प्रति परीक्षण में गवाह के पक्षद्रोही (Hostile) हो जाने के क्या होते हैं परिणाम
Shadab Salim
23 Feb 2020 10:30 AM IST
किसी भी आपराधिक मामले में प्रति परीक्षण का अत्यधिक महत्व होता है। साक्षी की परीक्षा के विषय में प्रति परीक्षण महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रति परीक्षण को छलनी मानी जा सकता है, यह एक यात्रा है जिस यात्रा से गुजरने के बाद ही साक्षी के दिए कथन सत्यापित हो पाते हैं। कथनों को न्यायालय में साबित या नासाबित हुआ तब ही माना जा सकता है जब वह प्रतिपरीक्षा से गुजर जाते हैं।
साक्षी की जब उसे न्यायालय में बुलाने वाले व्यक्ति द्वारा परीक्षा ली जाती है, वह मुख्य परीक्षा (examination in chief) होती है। इस परीक्षा में साक्षी से वही परीक्षा लेता है जो व्यक्ति साक्षी को बुलाता है। परंतु न्यायालय साक्षी द्वारा दिए गए कथन को तब ही मान्यता देता है जब उसका प्रतिपरीक्षण (Cross-examination) कर लिया जाता।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम में प्रतिपरीक्षा से संबंधित धारा 145 है। इस धारा के अंतर्गत विरोधी पक्षकार साक्षी से प्रतिपरीक्षा करते हैं। यह प्रति परीक्षण किसी भी स्तर पर हो सकता है और विचारण की किसी भी प्रक्रिया में यह प्रति परीक्षण हो सकता है। मुख्यतः तो यह प्रतिपरीक्षा गवाहों के विचारण काल में ही होती है।
इस प्रति परीक्षण का मूल अर्थ यह है कि किसी साक्षी ने पूर्व में जो बात कही थी क्या अभी भी वह अपनी बात उन्हीं तथ्यों पर कायम है? वह अपनी कही हुई बात पर अटल है या नहीं। प्रति परीक्षण को करने का अर्थ किसी साक्षी की विश्वसनीयता की जांच करना है।
किसी भी आरोपी के दोषसिद्ध या दोषमुक्त होने तक की यात्रा में प्रति परीक्षण की महती भूमिका होती है। किसी भी साक्षी का बगैर प्रति परीक्षण किए किसी भी आरोपी को दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता है।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 145 के अनुसार
'किसी साक्षी की उन पूर्ववर्तन कथनों के बारे में,जो उसने लिखित रूप में किए हैं या जो लेखबद्ध किए गए हैं और जो प्रश्नगत बातों से सुसंगत है ,ऐसा लेख उसे दिखाए बिना या ऐसे लेकर साबित हुए बिना, प्रतिपरीक्षा की जा सकेगी, किंतु यदि उस लेख द्वारा खंडन करने का आशय है तो उस लेख को साबित किए जा सकने के पूर्व उसका ध्यान उस लेख के उन भागों की ओर आकर्षित करना होगा जिनका उपयोग उसका खंडन करने के प्रयोजन से किया गया है।'
किसी भी साक्षी की उसी के पूर्ववर्तन लेखबद्ध कथनों के बारे में बिना उसको वह कथन दिखाए या साबित किए प्रतिपरीक्षा की जा सकती है।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 137 के अंतर्गत मुख्य परीक्षा, प्रतिपरीक्षा एवं पुणःपरीक्षा तीनों का उल्लेख किया गया है।
किसी भी विचारण में सर्वप्रथम मुख्य परीक्षा की जाती है।
मुख्य परीक्षा के बाद विरोधी पक्षकार साक्षी की प्रतिपरीक्षा करता है।
यदि प्रतिपरीक्षा में कुछ प्रश्नों को जन्म मिलता है तो इन प्रश्नों के संबंध में साक्षी को बुलाने वाला जो साक्षी के मुख्य परीक्षा लेता है वही पुनः परीक्षा कर सकता है। ऐसी पुनःपरीक्षा न्यायालय के आदेश पर होती है।
प्रतिपरीक्षा में क्या विधि पूर्ण प्रश्न पूछे जा सकते हैं
प्रति परीक्षण विचारण की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। प्रति परीक्षण में क्या प्रश्न विधि पूर्ण होंगे और किस तरह के प्रश्न पूछे जा सकते हैं यह भी भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 146 में बताया गया है।
किसी भी परीक्षा में जो मुख्य परीक्षा होती है, उस मुख्य परीक्षा में साक्षी से केवल वही पूछा जा सकता है जो तथ्यों से संबंधित है परंतु प्रतिपरीक्षा का यह महत्व है कि उसमें जो मुख्य परीक्षा में कहा गया है उसके आधार पर ही प्रश्न किए जाने की कोई बाध्यता नहीं है।
इस आधार से हटकर भी प्रतिपरीक्षा करने वाला साक्षी से प्रश्न कर सकता है परंतु इन प्रश्नों के लिए एक सीमा बांधी गई है निर्देश दिया गया है जिसमें यह बताया गया है कि क्या विधि पूर्ण प्रश्न हो सकते है।
पहला- उसकी सत्यवादिता परखने वाला प्रश्न
दूसरा-यह पता करने वाला कि वह कौन है! उसकी जीवन में स्थिति क्या है!
