सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 31:सरकार के द्वारा या सरकार के विरुद्ध वाद

LiveLaw News Network

21 April 2022 12:45 PM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 भाग 31:सरकार के द्वारा या सरकार के विरुद्ध वाद

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (Civil Procedure Code,1908) की धारा 79 सरकार के द्वारा और सरकार के विरुद्ध होने वाले वादों से संबंधित प्रक्रिया निर्धारित करती है। इसके साथ ही दूसरी धाराएं भी है जो इस ही प्रक्रिया को आगे बढ़ाती है। जैसे धारा 80 भी इससे ही संबंधित है। इस आलेख में इन दोनों ही धाराओं पर संयुक्त रूप से टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    धारा 79

    धारा 79 के माध्यम से एक प्रक्रिया बतायी गयी है जिसके अनुसार सरकार के द्वारा या सरकार के विरुद्ध वाद संस्थित किया जा सकता है। यह धारा किसी भी प्रकार की सरकार के विरुद्ध या सरकार द्वारा दावों या प्रवर्तनीय दायित्वों को न तो बढ़ाती है, और न ही उसको प्रमाणित करती है। उन दावों और दायित्वों का निर्धारण संविधान के अनुच्छेद 294, 300 के अधीन होगा।

    सरकार के विरुद्ध वाद कब संस्थित किया जा सकता है? इस प्रश्न का निर्धारण संविधान के अनुच्छेद 300 (1) के अनुसार किया जाना चाहिये।

    वाद के पक्षकार सरकार के द्वारा या सरकार के विरुद्ध वाद संस्थित किये जाने के लिये वादी या प्रतिवादी के रूप में, जैसी भी स्थिति हो, निम्नलिखित को पक्षकार बनाया जायेगा-

    (क) जहाँ बाद केन्द्रीय सरकार द्वारा या विरुद्ध संस्थित किया जाना हो वहाँ वादी या प्रतिवादी के रूप में (जैसी भी स्थिति हो) अंकित प्राधिकारी "भारत का संघ" (Union of India) होगा।

    (ख) जहाँ वाद राज्य सरकार के द्वारा या विरुद्ध संस्थित किया जाना हो वहाँ वादी या प्रतिवादी के रूप में (जैसी भी स्थिति हो) अंकित प्राधिकारी सम्पृक्त "राज्य" होगा, जैसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार आदि।

    जहाँ वाद केन्द्रीय सरकार के विरुद्ध है, उसमें अपील की गयी है, भारत संघ को तो पक्षकार बनाया गया है परन्तु विभाग के कनिष्ठ अधिकारियों को पक्षकार नहीं बनाया गया, वहाँ मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने स्टेट आफ इण्डिया बनाम सोहनलाल नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि अपील ऐसे अधिकारियों के पक्षकार न बनाये जाने के कारण भी अग्रणीय या अक्षम (incompetent) नहीं हो जाती दूसरे शब्दों में ऐसे अधिकारियों के असंयोजन के बाद भी अपील चलने योग्य है।

    जहाँ एक रिट याचिका या सिविल वाद राज्य के एक विभाग द्वारा राज्य के दूसरे विभाग के विरुद्ध या भारत संघ के एक विभाग द्वारा भारत संघ के दूसरे विभाग के विरुद्ध संस्थित किया गया है, वहाँ ऐसी याचिका या वाद न तो उपुयक्त है और न ही अनुज्ञेय है। जहां राज्य के विरुद्ध अनुतोष की मांग की गयी है वहां राज्य को पक्षकार बनाया जाना चाहिये, और इसके अभाव में वाद पोषणोय नहीं होगा जो डिक्री पारित की गयी है, वह अवैध है।

    धारा 80

    सरकार के विरुद्ध या किसी लोक-अधिकारी के विरुद्ध वाद संस्थित किये जाने से पहले, सरकार या लोक-अधिकारी को, जैसी भी हो, धारा 80 के अधीन नोटिस दिये जाने का प्रावधान है। जब भी सरकार या लोक-अधिकारी के विरुद्ध वाद संस्थित किया जाना हो तो वाद संस्थित किये जाने से पूर्व (केवल धारा 80 की उपधारा (2) में वर्णित अपवाद को छोड़कर) सरकार या लोक-अधिकारी को सूचना दिया जाना आवश्यक है। लेकिन ध्यान रहे लोक-अधिकारी के विरुद्ध वाद लाने के लिये सूचना दिया जाना वहीं आवश्यक है जहाँ लोक-अधिकारों के द्वारा किया गया कार्य सरकारी हैसियत में किया गया है।

