संविदा विधि (Law of Contract ) भाग 14 : क्षतिपूर्ति क्या होती है, संविदा विधि में क्षतिपूर्ति की संविदा क्या होती है (Indemnity)

Shadab Salim

29 Oct 2020 8:17 AM GMT

  • संविदा विधि (Law of Contract ) भाग 14 :  क्षतिपूर्ति क्या होती है, संविदा विधि में क्षतिपूर्ति की संविदा क्या होती है (Indemnity)

    अब तक के संविदा विधि से संबंधित आलेखों के 13 भागों के अंतर्गत संविदा विधि के प्रारंभिक रूप को और उसकी अवधारणा को समझा गया है। आलेख 14 संविदा विधि के एक प्रकार से दूसरे भाग का प्रारंभ है, इस आलेख में लेखक क्षतिपूर्ति के संदर्भ में विशेष बातों का उल्लेख कर रहा है।

    संविदा विधि की अब तक की 75 धाराओं के अंतर्गत संविदा विधि के प्रारंभिक रूप को समझा गया है। भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की प्रारंभिक 75 धाराएं आधारभूत धाराएं हैं, इन धाराओं के बाद अगली धाराओं का अध्ययन संविदा विधि का भाग-2 माना जाता है।

    धारा 76- 123 तक माल विक्रय अधिनियम 1930 के अंतर्गत सभी धाराओं को निरसित कर दिया गया है अर्थात संविदा विधि के अंतर्गत ही अध्याय 7 में माल विक्रय से संबंधित प्रावधान भी उपलब्ध थे परंतु माल विक्रय अधिनियम 1930 को बनाकर संविदा विधि के अध्याय 7 को निरसित कर दिया गया। अब इस संविदा अधिनियम के अंतर्गत धारा 124 से यह अधिनियम पुनः प्रारंभ होता है। धारा 124 के बाद समस्त धाराएं संविदा विधि के विशिष्ट स्वरूप को प्रकट करती है। इस आलेख में धारा 124 और धारा 125 के अंतर्गत क्षतिपूर्ति के विषय में उल्लेख किया जा रहा है।

    क्षतिपूर्ति की संविदा (धारा- 124) ( Contract of indemnity)

    क्षतिपूर्ति की संविदा एक प्रकार की समाश्रित संविदा है, समाश्रित संविदा के संबंध में पूर्व के आलेखों में उल्लेख किया जा चुका है तथा धारा 31 से लेकर धारा 36 तक समाश्रित संविदा के विषय में उल्लेख किया गया है जिसे लेखक द्वारा सारगर्भित प्रस्तुत किया जा चुका है। समाश्रित संविदा का ही एक आधुनिक रूप क्षतिपूर्ति की संविदा होता है। क्षतिपूर्ति की संविदा को ही केवल समाश्रित संविदा नहीं कहते अपितु इसके साथ में प्रत्याभूति की संविदा भी उपलब्ध है। प्रत्याभूति के संविदा के संदर्भ में उल्लेख अगले आलेख में किया जाएगा।

    धारा 124 के अनुसार वह संविदा जिसके द्वारा एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को स्वयं वचनदाता के आचरण से या किसी अन्य व्यक्ति के आचरण से उस दूसरे पक्षकार को हुई हानि से बचाने का वचन देता है, क्षतिपूर्ति की संविदा कहलाती है।

    इस प्रकार की संविदा से तात्पर्य ऐसी संविदा से है जिसके द्वारा एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को अपने आचरण या किसी अन्य व्यक्ति के आचरण से हुई हानि के लिए बचाने की प्रतिज्ञा करता है जो व्यक्ति बचाने की प्रतिज्ञा करता है उसको क्षतिपूर्तिदाता जिस व्यक्ति के लिए प्रतिज्ञा की जाती है उसे क्षतिपूर्तिधारी कहते हैं।

    क्षतिपूर्ति की संविदा भविष्य की घटना पर आधारित है इसलिए मैंने इसे प्रारंभ में समाश्रित संविदा की भांति संविदा कहा है और संविदा का आधुनिक स्वरूप का समय के साथ-साथ क्षतिपूर्ति की संविदा की आवश्यकता समाज को प्रतीत होने लगी इसलिए संविदा का यह स्वरूप निकल कर सामने आया है।

    अधिनियम के अंतर्गत दी गई इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि इसके अंतर्गत केवल ऐसी हानियों से बचाने के लिए प्रतिज्ञा होती है जो प्रतिज्ञाकर्ता के खुद के आचरण से या किसी अन्य व्यक्ति के आचरण से उत्पन्न हुई है।

    यदि इस परिभाषा का सही रूप से अवलोकन किया जाए तो कुछ तथ्य निकलकर सामने आते हैं जो निम्न हो सकते हैं-

    संविदा का एक पक्षकार को दूसरे पक्षकार के आचरण से हानि हुई हो-

    उस दूसरे पक्षकार से भिन्न व्यक्ति के आचरण द्वारा भी प्रथम पक्षकार को हानि हो सकती है-

