया गया है।

    इसके अन्तर्गत युक्तियुक्त सरकार को अभ्यावेदन प्रस्तुत किए जाने के अवसर का उपबन्ध किया गया है। अधिनियम की धारा 4 के अन्तर्गत प्रावधान किया गया है कि राज्य या केन्द्रीय सरकार निरोध आदेश को उपान्तरित या वापस ले सकेगी। संविधान के अनुच्छेद 22(3) के अन्तर्गत निरुद्ध व्यक्ति को अभ्यावेदन दिए जाने का अधिकार दिया गया है, जो कि सलाहकार मंडल को ही नहीं दिया जाएगा, अपितु निरुद्ध प्राधिकारी को भी दिया जाएगा। प्राधिकारी से तात्पर्य आदेश देने वाले या उसको निरन्तर रखने वाले प्राधिकारी से है।

    आदेश को वापस लेकर तत्काल अनुतोष दिए जाने हेतु अन्य सक्षम प्राधिकारी से भी तात्पर्य लिया जाएगा। अधिनियम की धारा 14 के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार को भी समान रूप से निरोध आदेश को उपान्तरित किए जाने या वापस लिए जाने की शक्तियाँ प्राप्त है। इस तरह केन्द्रीय सरकार को अभ्यावेदन दिए जाने के अधिकार की जानकारी के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार को अभ्यावेदन दिए जाने से तात्पर्य लिया जाना तर्कसंगत है।

    संविधान के अनुच्छेद 22 (5) और अधिनियम की धारा 8 और 4 को एक साथ पढ़े जाने पर उक्त निरोध आदेश अभिखण्डित किए जाने योग्य है। अन्य आधारों पर विचार न करते हुए केवल इस आधार पर ही याचिका स्वीकार की जाने योग्य है। निरोध आदेश और अभिपुष्टि आदेश उसके प्रभाव में अभिखण्डित किए जाते हैं। याची को तत्काल रिहा किया जाने हेतु आदेश दिया जाता है।

    अतिकुर रहमान वि. भारत संघ एवं अन्य, (2010) के मामले में गृह व्यक्ति को निवारक नजरबंदी के अधीन निरुद्ध किया गया, जिसके विरुद्ध याची व्यक्ति द्वारा अभ्यावेदन प्रस्तुत किया गया। अभ्यावेदन का विलंब से विनिश्चय किया गया। केन्द्रीय सचिव के समक्ष मुंबई हमले का आतंकवादी मामला विचाराधीन था, उन दिनों में अभ्यावेदन विचार हेतु रखा गया और यह 26 नवंबर 2009 की आतंककारी घटना और राष्ट्रीय स्तर पर उसका समाधान किये जाने के लिये निरंतर गृह सचिव द्वारा व्यस्त रहने से अभ्यावेदन पर विचार नहीं किया गया।

    न्यायालय द्वारा अभिमत दिया गया कि राष्ट्र की सुरक्षा और अखंडता पर सबसे अधिक ध्यान दिये जाने की आवश्यकता होती है और ऐसे समय गृह सचिव से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती है कि वह राष्ट्रीय महत्व के मामले से ध्यान हटा कर निरुद्ध व्यक्ति के अभ्यावेदन पर विचार करे। यह नहीं माना जा सकता है कि गृह सचिव द्वारा जानबूझकर विलंब किया गया । निरोध आदेश अभिखंडित किये जाने योग्य नहीं है।

    धारा 9:-

    "सलाहकार बोर्ड का गठन:-

    अधिनियम में धारा 9 को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है-

    (1) केन्द्रीय सरकार और प्रत्येक राज्य सरकार जब आवश्यक समझे इस अधिनियम के लिए एक या अधिक सलाहकार बोर्ड का गठन कर सकेगा ।

    (2) ऐसे प्रत्येक बोर्ड तीन व्यक्तियों से मिलकर बनेंगे जो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति के योग्य हों या रह चुके हों और ऐसे व्यक्ति समुचित सरकार द्वारा नियुक्त किए जाएँगे।

    (3) समुचित सरकार सलाहकार बोर्ड के सदस्यों में से एक जो उच्च न्यायालय का न्यायाधीश हो या रह चुका हो उसको अध्यक्ष नियुक्त करेगी और केन्द्रीय क्षेत्र की दशा में किसी व्यक्ति को सलाहकार मंडल में नियुक्ति जो राज्य के उच्च न्यायालय का न्यायाधीश है, संबंधित राज्य सरकार की पूर्व स्वीकृति से होगी।"

