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सीपीसी आदेश-VIII : जवाब-दावा दाखिल करने की समय सीमा पर क्या है कानून?

जैसा कि हम जानते हैं कि एक लिखित कथन (या जवाबदावा), किसी मामले में वादी को प्रतिवादी की ओर से अदालत के जरिये दिया गया आधिकारिक उत्तर होता है, जिसमें प्रतिवादी, वादपत्र में दिए गए प्रत्येक आरोप या तथ्यों को या तो अस्वीकार या स्वीकार करता है। वादी द्वारा लगाए गए आरोप के खिलाफ प्रतिवादी का डिफेन्स क्या होगा, उसे यह अदालत को लिखित कथन के जरिये बताना होता है।
अभिव्यक्ति 'लिखित कथन' (Written Statement) विशिष्ट अर्थ का एक शब्द है, जो प्रतिवादी द्वारा वादी को दिए गए आधिकारिक उत्तर का संकेत देता है (भारतीय खाद्य निगम एवं अन्य बनाम यादव इंजीनियर और कॉन्ट्रेक्टर 1983 SCR (1) 95)। दूसरे शब्दों में, "लिखित कथन" प्रतिवादी का बचाव है।
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश VIII नियम 1 के मुताबिक, जवाबदावा दाखिल करने के लिए प्रतिवादी को उसपर समन तामील होने से 30 दिनों तक का समय दिया जाता हैं, हालाँकि इस अवधि को अदालत की अनुमति के बाद कुल 90 दिनों (30+60) तक बढ़ाया जा सकता है। मौजूदा लेख में हम यह जानेंगे कि आखिर इस समयाविधि को लेकर कानून क्या है और सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख निर्णय इसके विषय में क्या कहते हैं।
क्या 30 दिनों के भीतर जवाबदावा दाखिल करना है अनिवार्य?
जैसा कि हमने जाना, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश-VIII नियम 1 के अनुसार, प्रतिवादी पर समन तामील होने के 30 दिनों के भीतर, प्रतिवादी को अपने बचाव के लिए एक लिखित कथन (जवाबदावा) दर्ज करने की अनुमति दी गयी है।
गौरतलब है कि सिविल प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 2002 द्वारा इस नियम के अंतर्गत उल्लिखित 30 दिनों की अवधि को बढ़ाकर 90 दिनों (अधिकतम) के लिए किया गया है (हालाँकि इसके लिए कुछ शर्तों को पूरा होना आवश्यक है)। इसके लिए हम नियम 1 एवं इसमें जोड़े गए 'परन्तु' (Proviso) को देखते हैं। आदेश-VIII नियम 1 यह कहता है,
प्रतिवादी, उस पर समन तामील किए जाने की तारीख से तीस दिन के भीतर, अपनी प्रतिरक्षा का लिखित कथन प्रस्तुत करेगा :]
[परंतु जहां प्रतिवादी तीस दिन की उक्त अविध के भीतर लिखित कथन फाइल करने में असफल रहता है, वहां उसे ऐसे किसी अन्य दिन को लिखित कथन फाइल करने के लिए अनुज्ञात किया जाएगा जो न्यायालय द्वारा, उसके कारणों को लेखबद्ध करते हुए तय किया जायेगा, किन्तु जो समन के तामील की तारीख से नब्बे दिन के बाद का नहीं होगा।]
इसके अलावा सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 में मौजूद आदेश-VIII का नियम 10 यह कहता है,
जब न्यायालय द्वारा अपेक्षित लिखित कथन को उपस्थित करने में पक्षकार असफल रहता है तब प्रक्रिया - जहां ऐसा कोई पक्षकार, जिससे नियम 1 या नियम 9 के अधीन लिखित कथन अपेक्षित है, उसे, न्यायालय द्वारा, यथास्थिति, अनुज्ञात या नियत समय के भीतर उपस्थित करने में असफल रहता है वहां न्यायालय, उसके विरूद्ध निर्णय सुनाएगा या वाद के संबंध में ऐसा आदेश करेगा जो वह ठीक समझे और ऐसा निर्णय सुनाए जाने के पश्च्यात डिक्री तैयार की जाएगी।]
