जानिए साक्ष्य विधि में मरने से पहले दिए गए बयान का महत्व

Shadab Salim

29 Jan 2020 12:59 PM GMT

  • जानिए साक्ष्य विधि में मरने से पहले दिए गए बयान का महत्व

    भारतीय साक्ष्य अधिनियम में मृत्युकालिक कथन (Dying declaration) का अत्यधिक महत्व है। मृत्युकालिक कथन याने मरने से पहले दिया गया बयान। साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) के अंतर्गत मृत्युकालिक कथन का वर्णन किया गया है तथा मृत्युकालिक कथन को साक्ष्य के अंदर अधिकारिता दी गई है। साक्ष्य अधिनियम में सुसंगत तथ्य क्या होंगे इस संबंध में एक पूरा अध्याय दिया गया है, इस अध्याय के अंदर ही धारा 32 का भी समावेश है। इस धारा के अंतर्गत यह बताने का प्रयास किया गया है कोई भी कथन मृत्युकालिक कथन है तो उसे सुसंगत माना जाएगा।

    मृत्युकालिक कथन (Dying declaration)

    व्यक्ति अपने ईश्वर से मिलने वाला होता है, अंतिम समय बिल्कुल निकट होता है, तो ऐसा माना जाता है कि इसे अंतिम समय में वह व्यक्ति अपने मुंह में झूठ लेकर नहीं मरता है। हर व्यक्ति सच कह कर मृत्यु को प्राप्त होता है। मृत्युकालिक कथन को यह माना गया है कि यह अंतिम सत्य है।

    यदि कोई व्यक्ति मृत्यु के समय अपना कथन दे रहा है जब जीवन की कोई आशा नहीं बचती है, जब संसार का कोई मोह नहीं बचता है, ऐसी स्थिति में कोई व्यक्ति मृत्युकालिक कथन कहता है तो भारत के साक्ष्य अधिनियम में उस कथन को सुसंगत माना गया है। यह कथन मृत्यु के संबंध में ही ग्रहण किया जाएगा या फिर मृत्यु जिन संव्यवहार से हुई है उस परिस्थिति में मृत्युकालिक कथन ग्रह्यम है।

    मृत्युकालिक कथन को केवल मृत्यु के समय कह गया कथन ही नहीं माना गया है। इसमें कुछ तत्वों का भी समावेश किया गया है तथा समय-समय पर भारत के न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय के आधार पर मृत्यु कालिक कथन की एक विस्तृत उपेक्षा की गई है तथा मृत्यु कालिक कथन पर समय-समय पर परिवर्तन होते रहे है।

    'किसी अनुपस्थित व्यक्ति का कथन तब साबित किया जा सकता है जब उसकी मृत्यु के कारण के बारे में था या संव्यवहार की किसी परिस्थिति के बारे में किया गया था, जिसके फलस्वरूप उसकी मृत्यु हुई और मामले में उस व्यक्ति की मृत्यु का कारण प्रश्नगत है।ऐसा कथन प्रत्येक ऐसी कार्यवाही में सुसंगत होगा जिसमे उसकी मृत्यु का कारण प्रश्नगत हो।'

    इंग्लिश विधि में मृत्युकालिक कथन का महत्व है। एक पुराने मुकदमे में आर बनाम वुडकॉक में बताया गया है। आरोपी पर अपनी पत्नी की हत्या का आरोप था। हत्या की परिस्थितियों के बारे में पत्नी का कथन एक मजिस्ट्रेट ने अभिलेखन किया। इसके 24 घंटे के बाद स्त्री की मृत्यु हुई, उसने बार-बार दोहराया कि उसका पति क्रूरता का व्यवहार करता था। अंतिम क्षण तक होश में रही और अपने होने वाले विघटन की कोई कल्पना भी नहीं कर रही थी।

    भारतीय साक्ष्य अधिनियम एवं धारा 32(1) मृत्युकालिक कथन की अवधारणा

    इंग्लिश विधि के कई बारीकी तथा तकनीकी मुद्दे धारा 32 (1) में नहीं लाए गए थे, जिस बात पर महत्वपूर्ण रूप से उपधारा इंग्लिश विधि से अलग हुई है। वह यह है कि यह आवश्यक नहीं है कि कथनकर्ता की मौत की आशा से घिर चुका हो,अगर कथनकर्ता वास्तव में मर गया है और उसका कथन मृत्यु की परिस्थितियों पर प्रकाश डालता है, सुसंगत होगा चाहे उस समय मृत्यु होने का कारण भी न पैदा हुआ हो।

    इसका सांविधिक परिणाम धारा 32(1) स्वयं है,और न्यायिक प्रमाण प्रिवी कौंसिल का एक मामला है जिसे पाकला नारायण स्वामी बनाम सम्राट का मामला कहा जाता है।