तीसरा-उसके शील को दोष लगाकर उसकी विश्वसनीयता को धक्का पहुंचाने वाला प्रश्न, चाहे ऐसे प्रश्नों का उत्तर उसे प्रत्यक्षतः या परोक्षतः किसी अपराध में फंसाने की प्रवृत्ति रखता हो या उसे किसी शास्ति या संपहरण के लिए उच्छन्न करता हो या प्रत्यक्ष या परोक्ष ऐसा करने की प्रवृत्ति रखता हो।
2002 में साक्ष्य विधान में संशोधन किया गया जिस संशोधन के अधीन यह प्रावधान किया गया कि किसी भी बलात्कार पीड़िता से उसके व्यभिचारणीय होने के बारे में प्रतिपरीक्षण नहीं किया जा सकता अर्थात किसी बलात्कार के मामले में जो भारतीय दंड संहिता की धारा 376 से संबंधित है उस मामले में पीड़ित पक्षकार से उसके चरित्र के संबंध में उसकी शील के संबंध में कोई ऐसा प्रश्न नहीं किया जा सकता जिस प्रश्न का उत्तर उस पीड़िता को व्यभिचारी सिद्ध करता हो।
किसी साक्षी की सत्यवादिता परखने का अर्थ यह है कि न्यायालय को दर्शाया जाए कि वह कितना ईमानदार है।यह कि वह कितने विश्वास का प्रतीक है ।उसकी जीवन में स्थिति जानने के लिए भी प्रश्न किए जा सकते है अर्थात की वहां कौन है!क्या करता है! उसकी जीविका के साधन क्या है!यह की साक्षी है या कहीं कोई पेशेवर साक्षी तो नहीं है जो धन के या संपत्ति के प्रतिफल के रूप में कोई साक्ष्य दे रहा हो।
इन सब बातों से न्यायालय को साक्षी की विशेषता के बारे में ज्ञान मिलता है।किसी साक्षी के शील को दोष लगाकर उसकी विश्वसनीयता को धक्का लगाने का मतलब है कि न्यायालय को दर्शाया जाए कि समाज में उसकी ख्याति क्या है अर्थात जिससे न्यायालय को यह पता लगे कि वह कुछ मान्यता रखता है या उसकी शील और आचरण ऐसा है कि न्यायालय उससे सत्य जानने की आशा नहीं कर सकता।
स्टीफन डाइजेस्ट ऑफ द लॉ ऑफ एविडेंस के मुताबिक, एक "पक्षद्रोही साक्षी/गवाह" को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में वर्णित किया जाता है, जो एक पार्टी के आग्रह पर, जिसके द्वारा वह बुलाया गया है, सत्य बताने या बोलने का इच्छुक नहीं है
"पक्षद्रोही" या "प्रतिकूल" गवाह जैसे शब्द, भारतीय साक्ष्य अधिनियम के लिए विदेशी हैं। शब्द "पक्षद्रोही गवाह" (hostile witness), "प्रतिकूल गवाह" (adverse witness), या "अनिच्छुक गवाह" (unwilling witness) अंग्रेजी कानून के शब्द हैं। गवाह को साक्ष्य देने के लिए बुलाने वाले पक्ष को प्रति परीक्षण की अनुमति नहीं देने के नियम को "पक्षद्रोही गवाह और प्रतिकूल गवाह" जैसे शब्दों को विकसित करके सामान्य कानून के तहत शिथिल किया गया है।
रवीन्द्र कुमार डे बनाम उड़ीसा राज्य 1977 SCR (1) 439 के मामले में यह कहा गया था कि एक गवाह को पक्षद्रोही गवाह और जिस पक्ष ने उसे बुलाया उसके द्वारा प्रतिपरीक्षा के लिए उसे उत्तरदायी तब माना जाना चाहिए, जब अदालत इस बात को लेकर संतुष्ट हो कि वह गवाह उस पक्ष के खिलाफ, जिसके लिए वह साक्षी के तौर पर पेश हुआ है, शत्रुतापूर्ण दुश्मनी (hostile animus) का भाव रखता है या वह सत्य बोलने के लिए तैयार नहीं है। यह बात सतपाल सिंह बनाम दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन AIR 1976 SC 294 के मामले में भी पक्षद्रोही गवाह का वर्णन करते हुए कही जा चुकी है।
