अनुसूचित जनजातियों को प्राप्त वन अधिकार के बारे में जानिए

Shadab Salim

31 Oct 2021 4:30 AM GMT

  • अनुसूचित जनजातियों को प्राप्त वन अधिकार के बारे में जानिए

    अनुसूचित जनजातियों को जंगलों का जागीरदार कहा गया है। यह जातियां प्राचीन समय से वनों में निवास कर रही है और वनों को संरक्षित करने में इन जातियों का बहुत बड़ा योगदान है। यह जातियां वनों में रहकर अपना जीवन व्यतीत करती हैं और वनों से ही अपनी जीविका का पार्जन करती है। राज्य पर यह कर्तव्य था कि वह इन जातियों के अधिकारों को सुरक्षित तथा इनके वन अधिकारों को स्पष्ट कर दें।

    इन जातियों को वनों के उपभोग का अधिकार प्राप्त है। एक प्रकार से वनों की मालिक राज्य है परंतु उनके उपभोग का अधिकार अनुसूचित जनजातियों को प्राप्त है।

    इस उद्देश्य से भारत की संसद द्वारा 'अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 पारित किया गया।

    इस अधिनियम का विस्तार संपूर्ण भारत पर है। यह अधिनियम अनुसूचित जनजाति के वन अधिकारों को मान्यता देता है।

    वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य परम्परागत, वन निवासियों के मान्यताप्राप्त अधिकारों में, दीर्घकालीन उपयोग के लिए जिम्मेदारी और प्राधिकारी, जैव विविधता का संरक्षण और पारि संतुलन को बनाए रखना और वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों को जीविका तथा खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करते समय वनों को संरक्षण व्यवस्था को सुदृढ़ करना भी इस अधिनियम में सम्मिलित है।

    औपनिवेशिक काल के दौरान तथा स्वतंत्र भारत में राज्य वनों को समेकित करते समय उनकी पैतृक भूमि पर वन अधिकारों और उनके निवास को पर्याप्त रूप से मान्यता नहीं दी गई थी, जिसके परिणामस्वरूप वन में निवास करने वाली उन अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के प्रति ऐतिहासिक अन्याय हुआ है; जो वन पारिस्थितिकी प्रणाली को बचाने और बनाए रखने के लिए अभिन्न अंग है।

    यह आवश्यक हो गया है कि वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों की, जिसके अन्तर्गत वे जनजातियाँ भी हैं, जिन्हें राज्य के विकास से उत्पन्न हस्तक्षेप के कारण अपने निवास दूसरी जगह बनाने के लिए मजबूर किया गया था, लम्बे समय से चली आ रही भूमि सम्बन्धी असुरक्षा तथा वनों में पहुँच के अधिकारों पर ध्यान दिए जाने के उद्देश्य से यह अधिनियम बनाया गया।

    इस अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत अनुसूचित जनजातियों और परंपरागत वन निवासियों को निम्नलिखित वन अधिकार प्राप्त है:-

    (1) इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए, वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के सभी वनभूमि पर निम्नलिखित वन अधिकार होंगे, जो व्यक्तिगत या सामुदायिक भूधृति या दोनों को सुरक्षित करते हैं-

    (क) वन में निवास करने वालो अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासियों के किसी सदस्य या किन्हीं सदस्यों द्वारा निवास के लिए या जीविका के लिए स्वयं खेती करने के लिए व्यक्तिगत या सामूहिक अधिभोग के अधीन वन भूमि को धारित करने और उसमें रहने का अधिकार।

    (ख) निस्तार के रूप में सामुदायिक अधिकार, चाहे किसी भी नाम से ज्ञात हों, जिनके अन्तर्गत तत्कालीन राजाओं के राज्यों, जमींदारी या ऐसे अन्य मध्यवर्ती शासनों में प्रयुक्त अधिकार भी सम्मिलित हैं।

    (ग) गौण वन उत्पादों के, जिनका गाँव की सीमा के भीतर या बाहर पारंपरिक रूप से संग्रह किया जाता रहा है, स्वामित्व संग्रह करने के लिए पहुँच, उनका उपयोग और व्ययन का अधिकार रहा है।

    (घ) यायावरी या चरागाही समुदायों को मत्स्य और जलाशयों के अन्य उत्पाद, चरागाह (स्थापित और घुमक्कड़ दोनों) के उपयोग या उन पर हकदारी और पारम्परिक मौसमी संसाधनों तक पहुँच के अन्य सामुदायिक अधिकार।