    सूचना का भेजा जाना मात्र काफी नहीं है, यह उस व्यक्ति को जिसके लिये सूचना अपेक्षित है, वास्तव में परिदान की जानी चाहिये या निविदत्त की जानी चाहिये है। म्यूनिसिपल कॉसिल एक लोक अधिकारी (Public Officer) नहीं है। अतः जब वाद म्यूनिसिपैलिटी के खिलाफ दाखिल करना हो तो सूचना देना जरूरी नहीं है।

    पटना उच्च न्यायालय ने चेयरमैन, इलेक्ट्रोसिटी बोर्ड बिहार बनाम विनय कुमार झा में यह अभिनिर्धारित किया कि न तो बिहार इलेक्ट्रॉसिटी बोर्ड 'सरकार' (Government) है और न ही इसके अधिकारी, सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 80 के अर्थों में लोक अधिकारी हैं। ज्ञातव्य है कि 'लोक अधिकारी' को परिभाषा संहिता की धारा 2 (17) में दी गयी है।

    ध्यान रहे जहाँ एक विवाचन (माध्यस्थम्) की कार्यवाही लम्बित है, और निषेधाज्ञा (injunction) के लिये आवेदन दिया जाता है, वहाँ धारा 80 की सूचना एक आवश्यक पूर्व शर्त नहीं है, क्योंकि विवाचन की कार्यवाही वाद नहीं है. उद्देश्य धारा 80 के अधीन सूचना देने का उद्देश्य है, सम्बन्धित सरकार या लोक-अधिकारी को एक अवसर प्रदान करना ताकि वह अपनी विधिक स्थिति पर पुनः विचार कर ले और अगर यह उचित समझे तो दावे को न्यायालय से बाहर सुलझा ले।

    अगर सरकार या लोक अधिकारी ऐसा कर लेता है तो वादी को वाद संस्थित करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। वादी और सरकार दोनों अनावश्यक मुकदमेबाजी एवं व्यय से बच जायेंगे।

    धारा 80 के अन्तर्गत सूचना के बारे में अपना विचार व्यक्त करते हुये उच्चतम न्यायालय ने सलेम एडवोकेट बार एसोसिएशन बनाम यूनियन आफ इण्डिया में कहा कि इस बात का न्यायिक संज्ञान किया जाना चाहिये कि बहुत सारे मामले में सूचना का (सरकारों या अधिकारियों द्वारा) या तो उत्तर नहीं दिया जाता या यदि कुछ मामलों में दिया भी जाता है तो अस्पष्ट या भुलावा देने वाला (evasive) होता है। इसका परिणाम होता है कि धारा 80 या उसी तरह के अन्य प्रावधानों का उद्देश्य असफल हो जाता है। इससे न केवल बचे जाने वाले मुकदमें में वृद्धि होती है, अपितु सरकारों खर्चे में भी वृद्धि होती है।

    वर्तमान स्थिति और परिस्थितियों को देखते हुये हम सम्बन्धित सरकारों (केन्द्र या राज्यों की) या अन्य प्राधिकारियों को यह निर्देश देते हैं कि वे तीन माह के भीतर एक ऐसे अधिकारी को नामित करे जो नोटिस (सूचना) का जवाब अधिनियम द्वारा अपेक्षित समय के अन्तर्गत देने के लिये उत्तरदायी हो।

    फिर भी यदि उत्तर नहीं दिया जाता या उत्तर अस्पष्ट है और भुलावा देने वाला हो या उत्तर बिना मस्तिष्क के प्रयोग के दिया गया हो तो न्यायालय भारी खर्चे लगा सकता है और सरकार को निदेश दे सकता है कि उसके विरुद्ध समुचित कार्यवाही करे और जिसमें उससे खर्चे वसूलने का निर्देश सम्मिलित है।

    धारा के अधीन सूचना का परीक्षण-

    धारा 80 के प्रावधानों का परीक्षण कड़ाई से किया जाना चाहिये किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि धारा के अधीन नोटिस का परीक्षण पाण्डित्य प्रदर्शन (pedantically) हेतु किया जाये। दूसरे शब्दों में नोटिस की शब्दावली का परीक्षण एक कृत्रिम ढंग से किया जाए।

