सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 93: आदेश 20 नियम 4 के प्रावधान

Shadab Salim

20 Jan 2024 4:29 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 93: आदेश 20 नियम 4 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 20 निर्णय और डिक्री है। इस आदेश के नियम 3 में लघुवाद न्यायलयों के निर्णय के संबंध में प्रावधान किए गए हैं, इस आलेख के अंतर्गत नियम 4 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-4 लघुवाद न्यायालयों के निर्णय- (1) लघुवाद न्यायालयों के निर्णयों में अवधार्य प्रश्नों और उनके विनिश्चय से अधिक और कुछ अन्तर्विष्ट होना आवश्यक नहीं है।

    (2) अन्य न्यायालयों के निर्णय-अन्य न्यायालयों के निर्णयों के मामले का संक्षिप्त कथन, अवधार्य प्रश्न, उनका विनिश्चय और ऐसे विनिश्चय के कारण अन्तर्विष्ट होंगे।

    नियम 4 निर्णय के स्वरूप का वर्णन करते हुए लघुवाद न्यायालय और अन्य न्यायालयों के निर्णय में अन्तर प्रकट करता है।

    आदेश 20 नियम 4(2) यह उपाबन्ध लिये है कि निर्णय में कारण जिनके आधार पर निर्णय पारित किया जा रहा है का उल्लेख किया जाना न्यायिक प्रक्रिया का आवश्यक अंग है। निर्णय में कारण का अभाव प्रभावी पक्ष को हानि पहुंचा सकता है। साक्षी के अभिसाक्ष्य तथा विचारण-न्यायालय के निर्णय में अभिलिखित अभिसाक्ष्य के बीच भेद होना - साक्षी को पक्षद्रोही समझे जाने के लिए मंजूर नहीं किया गया क्योंकि कथन के महत्त्वपूर्ण भाग के स्वतंत्र साक्षियों के साक्ष्य से संगत होने के कारण उसे रद्द नहीं किया जा सकता।

    अभिवचन-उपमति की दलील (प्ली ऑफ एविक्शंस) - अभिवचन में ऐसी कोई दलील पेश न को गई हो तो ऐसी दलील बाद में पेश नहीं करने दी जा सकती।

    तैयार किया गया निर्णय सुनाना उचित नहीं-

    नैसर्गिक न्याय का उल्लंघन - एक मामले में बार का प्रमुख व प्रभावशाली सदस्य किरायेदार था, जिसके विरुद्ध वादी/ अपीलार्थी ने बेदखली का वाद किया। इस वाद में अपीलार्थी का वकील बीमार हो गया। दूसरा स्थानीय वकील प्रतिवादी के विरुद्ध खड़ा होने को तैयार नहीं हुआ, तो वादी को दूसरे स्थान से वरिष्ठ वकील लाने के लिए केवल तीन दिन का समय दिया गया। इसके बाद वादी को स्थगन न देकर उसी दिन तैयार किया गया आदेश सुनाकर अपील को खारिज कर दिया गया।

    उच्चतम न्यायालय ने न्याय न केवल किया जाना चाहिए, वरन् किया हुआ दिखाई पड़ना चाहिए को उक्ति पर विचार कर निर्णय दिया कि विधि के समक्ष समता के सिद्धान्त का पालन नहीं किया गया, अपीलार्थी को युक्तियुक्त सुनवाई के अवसर से वंचित किया गया तथा पहले से तैयार किया गया निर्णय सुनाया गया। उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में उच्च न्यायालय द्वारा पिटीशन को संक्षिप्तत: खारिज करने पर दुःख प्रकट किया। मामले को जिला न्यायाधीश को वापस भेजकर स्वयं अपील की सुनवाई करने का निर्देश दिया गया।

    एकपक्षीय सुनवाई के बाद निर्णय-

    किसी वाद को चाहे सुनवाई एकपक्षीय हो क्यों न की गई हो, निर्णय नियम 4 के अनुसार दिया जायेगा।

    निर्णय में कमी नहीं- जब एक बार यह निष्कर्ष दे दिया गया कि-विवादग्रस्त सम्पत्ति विन्यास को थी, न कि मृत महन्त की, तो उस निष्कर्ष को चुनौती नहीं दी जा सकती और उसके दूसरे पहलू में जाने का प्रश्न जोषित नहीं रहता।

    निर्णय का स्वरूप-

    प्रत्येक विवाद्यक पर विनिश्चय देना चाहिये, परन्तु इसका अपवाद भी है। पिता की सम्पत्ति के विभाजन के वाद में वादिनी अपने को अपने पिता की दूसरी पत्नी से उत्पन्न पुत्री बताती है। इस पर विवाद्यक बनाये गये, जिनमें से एक यह था कि क्या वादिनी की माता उसके पिता की विधिपूर्वक विवाहिता पत्नी थी, ऐसा विवाद्यक अधिकारिता का विवाद्यक नहीं है, जैसा आदेश 14, नियम 2 में चाहा गया है। इसी विवाद्यक के आधार पर वाद को खारिज करना उचित नहीं है।

    निर्णय-पक्षकारों की सुनवाई के बाद ही किसी वाद का निर्णय दिया जा सकता है। यह कहना न्यायालय की अधिकारिता में नहीं है कि किसी समान मामले में पहले आदेश दिया जा चुका है। इस मामले में पूर्व-न्याय का विवाद्यक भी नहीं बनाया और न साक्ष्य देने का अवसर दिया। यह अनुचित है।

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