    जो व्यक्ति उक्त हानि से बचाने की प्रतिज्ञा करता है और क्षतिपूर्तिदाता है-

    जिसको क्षतिपूर्ति से बचाए जाने की प्रतिज्ञा की गई है वह क्षतिपूर्तिधारी है-

    परिभाषा का सतही अवलोकन करने से दो अब तक यह बातें स्पष्ट हो गई है कि किसी व्यक्ति को क्षति से बचाने के लिए इस प्रकार की क्षतिपूर्ति की संविदा वजूद में आती है।

    मंगलधरम बनाम गैंडामल 1929 लाहौर 388 के मामले में कहा गया है कि

    'जब संविदा का एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को हानि से बचाने की प्रतिज्ञा करता है तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि प्रतिज्ञाकर्ता उस दूसरे व्यक्ति को हानि से बचाने का वचन देता है तो इसका तात्पर्य हुआ की हानि की स्थिति में वह व्यक्ति दूसरे को क्षतिपूर्ति देगा और इस प्रकार संविदा जो कि पक्षकारों के मध्य हो रही है उसे क्षतिपूर्ति की संविदा कहेंगे।"

    हानि

    क्षतिपूर्ति की संविदा के अंतर्गत हानि पर विशेष बल दिया गया है। इसके अंतर्गत यह कहा गया है कि संविदा के दूसरे पक्षकार को हानि हुई हो चाहे स्वयं वचनदाता के आचरण से हुई हो या किसी अन्य व्यक्ति के आचरण से किंतु हानि से बचाने हेतु एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को कोई वचन देता है जिसके अनुसार भविष्य में हानि की दशा में बचाएगा।

    किसी क्षति को साबित किया जाना अपेक्षित होता है अर्थात इस धारा का सार तत्व यह है कि जिस व्यक्ति के बारे में कथन करता है उसका सिद्ध किया जाना आवश्यक है जिससे क्षतिपूर्तिधारी को क्षति होती है। वैसे ही क्षतिपूर्ति प्रदान करने का दायित्व क्षतिपूर्तिदाता के संदर्भ में त्वरित रूप से होता है। वास्तव में शातिपूर्णधारी का नुकसान हो जाता है तो क्षतिपूर्तिदाता अपने दायित्व के प्रति आबद्ध हो जाता है अर्थात हानि या क्षति की स्थिति में वह अपने वचन से मुकर नहीं सकता।

    क्षति का तात्पर्य धारा 124 के अंतर्गत सारवान क्षति से है जिसका विधि की दृष्टि में कुछ महत्व है अर्थात क्षति मूर्त रूप में हो, क्षति का कुछ विधिक महत्व हो, क्षति बहुत माइनर न हो।

    चितरंजन लाल बनाम नारायणी 19041 इलाहाबाद 395 के प्रकरण में कहा गया है कि- उन मामलों में जहां की स्पष्टता के साथ वादी स्वयं को हुई हानि को साबित नहीं कर पाया अर्थात वह यह नहीं स्पष्ट कर पाया कि उसको कितनी हानि हुई है उसे की वास्तविक हानि हुई है या नहीं वहां वादी को प्रतिवादी से प्रतिकर पाने के दायित्व दिन माना गया।

    क्षति के संबंध में कुछ विशेष बातें हैं जो निम्न हो सकती हैं जैसे-

    1)- वह ऐसा नुकसान हो जो वास्तविक क्षति के कारण हुआ है।

    2)- किसी भी प्रकार के संदेह से परे हो।

    3)- इसे स्पष्ट तौर पर समझा जा सके कि यह वादी को क्षति की गई है।

    4)- क्षति में युक्तियुक्तता हो।

    5)- क्षति की प्रकृति तुच्छ न हो।

    6)- पहले ही दोनों पक्षकारों में विधिमान्य करार हुआ हो कि प्रतिवादी वादी को हुई हानि की दशा में उसे प्रतिकर देगा।

    7)- क्षति पूर्णतः साबित की गई हो।

    जब उपरोक्त समस्त परिस्थितियां विद्यमान होंगी ऐसी दशा में न्यायालय वादी को प्रतिवादी से क्षति की यथोचित राशि प्रतिकर के रूप में दिलवाएगा किंतु जहां वास्तविक क्षति वादी द्वारा नहीं साबित किया जा सकीं ऐसी स्थिति में प्रतिवादी अर्थात क्षतिपूर्तिदाता वादी अर्थात क्षतिपूर्तिधारक को क्षतिपूर्ति देने के लिए बाध्य न होगा।

    नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम मुक्ति सेंधिया 2010 एसी 261 (आंध्र प्रदेश) के प्रकरण में कहा गया है कि बीमा की संविदा क्षतिपूर्ति की संविदा के समरूप है। बीमा संविदा के पक्षकार पारस्परिक बाध्यता एवं वचन से बाध्य होते हैं। यदि वचनग्रहिता वचनदाता के आदेश का उल्लंघन करता है तथा ऐसा करने में विफल रहता है जैसा उसी मामले में कोई दूरदर्शी व्यक्ति करता है क्षतिपूर्ति का वचनदाता क्षतिपूर्ति देने के लिए बाध्य नहीं था।