    इस मामले में मृतक ने पाकला नारायण स्वामी नामक व्यक्ति से कुछ रुपए कर्ज पर उधार लिए थे तथा वह इन्हें चुका नहीं पा रहा था। पाकला नारायण द्वारा उसे समय-समय पर कर्ज़ अदा करने के लिए धमकियां दी जा रही थी। स्वामी ने ऐसी धमकियां पत्र के माध्यम से दी थी तथा मृतक की पत्नी के पास पत्र उपलब्ध थे।

    जब मृतक पाकला नारायण स्वामी से मिलने उसके शहर जा रहा था तो अपनी पत्नी से कह कर गया था कि वह पाकला नारायण से मिलने उसके शहर बरहामपुर जा रहा है। कुछ समय बाद मृतक की लाश एक ट्रंक से बरामद हुई। न्यायालय ने पाकला नारायण स्वामी को मुकदमे में दोषी माना क्योंकि जो ट्रंक से मृतक की लाश बरामद हुई थी उसे पाकला नारायण स्वामी द्वारा खरीदा गया था तथा मृतक अपनी पत्नी को यह अपने अंतिम कथन कह कर गया था वह बरहामपुर स्वामी के पास जा रहा है। इस कथन को मृत्युकालिक कथन माना गया है।

    मृत्यु के समय ही कथन का होना आवश्यक नहीं है

    मृत्यु कालिक कथन को केवल इस आधार पर निरस्त नहीं किया जा सकता की मृत्युकालिक कथन मृत्यु के समय नहीं कहा गया था। मृत्युकालिक कथन किसी भी समय कहा जा सकता है तथा इस कथन का संबंध घटना और परिस्थितियों से होना चाहिए।

    इस मामले में उच्चतम न्यायालय का एक मुकदमा है जिसे शरद बिरदी चंद्र शारदा बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के नाम से जाना जाता है।

    उच्चतम न्यायालय ने इंगित किया है कि कथन का संबंध आवश्यक रूप से मृत्यु के कारण एवं मृत्यु पैदा करने वाले संव्यवहार की परिस्थितियों से होना चाहिए। इस मामले में एक विवाहित स्त्री की विवाह के 4 महीने बाद ही ससुराल में मृत्यु हो गयी।

    उन चार महीनों में वह अपनी दशा के बारे में अपनी बहन तथा अन्य संबंधियों को पत्र लिखती रही थी। निर्णय किया पत्र धारा 32(1)के अंतर्गत सही रूप से सुसंगत थे क्योंकि वह मृत्यु के कारण का वर्णन कर रहे थे।

    मणिबेन बनाम स्टेट ऑफ गुजरात एआईआर 2007 सुप्रीम कोर्ट 1932 के मामले में कहा गया है कि मृत्युकालिन घोषण की ग्राह्यता के लिए आवश्यक नहीं कि मृत्यु ऐसी घोषणा के तुरंत बाद हो जाए। मात्र इस आधार पर कि मृत्यु कुछ दिनों बाद हुई है, ऐसे कथन को खारिज नहीं किया जा सकता।

    पुष्टि की आवश्यकता नहीं होती है

    किसी भी मृत्युकालिक कथन में पुष्टि की आवश्यकता नहीं होती है। शांति बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि मृत्यु कालिक कथन में पुष्टि आवश्यक नहीं होती है,क्योंकि हो सकता है कि स्वतंत्र गवाह पुष्टि करने के लिए मिल ही ना पा रहे हों।

    परंतु मृत्युकालिक कथन को विश्वास योग्य मानने से पूर्व उचित सावधानी तथा सतर्कता का प्रयोग किया जाना चाहिए। जब कथन के बारे में यह लगे कि वह विश्वसनीयता के साथ था तो इसके आधार पर दोषसिद्धि की जा सकती है। मृत्युकालिक कथन ऐसा होना चाहिए जो विश्वास पैदा करे और यह ना लगे कि मृतक को सिखा पढ़ा दिया था।

    पुलिस के समक्ष किया गया मृत्युकालीन कथन

    कोई मृत्युकालिक कथन पुलिस के समक्ष भी किया जा सकता है तथा पुलिस इस मृत्युकालिक कथन को एफआईआर रिपोर्ट में दर्ज कर सकती है। के रामाचंद्र रेड्डी के मामले में एक व्यक्ति थाने में प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखाने आया। वह व्यक्ति अत्यंत घायल था, रिपोर्ट लिखाने के बाद 1 घंटे के भीतर उस व्यक्ति की मौत हो गई। न्यायालय द्वारा इस कथन को उसका मृत्युकालिक कथन माना गया एवं उसे सुसंगत माना गया।