    (ङ) वे अधिकार, जिनके अन्तर्गत आदिम जनजाति समूहों और कृषि पूर्व समुदायों के लिए गृह और आवास की सामुदायिक भू-धृतियां भी हैं।

    (च) किसी ऐसे राज्य में, जहाँ दावे विवादग्रस्त है, किसी नाम पद्धति के अधीन विवादित उस पर के अधिकार ।

    (च च) वन भूमि पर हक के लिए किसी स्थानीय प्राधिकरण या किसी राज्य सरकार द्वारा जारी भूमि में या पट्टों या भूतियों या अनुदानों के संपरिवर्तन के अधिकार।

    (ज) वनों के सभी वन ग्रामों, पुराने आवासों, असवैक्षित ग्रामों और अन्य ग्रामों के बसने और संपरिवर्तन के अधिकार, चाहे वे राजस्व ग्रामों में लेखबद्ध हों, अधिसूचित हो अथवा नहीं।

    (घ) ऐसे किसी सामुदायिक वन संसाधन का संरक्षण, पुनर्जीवित या संरक्षित या प्रबन्ध करने का अधिकार, जिसकी वे सतत् उपयोग के लिए परम्परागत रूप से संरक्षा और संरक्षण कर रहे हैं।

    (ञ) ऐसे अधिकार, जिनको किसी राज्य की विधि या किसी स्वशासी जिला परिषद् या स्वशासी क्षेत्रीय परिषद् को विधियों के अधीन मान्यता दी गई है या जिन्हें किसी राज्य को संबंधित जनजाति की किसी पारम्परिक या रूढ़िगत विधि के अधीन जनजातियों के अधिकारों के रूप में स्वीकार किया गया है।

    (ट) जैव विविधता तक पहुँच का अधिकार और जैव विविधता तथा सांस्कृतिक विविधता से संबंधित बौद्धिक संपदा और पारंपरिक ज्ञान का सामुदायिक अधिकार।

    (ठ) कोई ऐसा अन्य पारंपरिक अधिकार जिसका, यथास्थिति, वन में निवास करने वालो उन अनुसूचित जनजातियों या अन्य परम्परागत वन निवासियों द्वारा रूगत रूप से उपभोग किया जा रहा है, जो खंड (क) से खंड (ट) में वर्णित है, किन्तु उनमें किसी प्रजाति के वन्य जीव का शिकार करने या उन्हें फैसाने या उनके शरीर का कोई भाग निकालने का परम्परागत अधिकार नहीं है।

    (इ) पुनर्वास का अधिकार, जिसके अन्तर्गत वन मामलों में आनुकल्पिक भूमि भी है जहाँ अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों को 13 दिसम्बर, 2005 के पूर्व किसी भी प्रकार की वनभूमि से पुनर्वास के उनके वैध हक प्राप्त किए बिना अवैध रूप से बेदखल या विस्थापित किया गया हो।

    (2) वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 (1980 का 69) में किसी बात के होते हुए भी केन्द्रीय सरकार सरकार द्वारा व्यवस्थित निम्नलिखित सुविधाओं के लिए वन भूमि के परिवर्तन का उपबन्ध करेगी जिसके अन्तर्गत प्रति हेक्टेयर पचहत्तर से अनधिक पेड़ों का गिराया जाना भी है अर्थात् :-

    (क) विद्यालयः

    (ख) औषधालय या अस्पताल:

    (ग) आंगनबाड़ी:

    (घ) उचित कीमत की दुकानें:

    (ङ) विद्युत और दूरसंचार लाइनें:

    (घ) टंकियों और अन्य लघु जलारा:

    (छ) पेयजल की आपूर्ति और जल पाइप लाइनें:

    (ज) जल या वर्षा जल संचयन संरचनाएँ:

    (घ) लघु सिंचाई नहरें:

    (ञ) अपारम्परिक ऊर्जा स्रोतः

    (2) कौशल उन्नयन या व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्र: (ठ) सड़कें और परन्तु वन भूमि के ऐसे परिवर्तन को तभी अनुज्ञात किया जाएगा, जब:-

    (1) इस उपधारा में वर्णित प्रयोजनों के लिए परिवर्तित को जाने वाली वनभूमि ऐसे प्रत्येक मामले में एक हेक्टेयर से कम है; और

    (2) ऐसी विकासशील परियोजनाओं की अनापत्ति इस शर्त के अधीन रहते हुए होगी कि उसकी सिफारिश ग्राम सभा द्वारा की गई हो।

    Next Story