    वाद हेतुक एवं सूचना-

    धारा के अधीन नोटिस वाद हेतुक (cause of action) उत्पन्न होने के बाद ही दिया जाना चाहिये। वाद-हेतुक के उत्पन्न होने से पहले दी गयी नोटिस अवैध या अविधिमान्य होगी : परन्तु जहाँ एक वाद हेतुक के आधार पर धारा 80 की सूचना देकर वाद संस्थित किया गया, जो मामला मूल वाद-पत्र में प्रतिबिम्बित होता था उसे संशोधित वादपत्र दाखिल करके त्याग दिया, संशोधित वाद पत्र पूर्णरूप से नये वाद हेतुक और तथ्यों तथा घटनाओं पर आधारित है जो मूल वादपत्र दाखिल करने के पश्चात् घंटी और ऐसे नये वाद हेतुक के लिये धारा 80 की नई सूचना नहीं दी गयी वहाँ उच्चतम न्यायालय ने बिशन दयाल एण्ड सन्स बनाम स्टेट ऑफ उड़ीसा में अभिनिर्धारित किया कि ऐसे वाद हेतुक पर आधारित वाद बिना नई सूचना के पोषणीय नहीं है।

    सूचना की अवधिसूचना वाद संस्थित किये जाने से कम से कम दो माह पूर्व दी जानी चाहिये। दूसरे शब्दों में नोटिस देने के पश्चात् दो माह व्यतीत हो जाने पर ही वाद संस्थित किया जा सकता है, अन्यथा नहीं। जहाँ वाद नोटिस की अवधि समाप्त होने से पूर्व संस्थित कर दिया गया है वहाँ वाद खारिज किया जा सकता है।

    सूचना की विषय-वस्तु (Contents of notice)

    -नोटिस में निम्न बातें अवश्य लिखी रहनी चाहिये :

    (1) वाद हेतुक

    (2) वादी का नाम, वर्णन,

    (3) यादी का निवास स्थान तथा

    (4) वह अनुतोष बादी जिसका दावा करता है।

    नोटिस का कोई निश्चित प्रारूप नहीं है। लेकिन नोटिस की भाषा में यह स्पष्ट होना चाहिये कि वादी क्यों दावा करना चाहता है, बाद हेतुक कैसे उत्पन्न होता है और वादी क्या अनुतोष चाहता है। जहाँ वाद सरकार के विरुद्ध है सूचना आवश्यक है परन्तु जहाँ सूचना ठेकेदार द्वारा सरकार को दी गयी है किन्तु सरकार ने ठेकेदार के दावे को अस्वीकार किया है और ठेकेदार की मृत्यु वाद संस्थित करने से पहले हो गयी और वाद उसके बेटे संस्थित करते हैं, वहाँ उच्चतम न्यायालय ने घनश्याम दास बनाम डोमिनियन ऑफ इण्डिया नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि पुनः सूचना (fresh notice) कोई आवश्यकता नहीं है।

    सूचना का अभित्यजन (Waiver of notice)-

    कोई कारण नहीं है कि वह अधिकारी या सरकार जिसको नोटिस दी जानी है वह नोटिस का अभित्यजन न कर सके क्योंकि नोटिस उसके हितों की रक्षा के लिये है किन्तु जहाँ ऐसा अभित्यजन किया गया है वहाँ यह प्रमाणित करना वादी का काम है। सूचना का अभिव्यजन आचरण (conduct) द्वारा भी किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय ने विशनलाल एण्ड सन्स बनाम स्टेट ऑफ ओरीसा में यह कहा कि इस प्रतिपादन में कोई सन्देह नहीं है कि धारा 80 को का अभित्यजन किया जा सकता है।

    किन्तु यहाँ प्रश्न यह है कि क्या संशोधित लिखित कथन में इस तर्क को सूचना न उठाया जाना, इसका (अर्थात् धारा 80 की सूचना का) अभित्यजन माना जायेगा? इस प्रश्न का उत्तर देते हुये उच्चतम न्यायालय ने कहा, नहीं। एक बार जब तर्क मूल लिखित कथन में उठा दिया गया, और यह एक विवाद्यक बन गया, तब इसका संशोधित लिखित कथन में उठाया जाना आवश्यक नहीं।

    जहाँ सूचना के अभाव की बात सरकार द्वारा लिखित कथन और अतिरिक्त लिखित कथन में नहीं उठाई गयी, वहाँ यह मान लिया जायेगा कि सूचना का अभिव्यजन कर दिया गया। बिना सूचना के वाद सिविल प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1976 के माध्यम से धारा 80 की उपधारा (2) में यह उपबन्ध किया गया है कि जहाँ सरकार या लोक-अधिकारों के विरुद्ध शीघ्र या अविलम्ब अनुतोष प्राप्त करना है (वहाँ अगर नोटिस देने की आवश्यकता का पालन किया जाये तो न्याय के असफल होने की सम्भावना रहती है) वहाँ न्यायालय की अनुमति से बिना सूचना के भी वाद संस्थित किया जा सकता है।