नियम 1 से यह स्पष्ट है कि आमतौर पर प्रतिवादी को 30 दिनों की अवधि के भीतर अपने बचाव के लिए लिखित कथन को दर्ज करने की आवश्यकता होती है। हालाँकि, उक्त नियम के लिए मौजूद प्रोविज़ो के अंतर्गत प्रतिवादी के कारणों को लेखबद्ध करके, 90 दिनों की अधिकतम अवधि के भीतर लिखित कथन को दर्ज करने की अनुमति देने के लिए न्यायालय के पास शक्तियां मौजूद हैं।
आदेश VIII, नियम 1 है निर्देशात्मक
हमे यह ध्यान में रखना चाहिए कि यह प्रावधान अदालत की इस शक्ति को नहीं छीनता है कि यदि जवाबदावा, अधिकतम 90 दिनों की सीमा के भीतर दायर नहीं किया गया है तो न्यायालय रिकॉर्ड पर लिखित कथन स्वीकार न कर सके। इसके अलावा, ऑर्डर VIII, नियम 1 में निहित प्रावधान की प्रकृति प्रक्रियात्मक है। यह ठोस कानून का हिस्सा नहीं है और इसलिए जरुरी नहीं कि इसका पालन सख्ती से किया जाये।
जिस प्रकार से ऑर्डर VIII नियम 1 अपनी मौजूदा स्थिति में है, वह प्रतिवादियों द्वारा मामले के निपटारे में देरी करने के अभ्यास को रोकने के लिए है। इस प्रावधान के जरिये यह सुनिश्चित किये जाने का प्रयास किया गया है कि न्याय की प्रक्रिया में तेजी लायी जा सके और निष्पक्षता को बनाये रखा जा सके। हालाँकि, जहाँ आवश्यकता हो वहां इस नियम का सख्ती से पालन किया जान आवश्यक नहीं होता है।
यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि यद्यपि ऑर्डर VIII नियम 1 में "समन की तारीख से नब्बे दिन के बाद का नहीं होगा" लिखा गया है, उससे यह जरुर प्रतीत होता है कि अधिकतम नब्बे दिन तक ही जवाबदावा दाखिल किया जा सकता है परन्तु वास्तविकता यह नहीं है।
वास्तव में, यदि इस अवधि के उपरांत जवाबदावा दाखिल किया जाए तो इसके परिणाम क्या होंगे, यह संहिता में नहीं बताया गया, हालाँकि उसे संहिता के अन्य प्रावधानों के मद्देनजर समझा अवश्य जा सकता है।
सिर्फ इसलिए क्योंकि कानून का यह प्रावधान, नकारात्मक भाषा में है और अनिवार्य चरित्र को दर्शाता है, उसका यह मतलब नहीं कि यह अपवादों के बिना है। अदालतों को, जब इस प्रावधान की प्रकृति की व्याख्या करने के लिए कहा जाता है, तो, उस पूरे संदर्भ को ध्यान में रखते हुए, जिसमें यह प्रावधान लागू किया गया था, मामले को देखा जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने कैलाश बनाम नान्हकु एवं अन्य (2005) 4 एससीसी 480 के मामले में यह कहा था कि आदेश VIII के नियम 1 को लागू करने के पीछे की वस्तु और उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए और जिस संदर्भ में यह प्रावधान संहिता में रखा गया है, यह साफ़ तौर पर कहा जा सकता है कि यह प्रावधान, निर्देशिका के रूप में संहिता में मौजूद है और यह अनिवार्य नहीं है अर्थात इसका पालन करना अदालतों के लिए अनिवार्य नहीं है और एक अदालत 90 दिन की अधिकतम सीमा के पश्च्यात भी जवाबदावे को स्वीकार कर सकती है।
क्या 90 दिनों (30+60) की इस अधिकतम अवधि से आगे भी लिखित कथन दाखिल किया जा सकता है?
