संविदा विधि (Law of Contract ) भाग 17 : उपनिधान की संविदा क्या होती है ( Bailment)
Shadab Salim
6 Nov 2020 6:11 AM GMT
संविदा विधि के अब तक के आलेखों के अंतर्गत संविदा विधि के आधारभूत सिद्धांतों के साथ ही क्षतिपूर्ति की संविदा एवं प्रत्याभूति की संविदा के विषय में विस्तृत अध्ययन किया जा चुका है। आलेख 17 में उपनिधान की संविदा के विषय में उल्लेख किया जा रहा है। उपनिधान की संविदा, संविदा विधि की महत्वपूर्ण संविदा होती है। आज व्यापार व्यवसाय के युग में उपनिधान की संविदा का महत्व अत्यधिक हो चला है।
उपनिधान की संविदा (Bailment)
उपनिधान (Bailment) की संविदा का महत्व इस व्यापारिक युग में अत्यधिक है। भारतीय संविदा अधिनियम 1872 के अंतर्गत उपनिधान की व्यवस्था की गई है। इस अधिनियम की धारा 148 के अंतर्गत उपनिधान, उपनिहिती और उपनिधाता के शब्द की परिभाषा प्रस्तुत की गई है। इस धारा में उपनिधान के संदर्भ में विस्तृत उल्लेख कर दिया गया है, आलेख में उपनिधान से संबंधित उदाहरण तथा न्याय निर्णय भी प्रस्तुत किए जा रहे है।
उपनिधान में एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को किसी प्रयोजन हेतु माल का प्रदान करना होता है इससे संबंधित शर्त विवक्षित अथवा अभिव्यक्त होती है। यह एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को किसी प्रयोजन के लिए इस संविदा के अंतर्गत माल का प्रदान करना है की उक्त प्रायोजन के पूरा होने पर वह माल प्रदान करने वाले व्यक्ति को वापस कर दिया जाएगा अथवा परिदत करने वाले व्यक्ति के निर्देश अनुसार किसी दूसरे व्यक्ति को दे दिया जाएगा।
एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को किसी संविदा के अधीन किसी माल अथवा वस्तु का किसी विशिष्ट उद्देश्य अथवा प्रयोजन के लिए इस शर्त का परिदान कि वह उद्देश्य अथवा प्रयोजन पूरा होते ही वह माल अथवा वस्तु उसके स्वामी को लौटा दी जाएगी या उसके निर्देश अनुसार व्ययनित (disposed) कर दी जाएगी, उपनिधान है।
उपनिधान के कुछ उदाहरण बाजार में देखने को मिलते हैं जो निम्न हो सकते हैं
साइकिल को साइकिल स्टैंड पर रखना।
मोटरसाइकिल को मरम्मत के लिए मैकेनिक को देना।
आभूषण बनाने हेतु स्वर्णकार को देना।
कपड़ा ड्राई क्लीनर के लिए देना।
कपड़ा स्त्री के लिए धोबी को देना।
कपड़ा सिलने के लिए दर्जी को देना।
इन सब प्रकार के संव्यवहारों में उपनिधान की संविदा के तत्वों की प्रधानता मिलती है। माल का प्रदान करने वाले व्यक्ति को उपनिधाता कहते हैं और जिसको माल दिया जाता है उसे उपनिहिती कहते हैं।
इसके अंतर्गत स्वर्ण एवं कीमती धातु आदि का परिदान भी आता है जिसे स्वर्णकार को प्रदान किया जाता है। इसके अंतर्गत पारेषण हेतु वस्तु का प्रदान किया जाना भी आता है, इसके अंतर्गत कतिपय मुद्राओं का संदाय आदि भी आता है जो किसी दस्तावेज आदि के संदर्भ में बैंक के जिम्मे में रखा गया है।
किसी संपदा को जब एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को दिया जाता है तो जिसको माल दिया जाता है वह उपनिहिती के रूप में अपने कर्तव्य के प्रति बाध्य हो जाता है क्योंकि उसके अंतर्गत एक विधिमान्य संविदा का सृजन हो जाता है।