    लेकिन न्यायालय की ऐसी अनुमति के लिये किसी औपचारिक आदेश को आवश्यकता नहीं है। दूसरे शब्दों में इसके लिये अलग से आवेदन और उस पर अभिव्यक्त आदेश जरूरी नहीं। धारा 80 (2) के अन्तर्गत अनुमति विवक्षित मानी जा सकती है, और इसका पता न्यायालय क्या करता है या आदेश देता है में पता लगाया जाना चाहिये।

    अनुमति के लिये प्रार्थना किसी रूप में हो सकती है। परन्तु जहाँ ऐसा वाद संस्थित किया गया है वहाँ न्यायालय, किसी भी प्रकार का अनुतोष, अन्तरिम या अन्यथा; तब तक नहीं प्रदान करेगा जब तक कि सरकार को या लोक अधिकारी को, जैसी भी स्थिति हो, आवेदित अनुतोष के बारे में अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर न प्रदान कर दे।

    पक्षकारों के सुनने के पश्चात् अगर न्यायालय इस निर्णय पर पहुँचता है कि वाद में कोई अत्यावश्यक या तुरन्त अनुतोष प्रदान करने की आवश्यकता नहीं हो तो वह वाद-पत्र को वापस कर देगा और यह आदेश देगा कि नोटिस की अपेक्षाओं को पूरा करने के पश्चात् प्रस्तुत किया जाये।

    जहाँ धारा 80 (2) के अन्तर्गत एक आवेदन न्यायालय की अनुमति प्राप्त करने के लिये कि उसे धारा 80 (1) को सूचना दिये बिना वाद संस्थित करने दिया जाए, न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया गया जिस पर न्यायालय ने कोई विचार नहीं किया और ठीक इसके विपरीत प्रत्यर्थी द्वारा अपने लिखित कथन में आक्षेप किये जाने पर एक प्रारम्भिक मुद्दा बनाकर न्यायालय ने यह अवधारित कर दिया कि वाद सूचना के अभाव में खारिज किया जाता है।

    वहाँ दिल्ली उच्च न्यायालय ने याशोद कुमारी बनाम म्युनिसिपल कारपोरेशन ऑफ देलही' में अभिनिर्धारित किया कि अधीनस्थ न्यायालय द्वारा ऐसा किया जाना उचित नहीं है। उच्च न्यायालय की राय में अधीनस्थ न्यायालय को पहले धारा 80 (2) के अन्तर्गत दिये गये आवेदन पर विचार कर उसका निस्तारण या तो अनुमति देकर या अस्वीकार करके किया जाना चाहिये। उसे ऐसा किये बिना वाद खारिज नहीं करना चाहिये था।

    जहाँ धारा 80 (2) के अन्तर्गत विचारण न्यायालय ने वाद संस्थित करने के लिये अनुमति देने से अस्वीकार कर दिया है, वहाँ श्रेष्ठ न्यायालय अनुमति दे सकते हैं अन्यथा अत्यावश्यक परिस्थितियों में वादकारी बिना किसी उपाय के रह जायेगा।

    सूचना में त्रुटि या दोष

    धारा 80 को उपधारा (3) भी संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से जोड़ी गयी है। इस उपधारा में यह उपबन्ध किया गया है कि तकनीकी आधारों पर व्यक्तियों के न्यायोचित दावे को विफल न हो जाये। इस उपधारा के अनुसार सरकार या लोक अधिकारी के विरुद्ध संस्थित किया गया वाद किसी तकनीकी कमी, अथवा नोटिस में किसी त्रुटि अथवा नोटिस तामील किये जाने में की गयी किसी अनियमितता के कारण खारिज नहीं किया जायेगा किन्तु शर्त यह है कि ऐसी नोटिस में वादी का नाम, वर्णन और निवास स्थान इस प्रकार दिया गया है जो सूचना तामील करने वाले व्यक्ति की शिनाख्त (पहिचान) करने में समुचित प्राधिकारी या लोक अधिकारी को समर्थ करता है, तथा नोटिस में वाद हेतुक और वादी द्वारा दावा किया गया अनुतोष सारतः उपदर्शित किया गया है।

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