    बचाव पक्ष की यह दलील थी कि यह कथन पुलिस को किया गया है, इसलिए इस कथन को मृत्युकालिक कथन नहीं माना जाए परंतु उच्चतम न्यायालय ने एक अपने अन्य निर्णय के अनुसार मृत्युकालीन कथन का मात्र इस आधार पर निरस्त करने से इंकार कर दिया कि वह पुलिस द्वारा दर्ज किया गया था। यह जरूरी नहीं है कि कोई भी मृत्युकालिक कथन मजिस्ट्रेट द्वारा ही मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में दर्ज किया जाए।

    इशारों के माध्यम से भी मृत्युकालिक कथन किया जा सकता है

    कोई मृत्यु कालिक कथन इशारों के माध्यम से भी किया जा सकता है, एवं यह कथन ग्राह्यम होगा। यह इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पूर्ण न्यायपीठ में क्वीन बनाम अब्दुल्लाह के मामले में प्रतिपादित किया था।

    इस मामले में एक लड़की का गला काटकर मारा गया था और इसलिए होश में होते हुए भी वह बोल नहीं पा रही थी। हाथों के इशारों से उसने अभियुक्त का नाम समझाया इसे मृत्युकालिक कथन माना गया।

    यदि मृत्युकालिक कथन करने वाला जीवित बच जाए तो उस परिस्थिति में प्रक्रिया

    यदि मृत्युकालिक कथनकर्ता जीवित रह जाए तो उसका कथन मृत्युकालिक कथन नहीं माना जाता है। वह केवल ऐसा कथन होगा जिसे अन्वेषण के दौरान किया गया। उसका कथन यदि मजिस्ट्रेट के समक्ष किया गया हो तो कथनकर्ता साक्षी के कटघरे में आकर बयान देता है तो उसके न्यायालय के काम में किए गए कथन को उसके पहले वाले कथन से संपुष्ट किया जा सकता है या काटा जा सकता है।

    धारा 157 इस बात की अनुज्ञा देती है कि किसी तथ्य के बारे में किसी साक्षी का भूतपूर्व कथन जो ऐसे अधिकारी के सामने किया गया हो जो उस तथ्य के अन्वेषण के लिए विधिक रूप से सक्षम हो ऐसे कथन को साबित किया जा सकता है।

    पागल व्यक्ति के मृत्युकालिक कथन पर विश्वास नहीं किया जा सकता

    एक मामले में यह तय किया गया है कि यदि किसी व्यक्ति द्वारा जो पागल या विकृत चित्त है कोई मृत्युकालिक कथन किया जा रहा है तो जिस समय वह कथन कर रहा है उस समय उस व्यक्ति की मनोदशा ठीक होनी चाहिए, इसका प्रमाण उपलब्ध कराना होगा तब ही मृत्युकालिक कथन को साबित माना जाएगा।

    मृत्युकालिक कथन एक महत्वपूर्ण साक्ष्य है तथा यदि इस कथन को अभियोजन द्वारा साबित कर दिया जाता है तो यह किसी भी मामले में अभियोजन पक्ष को मजबूत कर देता है।

    ऐसे कई मामले हैं जिनमें यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मृत्युकालिन घोषणा पर न्यायायल को यदि पूर्ण रूप से विश्वास हो जाता है तो इसके आधार पर आरोपी को दोषसिद्ध किया जा सकता है।

    दर्शन सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब (एआईआर 1983 सुप्रीम कोर्ट 554) के मामले में कहा गया कि मृत्युकालीन घोषण के आधार पर दोषसिद्धि के लिए कथनों को इतना अंत: विश्वसनीय होना अपेक्षित है, जिस पर पूर्ण विश्वास किया जा सके।

    केपी मणि बनाम तमिलनाडु राज्य (2006) 3 SCC मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सिर्फ़ मरने से तुरंत पहले के बयान के एकमात्र आधार पर भी दोषी ठहराया जा सकता है लेकिन यह विश्वसनीय होना चाहिए

    मृत्युकालिक कथन का कोई फॉर्मेट नहीं

    विभिन्न हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के कई मामलों में मृत्युकालिक कथन के निश्चित प्रारूप (फॉर्मेट) के बारे में सवाल उठा। इस पर यह माना गया कि न तो साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) और न ही सुप्रीम कोर्ट का कोई निर्णय ही कोई फॉर्मेट के बारे में बताया है जिसके अनुरूप किसी व्यक्ति का मृत्युपूर्व बयान रिकॉर्ड किया जाए।

    मृत्युकालिक कथन मौखिक हो सकता है या फिर लिखित। जहां तक मौखिक बयान का सवाल है, तो इसका अस्तित्व या इसको मरने वाले व्यक्ति को सुनाने और विस्तार से इसे समझाने का मुद्दा नहीं उठता। गणपत लाड और अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मृत्युकालिक कथन का कोई निश्चित फॉर्मेट नहीं होने की बात कही।

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