स्टेट ऑफ गुजरात बनाम मेमन मोहम्मद हाजी हसन एआईआर 1967 एससी 1855 के प्रकरण में कहा गया है उपनिधान के लिए माल का कब्जा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को दिया जाना आवश्यक है। इससे माल का स्वामित्व अपने दाता के पास ही रहता है माल का केवल कब्जा उपनिहिती को दिया जाता है।
यह ध्यान देने की बात है कि माल का परिदान वास्तविक या प्रदर्शित हो सकता है। जब माल का भौतिक कब्जा उपनिधाता द्वारा उपनिहिती को दे दिया जाता है तो इसे वास्तविक परिदान कहते हैं परंतु जब परिदान वास्तविक रूप में न हो तो ऐसी स्थिति में इसे परिलक्षित परिदान कहते हैं। धारा 148 में दी गई परिभाषा के अनुसार उपनिधान एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को किसी प्रयोजन के लिए इस संविदा पर माल का प्रदान करना है कि जब वह प्रयोजन पूर्ण हो जाए तो वह लौटा दिया जाएगा या उसे प्रदान करने वाले व्यक्ति के निर्देशों के अनुसार अन्यथा उपबंध कर दिया जाएगा। माल का प्रदान करने वाला उपनिधाता कहलाता है वही जिसे परिदान किया गया जाता है उपनिहिती कहलाता है।
परिदान कैसे किया जाता है
कब्जे में परिवर्तन होना चाहिए मात्र अभिरक्षा से ही उपनिधान का सृजन नहीं हो जाता है। इस संबंध में इस धारा के स्पष्टीकरण पर भी प्रकाश डालना चाहिए।
स्पष्टीकरण में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है यदि वह व्यक्ति जो किसी अन्य माल पर पहले से ही कब्जा रखता है उसका उपनिहिती के रूप में करने की संविदा करता है तो वह एतद्द्वारा उपनिहिती हो जाता है और माल का स्वामी उसका उपनिधाता हो जाता है।
इसे एक उदाहरण की सहायता से भली प्रकार समझा जा सकता है। यदि क अपनी कार ख को बेच देता है परंतु ख, क को कहता है कि वह 6 माह उसे अपने पास रखें यह परिलक्षित उपनिधान है। कार क के पास है परंतु पहले वह उसका स्वामी था विक्रय के पश्चात वह उसका उपनिधाता हो गया।
सलामत रॉय बनाम फ़ज़ल (1928 120 आईसी 412) के मामले में न्यायालय निर्णय दिया कि प्रतिवादी ने वादी के विरुद्ध डिक्री प्राप्त की और उस डिक्री के निष्पादन में वादी को घोड़ी अपने कब्जे में ले ली। बाद में वादी ने डिक्री का भुगतान कर दिया और न्यायालय ने आदेश दिया कि घोड़ी वादी को वापस कर दें परंतु प्रतिवादी ने घोड़ी के पोषण पर किए गए व्यय की मांग की और बिना उसे प्राप्त किए घोड़ी देने से इनकार कर दिया और इसके पश्चात वह घोड़ी चोरी हो गई।
न्यायालय ने प्रतिवादी को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रतिवादी को जब न्यायालय ने आदेश दिया कि वह घोड़ी वादी को वापस कर दे तो उसे उस आदेश के उपरांत घोड़ी का कब्जा उसके पास उपनिहिती के रूप में था और फलतः उस आदेश के परिणामस्वरुप प्रतिवादी और वादी के मध्य उपनिधान का निर्माण हो चुका था।
इस प्रकरण में दिए गए निर्णय से यह तथ्य निकलकर सामने आते हैं कि उपनिधान के लिए उपनिहिती को कब्जा वस्तुतः या परिलक्षित रूप में दिया जाना आवश्यक है, यदि कब्जा उपनिधाता के पास रहता है अर्थात वास्तविक रूप में यह परिलक्षित रूप में अर्थात किसी भी रूप में कब्जा उपनिहिती को दिया जाता है तो ऐसी स्थिति में विधिमान्य उपनिधान का निर्माण हो सकता है।
