यह सीरीज संविदा विधि से संबंधित आलेखों को लेकर प्रारंभ की जा रही है। इस सीरीज के अंतर्गत संविदा विधि से संबंधित समस्त महत्वपूर्ण प्रावधानों को टीका टिप्पणी सहित सारगर्भित आलेखों में समावेश किया जा रहा है। इस सीरीज का उद्देश्य विधि के छात्रों और कानूनी जानकारी प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्तियों को सरल से सरलतम भाषा में संविदा विधि की सभी महत्वपूर्ण जानकारियां उपलब्ध कराना है। यह इस सीरीज का प्रथम आलेख है जिसके माध्यम से संविदा विधि के अर्थ और उस पर संबंधित महत्वपूर्ण बातों पर चर्चा की जा रही है तथा उसकी धारा 1 का उल्लेख किया जा रहा है।
संविदा विधि (Law of Contract)
संविदा विधि सिविल मामलों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण विधि हैं। यह विधि सिविल मामलों में ऐसा ही महत्व रखती है जैसा महत्व प्रशासनिक विधि के मामले में संविधान का है। इस विधि के बाद ही अन्य विधियों का जन्म हुआ है। भारत में संविदा विधि से संबंधित सर्वाधिक महत्वपूर्ण अधिनियम भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (इंडियन कॉन्ट्रैक्ट एक्ट, 1872) अधिनियमित है।
भारत में अंग्रेज शासन काल के समय इस अधिनियम को भारत में सिविल विधि को समृद्ध बनाने हेतु बनाया गया था। अंग्रेज शासन काल को अपने कंपनी संबंधित अनुबंध करने होते थे उस आवश्यकता की पूर्ति हेतु इस प्रकार के अधिनियम का निर्माण हुआ। समय के साथ यह अधिनियम गतिशील होता रहा और समय समय पर आने वाले वादों से यह अधिनियम और समृद्ध हो गया तथा इसमें नित नूतन परिवर्तन होते गए, आज यह अधिनियम अपने सर्वाधिक परिष्कृत रूप में भारत में प्रचलित है।
भारतीय संविदा विधि का संबंध मानवी जिज्ञासा से है जो विधि द्वारा शासित होता है तथा जिसका संबंध संविदा के संव्यवहार से है। मानव जाति के इतिहास में यह एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह उसी प्रकार अपेक्षित एवं महत्वपूर्ण है जिस प्रकार संविधान की महत्ता राष्ट्रीय प्रशासनिक व्यवस्था के संदर्भ में है।
संविदा विधि कई दृष्टि से महत्वपूर्ण है। मानव जाति की आवश्यकता इस प्रकार है कि उसे संव्यवहार करना पड़ता है यह उसकी आवश्यकता है अथवा यह कहा जा सकता है कि संविदा मानव जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण भाग है।
जब कोई मनुष्य लेनदेन अथवा कोई व्यवहार करता है तो उसमें उन बातों का उल्लेख करता है जो संविदा के संदर्भ में होती हैं तथा जिन से संविदा की प्रकृति पर प्रभाव पड़ता है। यदि संविदा विधि अस्तित्व में न होती तो मानव जीवन से संबंधित बहुत सी परेशानियां भी पैदा होती। संविदा विधि के द्वारा उक्त संव्यवहारों में एकरूपता स्थापित होती है तथा किसी भी प्रकार की अनिश्चितता अस्पष्टता दूर होती है।
संविदा अधिनियम 1872 का महत्व इसलिए भी है क्योंकि मनुष्य जब कोई कार्य अथवा संव्यवहार संपादित करता है तो अस्मिता का भाग माना जाता है। यदि कोई मनुष्य कोई विशिष्ट कार्य संपादित करने के लिए सहमत होता है किंतु यदि वह अपना कार्य संपादित करने में असफल रहता है तो ऐसी स्थिति में दूसरे व्यक्ति को क्या उपचार प्राप्त होंगे?