दूसरे शब्दों में, सामान्य कानून के तहत एक पक्षद्रोही गवाह को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में वर्णित किया जाता है, जो उस पक्ष के आग्रह पर, जिसने उसे साक्ष्य देने के लिए बुलाया है, सच्चाई बताने के लिए इच्छुक नहीं है [गुरा सिंह बनाम राजस्थान राज्य, (2001) 2 SCC 205]
इसके अलावा तुलसी राम साहू बनाम आर. सी. पाल, AIR 1953 Cal. 160 के मामले में भी यह कहा गया था कि एक पक्षद्रोही गवाह/साक्षी वह होगा जिसके साक्ष्य देने के तरीके, हाव-भाव/व्यवहार से न्यायालय को यह प्रतीत होता हो कि वह सत्य बोलने का इच्छुक नहीं है. इसे ही बाद में उत्तर प्रदेश राज्य बनाम जग्गू AIR 1971 SC 1856 के मामले में भी दोहराया गया था।
एस. मुरुगेसन और अन्य वी. एस. एस. पेथपरूमल एवं अन्य 1999 (1) CTC 458 के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्णित किया गया था कि इससे पहले की किसी साक्षी/गवाह को पक्षद्रोही घोषित किया जाये, यह दिखाने के लिए कुछ सामग्री होनी चाहिए कि वह गवाह सच नहीं बोल रहा है या उसने उस पार्टी के लिए शत्रुता के एक तत्व को प्रदर्शित किया है जिस पार्टी के लिए वह गवाही दे रहा है।
केवल इसलिए कि साक्षी/गवाह सत्य बोल रहा है, जोकि उस पक्ष के अनुरूप नहीं है जिसके पक्ष में वह गवाही देने आया है बल्कि दूसरे पक्ष के अनुकूल है, संबंधित पक्ष को अपने स्वयं के गवाह का परिक्षण करने की अनुमति देने के विवेक का प्रयोग नहीं किया जा सकता है।
वहीं सतपाल सिंह बनाम दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन के मामले में यह कहा गया था कि 'पक्षद्रोही गवाह' के मामले में न्यायाधीश, उसके मुख्य परिक्षण को उस सीमा तक उसके प्रति परीक्षण में तब्दील करने की अनुमति दे सकता है, जितना वह न्याय के हित में आवश्यक समझता है।
हालाँकि जब गवाह/साक्षी अभियोजन पक्ष की ओर से बुलाया जाता हो तो उसे पक्षद्रोही करार दिए जाने के पैमाने थोड़े अलग हो सकते हैं. जैसा कि जी. एस. बक्शी बनाम राज्य AIR 1979 SC 569 के मामले में कहा गया था कि जब अभियोजन पक्ष का कोई गवाह, कुछ ऐसा कहकर पक्षद्रोही हो जाता है, जो अभियोजन के मामले के लिए विनाशकारी होता है, तो अभियोजन पक्ष यह प्रार्थना करने का हकदार होता है कि गवाह को पक्षद्रोही माना जाए।
इसके अलावा यदि वह व्यक्ति धारा 161 या धारा 164 दंड प्रकिया संहिता, 1973 के तहत कोई बयान दे चुका है और बाद में वह अपने पूर्व बयानों से पलटने या उसे अस्वीकार करने लगे तो भी उसे पक्षद्रोही करार देने की मांग की जा सकती है।