कालिया पेरूमल बनाम विशाललक्ष्मी एआईआर 1938 मद्रास 32 एक मामले में जहां किसी महिला ने स्वर्णकार को अपने कुछ आभूषण प्रदान किए उसने उक्त आभूषण इस निर्देश के साथ दिए कि वह उक्त पुराने आभूषण को गला दे और नए आभूषण का निर्माण करें। प्रत्येक शाम को वह महिला स्वर्णकार के पुराने आभूषण अर्थात अधूरे बने जेवर बक्से में रखती थी और उस सुनार के ही कमरे में उसे छोड़ कर चली जाती थी। एक दिन जब वह सुबह स्वर्णकार के यहां आकर बॉक्स को खोलती है तो उसने पाया कि उसमें आभूषण नहीं थे। उसने स्वर्णकार के विरुद्ध मुकदमा चलाया।
न्यायालय ने इसके लिए स्वर्णकार को दायीं नहीं ठहराया। न्यायालय ने अपने निर्णय में यह विचार व्यक्त किया कि उपनिधान का निर्माण हुआ ही नहीं था क्योंकि महिला ने आभूषणों का कब्जा उक्त स्वर्णकार को नहीं दिया था। स्वर्णकार के यहां उक्त बॉक्स रखने मात्र से महिला के आभूषण पर स्वर्णकार का कब्जा नहीं हो जाता क्योंकि उसने चाबी स्वर्णकार को नहीं दी थी बल्कि उसने चाबी अपने पास ही रखी थी क्योंकि कब्जा महिला के पास ही था न कि स्वर्णकार के पास। परिणामस्वरूप उपनिधान का निर्माण ही नहीं हुआ।
न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी बनाम दिल्ली डेवलपमेंट अथॉरिटी एआईआर 1991 दिल्ली 298 के प्रकरण में कहा गया है कि माल का कब्जा उपनिहिती को देना उपनिधान के निर्माण के लिए अत्यंत आवश्यक है। यदि कब्जा उपनिहिती को नहीं दिया जाता तो एक विधिमान्य उपनिधान का निर्माण नहीं हो सकता।
यदि कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति के वाहन के पास खड़ा है जिस व्यक्ति का वह स्थान है वह वाहन के स्वामी को इस नियमित रचित प्रदान करता है कि वह निश्चित अवधि में वाहन की देखरेख करेगा तो उपनिधान का निर्माण हो जाएगा। यदि वाहन की युक्तियुक्त रूप में देखभाल नहीं की जाती है तो वह व्यक्ति जिसका की वह स्थान है वाहन की हानि के लिए उत्तरदायीं होगा।
न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी बनाम डीडी एआईआर 1991 दिल्ली 298 के एक प्रकरण में वादी ने अपना वाहन प्रतिवादी के यहां खड़ा करने के स्थान पर अपना वाहन खड़ा किया। वह प्रतिवादी ने एक विशिष्ट अवधि के लिए वाहन की देखरेख करने के निमित्त रसीद दी। प्रतिवादी द्वारा वादी के वाहन की युक्तियुक्त रूप में देखरेख किए जाने की स्थिति में उक्त वाहन खो गया। प्रतिवादी को इसके लिए दायीं हराया गया।
दूसरे के माल को अपनी अभिरक्षा में लेने पर उपनिधान का निर्माण हो जाता है। उदाहरण के लिए जहां वादी एक रेस्टोरेंट में भोजन करने के लिए गया एक बेरा ने उसका कोर्ट स्वेच्छा लिया और उसके पीछे खूंटी पर टांग दिया। भोजन के पश्चात जब वह चलने लगा तो यह पाया कि कोर्ट वहां नहीं था। न्यायालय ने यह निर्णय लिया कि रेस्टोरेंट का स्वामी कोर्ट खोलने के लिए उत्तरदायीं था क्योंकि उसके नौकर ने उक्त कोर्ट को लेकर उसका कब्जा ले लिया था और कोर्ट रखने के स्थान का चुनाव भी उसने स्वयं किया था। अतः उपनिधान का निर्माण हो चुका था।