हाँ, कुछ असाधारण परिस्थितियों में ऐसा किया जा सकता है। आमतौर पर, आदेश VIII, नियम 1 द्वारा निर्धारित समय का प्रतिवादी द्वारा सम्मान किया जाना चाहिए। प्रतिवादी को सतर्क रहना चाहिए कि जैसे ही उसपर समन तामील हो, उसे अदालत में अपनी उपस्थिति के लिए समन में बताई गयी तिथि के आने की प्रतीक्षा किए बिना अपने बचाव का प्रारूप तैयार करके अपना लिखित कथन दाखिल करना चाहिए।
कई मामलों में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि प्रतिवादी द्वारा मांगे गए समय का विस्तार और उसे स्वीकार किया जाना अदालतों द्वारा दिनचर्या का मामला नहीं बनाया जाना चाहिए और बहुत ध्यानपूर्वक ही इस शक्ति का प्रयोग किया जाना चाहिए।
इसलिए, इस बात पर जोर देना आवश्यक है कि 30 दिनों से आगे के समय के विस्तार की मांग का स्वीकार किया जाना एक स्वचालित प्रक्रिया नहीं है, अदालतों द्वारा इसका प्रयोग सावधानी के साथ और पर्याप्त कारणों के चलते किया जाना चाहिए और समन तामील होने के 90 दिनों से अधिक समय का विस्तार केवल तभी प्रदान किया जाना चाहिए जब ऐसे विस्तार देने के औचित्य की स्पष्ट संतुष्टि अदालतों को हासिल हो जाये - श्रीमती रानी कुसुम बनाम कंचन देवी एवं अन्य, 2005 (6) SCC 705
इसी कड़ी में एक महत्वपूर्ण वाद सलेम एडवोकेट बार एसोसिएशन (2) बनाम भारत संघ (2005) 6 SCC 344 का है। इस मामले में यह कहा गया था कि इस प्रावधान के स्वाभाव को समझने के लिए आदेश VIII नियम 10 से भी समर्थन प्राप्त किया जा सकता है (इस नियम को आप ऊपर लेख में पढ़ सकते हैं), जो इस विषय में प्रबंध करता है कि जहाँ किसी पक्ष की ओर से आदेश 8 नियम 1 या नियम 9 के तहत लिखित कथन अपेक्षित है, और वह पक्ष न्यायालय द्वारा अनुमति प्राप्त या निर्धारित समय के भीतर उसे प्रस्तुत करने में विफल रहता है, तो कोर्ट उसके खिलाफ फैसला सुनाएगा, या सूट के संबंध में ऐसा कोई अन्य आदेश देगा जैसा कि वह उचित समझता है।
अब हम यह देख सकते हैं कि इस प्रावधान के तहत लिखित बयान दर्ज करने में विफल रहने पर, अदालत को यह विवेक दिया गया है कि वह प्रतिवादी के खिलाफ फैसला सुनाए या उसके संबंध में ऐसा कोई अन्य आदेश दे जो अदालत उचित समझे।
इस प्रावधान के संदर्भ में, 'करेगा' शब्द के उपयोग के बावजूद, यह कहा जा सकता है कि अदालत को प्रतिवादी के खिलाफ निर्णय सुनाने या न सुनाने का विवेक दिया गया है, भले ही लिखित बयान समय के भीतर दायर न किया गया हो और इसके बजाय अदालत द्वारा ऐसा आदेश पारित किया जा सकता है जैसा न्यायाधीश उचित समझे।
यदि आदेश VIII नियम 1 और नियम 10 के प्रावधान को एक साथ पढ़ा जाए तो इसका प्रभाव यह होगा कि ऑर्डर VIII के नियम 10 के तहत, अदालत के पास अपने विवेक में आदेश VIII नियम 1 में दिए गए 90 दिनों की अवधि समाप्त होने के बाद भी प्रतिवादी को लिखित बयान दर्ज करने की अनुमति देने की शक्ति होगी।
ऑर्डर VIII नियम 10 में ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है जो कि 90 दिनों की समाप्ति के बाद, अदालत द्वारा प्रतिवादी को आगे समय देने से रोके। न्यायालय के पास सूट के संबंध में ऐसा आदेश देने की व्यापक शक्ति है जैसा न्यायाधीश उचित समझता है।
स्पष्ट रूप से, लिखित बयान दर्ज करने के लिए 90 दिनों की ऊपरी सीमा के लिए आदेश VIII नियम 1 का प्रावधान निर्देशिका के तौर पर कार्य करता है न कि इसे एक अनिवार्य शर्त के रूप में देखा जाना चाहिए।
हालाँकि जैसा तमाम मामलों में कहा गया है, लिखित कथन दाखिल करने के लिए समय बढ़ाने के आदेश को नियमित तौर पर पारित नहीं किया जा सकता है। केवल असाधारण मामलों में ही यह समय बढ़ाया जा सकता है। समय बढ़ाते समय, जैसा कि सलेम एडवोकेट के मामले में कहा गया है, यह ध्यान रखना होगा कि विधायिका ने जवाबदावा दाखिल करने के लिए 90 दिनों की ऊपरी समय सीमा तय की है।
समय का विस्तार करने के लिए न्यायालय का विवेक इतनी बार और नियमित रूप से प्रयोग में नहीं लिया जायेगा कि आदेश VIII नियम 1 द्वारा तय की गई अवधि को वास्तव में समाप्त कर दिया जाये।