    इस धारा के अंतर्गत सलाहकार मंडल गठित किए जाने का प्रावधान किया गया है, जिसके अंतर्गत केन्द्र सरकार और राज्य सरकार एक या आवश्यक होने पर एक से अधिक मंडल गटित कर सकेंगे। प्रत्येक मंडल तीन व्यक्तियों से मिलकर बनेगा और मंडल में सामान्यतः उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की योग्यता रखने वाला या उस पद पर नियुक्त किए गए अथवा कार्यरत् रहे सेवा निवृत्त व्यक्तियों को नियुक्त किया जायेगा।

    नियुक्ति समुचित सरकार द्वारा की जाने का प्रावधान किया गया है। सलाहकार मंडल के सदस्यों में से केवल वह व्यक्ति ही अध्यक्ष नियुक्त किया जायेगा जो कि उच्च न्यायालय का पदस्थ न्यायाधीश है अथवा सेवा निवृत्त न्यायाधीश है। केन्द्र सरकार द्वारा सलाहकार मंडल में राज्य उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को नियुक्त किए जाने हेतु संबंधित राज्य सरकार की पूर्व स्वीकृति अनिवार्य गई है। इस तरह किसी राज्य के उच्च न्यायालय के पदस्थ न्यायाधीश को नियुक्त किए जाने के लिए राज्य सरकार द्वारा स्वीकृति दी जाएगी।

    धारा 10:-

    अधिनियम में धारा 10 को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया-

    सलाहकार बोर्ड को निर्देश:-

    इस अधिनियम में स्पष्टतापूर्वक उपबन्धित स्थिति के अतिरिक्त प्रत्येक प्रकरण में जहाँ कि इस अधिनियम के अधीन निरोधादेश बनाया गया है उपयुक्त सरकार, आदेश के अधीन व्यक्ति को निरोध के दिनांक से तीन सप्ताह के अन्दर वह आधार जिस पर कि आदेश बनाया गया है एवं अभ्यावेदन यदि कोई, आदेश से प्रभावित व्यक्ति द्वारा किया गया हो तो, एवं उस व्यवस्था में जबकि निरोधादेश एक अधिकारी द्वारा धारा 3 की उपधारा (3) के अधीन बनाया गया है एवं रिपोर्ट जो कि उसी धारा की ही उपधारा (4) के अन्तर्गत रिपोर्ट की धारा 9 के अधीन बताए गए सलाहकार बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत करेगा।

    व्यक्ति को निरुद्ध किए जाने के दिनांक से तीन सप्ताह की अवधि में प्रकरण सलाहकार मंडल के समक्ष प्रस्तुत किया जायेगा और उपयुक्त सरकार द्वारा निरोधादेश दिए जाने पर अभ्यावेदन प्राप्त किया जाता है, उसे मंडल के समक्ष विचार हेतु प्रस्तुत किया जायेगा। यह प्रक्रिया निर्धारित की गई है, जिसका अनुपालन किया जाना न्यायहित में आवश्यक है।

    व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं राष्ट्र की सुरक्षा का प्रश्न असाधारण प्रकृति का है, इस हेतु समुचित सरकार अपने कर्त्तव्य के प्रति सजग रहे। इसे ध्यान में रख कर तीन सप्ताह का प्रावधान किया गया है और मंडल द्वारा सात सप्ताह में उस पर प्रतिवेदन तैयार कर उचित कार्यवाही हेतु प्रस्तुत किया जायेगा।

    परामर्श मंडल की रिपोर्ट अन्य सामग्री के साथ राज्य सरकार के समक्ष रखी जाने से यह अभिप्राय नहीं लिया जायेगा कि स्वतंत्र एवं निष्पक्ष रूप से विचार नहीं किया गया।

    निरुद्ध व्यक्ति को यह समुचित अधिकार दिया गया है कि वह अपने बचाव में वे सभी दस्तावेज एवं मौखिक साक्ष्य प्रस्तुत कर सके, जिससे यह प्रमाणित हो कि वह राष्ट्र की सुरक्षा एवं लोक व्यवस्था के लिए खतरा उत्पन्न नहीं कर रहा है और किसी तरह का विध्वसंक कार्य नहीं कर रहा है।

    नैसर्गिक न्याय का सिद्धांत है कि प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिरक्षा स्वरूप पक्ष रखने का अधिकार है और उसे समुचित अवसर दिया जाना अपेक्षित है। निरुद्ध व्यक्ति द्वारा उक्त अवसर का उपयोग निश्छलता से किया जायेगा और राज्य शासन को संतुष्ट करेगा कि उसका आचरण राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध नहीं है