जो व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति का माल पड़ा पाता है और उसे अपनी अभिरक्षा में ले लेता है वह भी उत्तरदायित्व के अध्यधीन हो जाता है। उपनिहिती के कर्तव्य उसी तरह के होते हैं जिस तरह के कर्तव्य पड़ा हुआ माल प्राप्त करने वाले व्यक्ति के होते हैं।
उपनिहिती द्वारा माल को अपने दाता के पास वापस करना-
सेक्रेटरी ऑफ स्टेट बनाम शिव सिंह 1880 इलाहाबाद के बहुत पुराने प्रकरण में न्यायालय ने यह विचार व्यक्त किया कि उपनिधान के अंतर्गत उपनिधाता उपनिहिती को माल किसी विशेष प्रयोजन हेतु देता है और उस प्रयोजन के पूरा होने पर उपनिहिती उक्त माल को प्रदाता को वापस कर देता है। यदि कोई बैंक ग्राहक को सुरक्षित निश्चित में कोई ला कर देता है वह ग्राहक को उसकी एक चाबी देता है जिसके बिना उस लॉकर को खोला नहीं जा सकता तो ऐसी स्थिति में लाकर में रखा माल ग्राहक के कब्जे में माना जाएगा तथा उपनिधान का निर्माण नहीं होगा।
परंतु यदि स्थिति ऐसी है कि ग्राहक को दी गई चाबी के बिना भी लाकर खोला जा सकता है तो लॉकर में रखे गए माल पर ग्राहक का कब्जा समाप्त हो जाता है और लॉकर के परिसर में होने के कारण उस पर बैंक का कब्जा माना जाएगा और बैंक उपनिहिती हो जाएगा। परिणामस्वरूप लॉकर में रखा हुआ माल खोने की स्थिति में अथवा चोरी हो जाने की स्थिति में बैंक दायीं होगा।
उपनिधान में अपने दाता द्वारा उपनिहिती को माल का परिदान किसी विशेष प्रयोजन के लिए किया जाता है और शर्त यह रहती है कि उस प्रयोजन जिनके पूरा होने पर वह माल अपने दाता को वापस कर दिया जाएगा या उसके निर्देशानुसार उसका व्ययन किया जाएगा किंतु यह व्यवस्था उपनिधान को विक्रय या दान सिद्ध नहीं कर देती है। विक्रय या दान में माल का प्रदान क्रेता अथवा दाता में किया जाता है परंतु क्रय या दान में उसे विक्रेता या दाता को वापस करने के लिए बाध्य नहीं होता। उपनिधान में जो माल यह वस्तु उपनिहिती को दी जाती है वही माल यह वस्तु उसी रूप में यह परिवर्तित रूप में उपनिहिती द्वारा उपनिधाता को लौटाई जानी चाहिए। उदाहरण के लिए आभूषण बनाने के लिए स्वर्णकार को स्वर्ण देना उपनिधान है।
उपनिधान के लिए यह आवश्यक है कि जिस व्यक्ति को माल दिया जाता है वह वही माल उसी रूप में या परिवर्तित रूप में वापस करने के लिए दायित्वधीन हो जाता है। यदि ऐसी स्थिति में नहीं है तो यह उपनिधान नहीं होगा। उदाहरण के लिए बैंक में रुपया जमा करना उपनिधान नहीं है क्योंकि बैंक वही नोट वापस करने के लिए बाध्य नहीं है जो नोट ग्राहक ने बैंक को दिए हैं।
बसवा के डी पाटील बनाम स्टेट ऑफ मैसूर एआईआर 1977 एससी 1749 के मामले में स्टेशन मास्टर की सहमति से माल रेलवे प्लेटफार्म पर रख दिया गया। इसका कारण यह था कि उस समय माल लादने के लिए डिब्बा उपलब्ध नहीं था जबकि माल प्लेटफार्म पर पड़ा था। एक इंजन गुजरा और उससे चिंगारी निकली और इसके परिणाम स्वरूप माल जल गया। रेलवे कंपनी को इस हानि के लिए उत्तरदायीं ठहराया गया।