    लाइफ इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन इंडिया बनाम श्रीमती सिंधु एआईआर 2006 सुप्रीम कोर्ट टी व्हाई 66 के प्रकरण में कहा गया है कि जहां कोई ब्याज या तो बीमा की संविदा के अधीन या किसी कानून के अधीन या दावों के निपटारे की तारीख तक प्रीमियम के संदाय की क्रमिक तारीख को ब्याज अधिनियम 1978 के अधीन संदेय नहीं था वहां उपभोक्ता फोरम द्वारा ब्याज का निर्णय अनुचित माना गया।

    क्षतिपूर्तिधारी के अधिकार (धारा - 125)

    भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 124 के अंतर्गत क्षतिपूर्ति के संबंध में उल्लेख किया गया है तथा क्षतिपूर्ति की संविदा कौन सी संविदा होती है इस पर स्पष्ट दिशा निर्देश दिए गए, पर धारा 124 केवल क्षतिपूर्ति की संविदा क्या होती है इस संदर्भ में उल्लेख कर रही है परंतु क्षतिपूर्तिधारी के अधिकारों पर कोई उल्लेख नहीं है, उस पर कोई प्रावधान नहीं है।

    धारा 125 क्षतिपूर्तिधारी के अधिकार के संबंध में उल्लेख कर रही है। इस धारा में स्पष्ट है कि दाता के क्या दायित्व होंगे और धारी के क्या अधिकार होंगे!

    यह धारा क्षतिपूर्तिधारी के अधिकार का उल्लेख उस स्थिति में करती है जबकि उस पर वाद चलाया जाता है अर्थात कि यह धारा छतिपूर्तिधारी को उन दशाओं में उपलब्ध अधिकारों का उल्लेख करती है जबकि उसके विरुद्ध वाद चलाया गया हो परंतु धारा के अंतर्गत उस दशा में क्षतिपूर्तिधारी के सुलभ अनुदेशकों का उल्लेख नहीं किया गया है जबकि उस पर वाद नहीं चलाया गया है।

    यह क्षतिपूर्ति जिसे देने हेतु से बाध्य किया जाता है किसी ऐसे बाध्य की प्रतिरक्षा हेतु समरूप मूल्य और ऐसे वाद के अधीन संदाय की गई कोई धनराशि जहां कोई धनराशि किसी बैंक में जमा की गई है जो सरकार के साथ में की गई संविदा के अधीन था किसी संविदात्मक दायित्व के अभाव में बैंकर का यह दायित्व है कि वह उक्त रकम जमाकर्ता को दें और वह संदाय (भुगतान) को रोक नहीं सकता।

    क्षतिपूर्ति की संविदा का वचनग्रहिता अपने अधिकार क्षेत्र के अंदर कार्य करते हुए वचनदाता से धारा 125 के अंतर्गत निम्नलिखित वसूल कर सकता है-

    1)- वे सभी हानियां जिसके संदाय हेतु वह जिसे ऐसे वाद में विवश किया जाए जो किसी ऐसी बात के बारे में हो जिसे क्षतिपूर्ति करने का वचन लागू हो।

    2)- वह समस्त खर्चे जिसे वह देने के लिए विवश किया जाता है। यदि वह वाद लाने या प्रतिरक्षा करने में उससे वचनदाता के आदेशों का उल्लंघन किया है और करार इस प्रकार का हो कि जिस प्रकार का कार्य करना क्षतिपूर्ति की किसी संविदा के अभाव में उसके लिए प्रज्ञामुक्त होगा अथवा यदि वचनदाता ने वह वाद लाने का प्रतिरक्षा करने के लिए उसे प्राधिकृत किया हो।

    3)- वह समस्त धन राशियां जो उसने किसी विवाद के किसी समझौते के निबंधनों के अधीन दी थी हो यदि वह समझौता वचनदाता के आदेशों के प्रतिकूल न रहा हो और ऐसा रहा हो जो क्षतिपूर्ति की संविदा के अभाव में वचनग्रहिता के लिए करना प्रज्ञायुक्त होगा अथवा क्षतिपूर्तिदाता ने उसे मामले का समझौता करने के लिए प्राधिकृत किया हो।

    स्मिथ बनाम हवेल 1851 (155 ई आर 379) के प्रकरण में यह निर्धारित किया गया कि पक्षकार उन अधिकारों को वसूलने के लिए अधिकृत है जो परिस्थितियों के अनुसार यथोचित एवं न्याय संगत है।

    एक प्रकार से यह धारा 125 क्षतिपूर्तिधारी को उपचार उपलब्ध कर रही है। इस धारा के अनुसार जिस व्यक्ति को क्षतिपूर्ति का वचन दिया गया है वह व्यक्ति क्षतिपूर्ति नहीं होने की स्थिति में न्यायालय से उपचार प्राप्त कर सकता है। क्षतिपूर्ति के संबंध में भारतीय संविदा अधिनियम ने इस धारा में उपचार का समावेश कर क्षतिपूर्ति से संबंधित समस्त प्रावधान कर दिए है।

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