    निरुद्ध व्यक्ति को मौखिक एवं दस्तावेजी साक्ष्य प्रस्तुत करने का अधिकार प्राप्त है। उसके विरुद्ध लगाए गए आक्षेपों का वह खंडन करने के लिए सुसंगत साक्ष्य प्रस्तुत कर सकता है। उसके द्वारा यह अभिवाक् किया जाना सुसंगत नहीं है कि उसके विरुद्ध कार्यवाही सबकी जानकारी में लाई जाएं। राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर कार्यवाही को सार्वजनिक न किया जाना न्यायोचित है।

    धारा 13:-

    अधिनियम में धारा 13 इस प्रकार प्रस्तुत की गई:-

    "निरोध की अधिकतम अवधि:-

    कोई निरोधादेश जिसकी धारा 12 के अधीन पुष्टि की गयी है के अनुसार कोई व्यक्ति जो निरुद्ध हुआ है का अधिकतम समय निरोध के दिनाक से बारह माह होगा : परन्तु उपबन्ध यह है कि इस धारा में वर्णित समुचित सरकार द्वारा किसी भी समय निरोधादेश को रद्द करने या उपांतरित करने की शक्ति प्रभावित नहीं होगी।"

    जिस व्यक्ति को समुचित आधारों पर निरुद्ध किया गया है और धारा 12 के अंतर्गत सलाहकार मंडल की सूचना पर और अधिक समय के लिए निरूद्ध रखे जाने का आदेश दिया गया है अथवा आदेश की पुष्टि की गई है। इस संबंध में और अधिक विस्तार से प्रावधान किया गया है कि निरुद्ध व्यक्ति को किसी भी दशा में बारह माह से अधिक निरुद्ध नहीं रखा जायेगा। निवारक नजरबंदी की समय सीमा तय की गई है।

    इस तरह अधिकतम सीमा एक वर्ष रखी गई है, परन्तु शासन द्वारा आवश्यक होने पर उस व्यक्ति को किसी भी समय रिहा किया जा सकेगा और रिहा किए जाने पर निरोध आदेश रद्द किया जायेगा। सरकार को यह भी अधिकार दिया गया है कि वह निरोध आदेश में परिस्थितियों के अनुरूप उपांतरित कर सके। यह उपान्तरण केवल अवधि के संबंध में ही हो सकता है।

    निरोध आदेश की पुष्टि करते समय सामान्यतः निरुद्ध रखे जाने की अवधि का विवरण दिया जाना अपेक्षित है और यह आवश्यक नहीं है कि वह अधिकतम अवधि हो। कई बार आदेश दिए जाने में अवधि का उल्लेख किया जाना रह जाता है या अन्य कोई लिपिकीय त्रुटि अवधि के संबंध में की जाती है।

    न्यायालय द्वारा इस बिन्दु पर अभिमत दिया गया है कि अवधि का उल्लेख किया जाना गौण है और इसे आधार बनाकर न तो आदेश रद्द किया जायेग और न ही उसे अवैध व्हराया जायेगा। व्यक्ति का निरुद्ध रखा जाना परिस्थितियों के अधीन है और अवधि का उल्लेख न किए जाने पर सामान्यतः यह अवधि किसी भी रूप में एक वर्ष से अधिक नहीं होगी।

    धारा 14:-

    निरोधादेश को रद्द करना-

    अधिनियम में धारा 14 इस प्रकार प्रस्तुत की गई

    "(1) | जनरल क्लाजेज एक्ट, 1897 (1897 का क्रमांक 10) की धारा 21 के उपबन्ध को हानि पहुँचाये बिना निरोधादेश किसी भी समय उपांतरित या रद्द किया जा सकेगा।

    (क) भले ही वह आदेश धारा 3 की उपधारा (3) में वर्णित राज्य सरकार द्वारा जिसका कि वह अधिकारी अधीनस्थ है या केन्द्रीय सरकार द्वारा बनाया गया हो;

    (ख) भले ही वह आदेश राज्य सरकार द्वारा बनाया गया हो या केन्द्रीय सरकार द्वारा।

    (2) एक निरोध आदेश का वापस लेने या अवसान होना (एतद्पश्चात् इस उपधारा में पूर्ववर्ती निरोध आदेश के रूप में निर्दिष्ट) चाहे ऐसा पूर्ववर्ती निरोध आदेश राष्ट्रीय सुरक्षा (द्वितीय संशोधन) अधिनियम, 1984 के प्रारंभ के पूर्व या पश्चात् दिया गया हो उसी व्यक्ति के विरुद्ध धारा 3 के अधीन दूसरा निरोध आदेश (एतद्पश्चात् इस उपधारा में पश्तचात्वर्ती निरोध आदेश के रूप में निर्दिष्ट) दिया जाना वर्जित नहीं करेगा :