ऐसी स्थिति में संविदा विधि की अपेक्षा होती है जिसके द्वारा उक्त प्रथम व्यक्ति को अपने कर्तव्य के निष्पादन हेतु बाध्य किया जाता जिससे दूसरे व्यक्ति को कोई हानि नहीं हो। ऐसी स्थिति में बहुत सी समस्याएं हल होती हैं।
जॉन ऑस्टिन और इंग्लैंड के विद्वान न्याय मूर्तियों द्वारा एक शताब्दी पूर्व उपरोक्त संदर्भ में विचार किया गया। इससे संबंधित समस्या पर विचार करने के पर कुछ बातें निकल कर आई जिससे यह समृद्घ संविदा विधि का निर्माण हुआ।
भारत राज्य की सीमा के भीतर रहने वाले लोग आपस में कोई भी संव्यवहार करते हैं तो ऐसे संव्यवहार से संबंधित स्पष्ट विधि की आवश्यकता होती है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही संविदा अधिनियम, 1872 का महत्व सर्वाधिक हो जाता है।
जैसे कि एक व्यक्ति अपना घोड़ा बेचना चाहता है दूसरे व्यक्ति को घोड़े को खरीदने के लिए प्रस्ताव दिया दूसरे व्यक्ति ने घोड़ा खरीदने के लिए स्वीकृति दे दी, यह संव्यवहार हो गया।
अब दोनों एक दूसरे से मुकर नहीं सकते यदि दोनों एक दूसरे के वचन से मुकरते है तो ऐसी परिस्थिति में संविदा अधिनियम, 1872 के प्रावधान लागू होंगे और यहां पर इस बात पर बल दिया जाएगा किस प्रकार के संव्यवहार से किसी पक्षकार को कोई क्षति तो नहीं हुई है।
इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि इस अधिनियम का भारत राज्य के भीतर कितना महत्व है। संपूर्ण सिविल विधि के लिए यह अधिनियम मील के पत्थर की तरह हैं।
अधिनियम का उद्देश्य ज्ञात करने के लिए प्रस्तावना अधिनियम की पृष्ठभूमि और सामाजिक आर्थिक स्थितियों, परंपराओं तथा उस समय की आवश्यकताओं को देखा जाता है जबकि अधिनियम पारित किया गया था।
भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (धारा-1)
भारतीय संविदा अधिनियम को समझने के लिए इसकी मूल 30 धाराओं को समझना अत्यंत आवश्यक है। प्रारंभ की 1 से लेकर 30 तक की धाराएं सर्वाधिक महत्वपूर्ण धाराएं है। इस अधिनियम के मूल आधारभूत ढांचे को इन 30 धाराओं के भीतर समझाने का प्रयास कर दिया गया है। यदि इन 30 धाराओं को इनके मूल मर्म के साथ समझने का प्रयास किया जाए तो समस्त संविदा विधि को अत्यंत सरलता के साथ समझा जा सकता है। लेखक अपनी इस सीरीज में इन तीस धाराओं को सरलता पूर्वक समझाने का प्रयास करेगा।
इस अधिनियम की धारा- 1 इस अधिनियम का नाम उसके विस्तार के संबंध में उल्लेख कर रही है।
इस अधिनियम का नाम भारतीय संविदा अधिनियम 1872 है। इसका विस्तार जम्मू कश्मीर राज्य के सिवाय संपूर्ण भारत पर है और यह 1872 के सितंबर के महीने की 1 तारीख से अधिनियमित हुआ है।
मौजूदा संशोधनों में जम्मू कश्मीर राज्य पुनर्गठन अधिनियम 2019 आने पर इस अधिनियम का विस्तार संपूर्ण भारत पर हो गया है। जम्मू कश्मीर राज्य को दो हिस्सों में विभाजित कर दिया है।
इस अधिनियम की धारा- 1 स्पष्ट और सरल धारा है जिसे सरलता से समझा जा सकता है। धारा केवल इस अधिनियम के नाम का उल्लेख कर रही है और या अधिनियम कहां-कहां पर प्रयोग होगा इसकी प्रयोज्यता कहाँ कहाँ होगी इस संदर्भ में उल्लेख कर रही है।
यह अधिनियम किसी विशेष रूढ़ि अथवा प्रथा को प्रभावित नहीं करता है। भारतीय संविदा अधिनियम के अभिव्यक्त उपबंधों से असंगत रूप में किसी बात को परिवर्तित नहीं कराया जा सकता।
इरावडी फ्लोटिला कंपनी बनाम बगवांड्स 1891 कलकत्ता 620 के पुराने मामले में कहा गया है कि भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 190 और 211 आदि में रूढ़ि और प्रथाओं का समावेश किया गया है। इस अधिनियम के अंतर्गत रूढ़ि और प्रथाओं को वहीं तक मान्यता है जहां तक वह इस अधिनियम के उद्देश्य और उसके प्रावधानों से असंगत नहीं होती हैं तथा उनमें युक्तियुक्तता होती है।
अगले आलेख में इस अधिनियम की सर्वाधिक महत्वपूर्ण धारा (धारा-2) जिसके अंतर्गत इस अधिनियम का निर्वाचन खंड दिया गया है उसका उल्लेख किया जाएगा। वह इस अधिनियम की परिभाषा वाली धारा भी है तथा उस धारा को इस अधिनियम की उद्देशिका भी माना जा सकता है।