    परन्तु उस दशा में जहाँ कि ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध दिए गए पूर्ववर्ती निरोध आदेश की वापसी या अवसान के पश्चात् कोई नवीन तथ्य उत्पन्न न हुए हों, तो वह अधिकतम कालावधि जिनके लिए ऐसा व्यक्ति पश्चात्वर्ती निरोध आदेश के अनुसरण में निरुद्ध किया जा सके, किसी भी दशा में पूर्ववर्ती निरोध आदेश के अधीन निरोध की तारीख से बाहर मासों की कालावधि के अवसान के आगे तक की नहीं हो सकेगी।"

    इस धारा के उपबंध के अधीन राज्य या केन्द्र सरकार को यह अधिकार दिया गया है कि वह निरोध आदेश को उपांतरित कर सकेगी और आवश्यक होने पर उसे रद्द कर सकेगी। इस हेतु यह आवश्यक नहीं है कि वह राज्य सरकार के अधीनस्थ किसी अधिकारी द्वारा दिया गया है या केन्द्र सरकार के अधीन रहते हुए दिया गया। यह आदेश राज्य सरकार या केन्द्र सरकार द्वारा दिया गया हो।

    उसे उपांतरित करने या रद्द किए जाने में उसका महत्व गौण है। किसी भी व्यक्ति को निरुद्ध किए जाने के पश्चात् परिस्थितियों में अचानक परिवर्तन आ जाएँ या व्यवस्था पर नियंत्रण कर लिया जाए, उस स्थिति में किसी व्यक्ति को अनावश्यक रूप से नजरबंद रखा जाना उसको नैसर्गिक स्वतंत्रता के लिए हितकर नहीं है। राज्य सरकार और केन्द्र सरकार को आदेश में उपान्तरण किए जाने के लिए पूर्ण स्वतंत्रता एवं अधिकारिता दी गई है।

    कविता वि. महाराष्ट्र राज्य, (1981) के मामले में लोक व्यवस्था का मामला न होने से निरोध आदेश विधिविरुद्ध ठहराया गया और आदेश अभिखंडित किया गया । निरुद्ध व्यक्ति को रिहा किया गया। टिम्मी वि. म.प्र. राज्य, 1993 MPLJ844, सलाहकार मंडल के समक्ष निरुद्ध व्यक्ति द्वारा यह प्रार्थना की जा सकती है अथवा की जाएँ कि उसे अधिवक्ता के माध्यम से अपना पक्ष प्रस्तुत करने का समुचित अवसर एवं अनुमति दो जाएँ। यह प्रार्थना सरकार को की जाने योग्य नहीं है।

    किसी व्यक्ति को निरुद्ध किया जा सकता है, परन्तु निरुद्ध किया जाना उस स्थिति में न्यायसंगत नहीं है, जब निर्धारित प्रक्रिया का अनुपालन न किया जाएं. संतुष्टि का समुचित आधार न हो और निरुद्ध किए जाने की परिस्थितियाँ विद्यमान न हो।

    राज्य अथवा केन्द्र सरकार को उक्त अधिकारिता का प्रयोग बहुत सावधानी पूर्वक किया जाना होता है और लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी व्यक्ति के प्रति द्वेष भाव से उक्त अधिकारिता का प्रयोग न किया जाएँ। संविधान में दिए गए मूलभूत अधिकारों का हनन् न हो, इस हेतु प्रक्रिया एवं विनिश्चय की समीक्षा और पारदर्शिता के लिए कठोर उपबंध किए गए हैं।

    मोहम्मद रमजान अली वि. भारत संघ एवं अन्य, 2008 के प्रकरण में असम सरकार द्वारा दिनांक 27-09-2007 को निरोध आदेश पारित किया गया, परन्तु आदेश पुष्टि हेतु केन्द्र सरकार को नहीं भेजा गया, जो कि अधिनियम धारा 3 (5) के अनुसार सात दिन की अवधि में भेजा जाना अनिवार्य है। शपथ-पत्र और अन्य अभिलेख से यह प्रकट नहीं होता है कि केन्द्र सरकार को इस संबंध में संसूचित किया गया।

    केन्द्र सरकार के शपथ-पत्र में विवादास्पद कथन किया गया कि निरुद्ध व्यक्ति का अभ्यावेदन केन्द्र सरकार को प्राप्त होने पर उसका निराकरण 1-11-2007 को किया गया, परन्तु शपथ-पत्र में यह कथन नहीं किया गया कि धारा 3(5) के अंतगंत प्रतिवेदन प्राप्त करने की प्राप्ति रसीद उपलब्ध है। इस तरह धारा 3(5) के उपबंधों का अनुपालन केन्द्र सरकार और राज्य सरकार द्वारा नहीं किया गया। निरोध आदेश अभिखंडित किया गया।

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