सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 139: आदेश 22 नियम 1 के प्रावधान

Shadab Salim

26 Feb 2024 6:02 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 139: आदेश 22 नियम 1 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 22 वाद के पक्षकारों की मृत्यु, विवाह और दिवाला है। किसी वाद में पक्षकारों की मृत्यु हो जाने या उनका विवाह हो जाने या फिर उनके दिवाला हों जाने की परिस्थितियों में वाद में क्या परिणाम होगा यह इस आदेश में बताया गया है। यह संहिता का महत्वपूर्ण आदेश है क्योंकि सिविल वाद लंबे चलते हैं और इस बीच पक्षकारों के साथ इन घटनाओं में से कोई घटना घट ही जाती है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 22 के नियम 1 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-1 यदि वाद लाने का अधिकार बचा रहता है तो पक्षकार की मृत्यु से उसका उपशमन नहीं हो जाता - यदि वाद लाने का अधिकार बचा रहता हैं तो वादी या प्रतिवादी की मृत्यु से वाद का उपशमन नहीं होगा।

    आदेश 22 का नियम 1 विधि के एक सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है कि-यदि वाद लाने का अधिकार (वादाधिकार) बचा रहता है (जीवित रहता है) तो पक्षकार की मृत्यु से वाद का उपशमन नहीं होगा।

    वादाधिकार क्या है - वादाधिकार का अर्थ है-वाद लाने का अधिकार, जिसमें वही अधिकार है, जो मृतक वादी को अपने मृत्यु के समय प्राप्त था। यदि वाद के निपटारे के बाद प्रतिवादियों की मृत्यु हो जाती है, तो उपशमन का प्रश्न ही नहीं उठता।

    विधिक-प्रतिनिधि और अपकृत्य के लिए वादाधिकार एवं दायित्व- व्यक्ति का निजी अधिकार उस व्यक्ति के साथ ही समाप्त हो जाता है यह प्राचीन विधि सिद्धान्त है, जिसे विभिन्न अधिनियमों द्वारा परिवर्तित कर दिया गया है।

    भारत में निम्नलिखित अधिनियमों में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर विधिक प्रतिनिधियों द्वारा या उनके विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए प्रावधान किये गये हैं-

    1. विधिक प्रतिनिधि वाद अधिनियम, 1855 (1855 का 12)

    2. भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1865

    3. प्रोबेट एण्ड एडमिनिस्ट्रेशन एक्ट, 1881, धारा 89

    4. भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 306

    5. घातक दुर्घटना, अधिनियम, 1855 (1855 का 13);

    6. कर्मकार प्रतिकर अधिनियम, 1923,

    7. विमान वहन अधिनियम, 1934

    8. मोटर-यान अधिनियम, 1987

    9. जीवन बीमा पालिसी पर न्यायालय-निर्णय

    10. रेलवे अधिनियम

    11. उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम

    इनके द्वारा शारीरिक क्षति के लिए प्रतिकर की व्यवस्था की गई है।

    उपरोक्त विभिन्न अधिनियमों के आधार पर जो विधि-सिद्धान्त प्राप्त होते हैं, उनको संक्षेप में इस प्रकार बताया जा सकता है :-

    व्यथित व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर-

    किसी व्यक्तिगत क्षति के लिये निम्न परिस्थितियों के अलावा मृतक का उत्तराधिकारी या प्रतिनिधि कोई वाद नहीं ला सकता-

    यदि मृतक की सम्पत्ति को व्यक्तिगत क्षति से कोई आर्थिक हानि हुई हो, तो ऐसी स्थिति में दावा 1855 के अधिनियम 12 (विधिक प्रतिनिधि वाद अधिनियम) के अधीन चलेगा, अथवा (ख) यदि उस व्यक्तिगत क्षति से मृत्यु कारित हुई हो, तो घातक दुर्घटना अधिनियम, 1855 के अधीन दावा किया जा सकेगा।

    किसी अन्य अपकृत्य के लिये उस मृतक व्यक्ति के निष्पादक या प्रशासक साधारण परिसीमा काल के भीतर दावा ला सकते हैं।

    कोई अन्य विधिक प्रतिनिधि केवल विधिक प्रतिनिधि वाद अधिनियम, 1855 के अधीन दावा ला सकता है, यदि उस अपकृत्य से आर्थिक हानि हुई हो।

    उक्त अधिनियम के अधीन वाद या दावा उस व्यक्ति की मृत्यु से एक वर्ष के भीतर लाया जा सकता है और ऐसा अपकृत्य उसकी मृत्यु से एक वर्ष पूर्व तक किया गया होना चाहिये।

    यदि किसी साधारण उत्तराधिकारी का वाद उक्त अधिनियन (1855 का 12) के भीतर नहीं आता हो, तो उसे प्रशासन-पत्र प्राप्त कर प्रोबेट एण्ड एडमिनिस्ट्रेशन एक्ट या उत्तराधिकार अधिनियम के अधीन वाद करने का अधिकार प्राप्त करना चाहिये।

    अपकृत्यकर्ता की मृत्यु हो जाने पर-

    यदि वह अपकृत्य एक व्यक्तिगत क्षति हो, तो विधिक प्रतिनिधि वाद अधिनियम (1855 का 12) के अधीन उसकी मृत्यु से दो वर्ष तक की अवधि के भीतर केवल उसका विधिक प्रतिनिधि वाद ला सकता है, परन्तु वह अपकृत्य उसकी मृत्यु से एक वर्ष पूर्व तक किया गया होना चाहिए।

    यदि वह कोई अन्य अपकृत्य हो, तो साधारण परिसीमा काल के भीतर उसके प्रशासक या निष्पादक के विरुद्ध वाद लाया जा सकेगा।

    यदि उस मृत-अपकृत्यकर्ता ने किसी दूसरे की सम्पत्ति या आगम या सम्पत्ति का मूल्य हड़प लिया हो, तो ऐसा व्यक्ति उसके विधिक प्रतिनिधियों के हाथों में आई उसकी सम्पत्ति में से नुकसानी (प्रतिकर) वसूल कर सकता है।

    निम्न दशाओं में मृतक के उत्तराधिकारियों के विरुद्ध अथवा उनके द्वारा दावा नहीं लाया जा सकता-

    मानहानि के लिए,

    आक्रमण या अन्य शारीरिक चोटों के लिए, जिनसे मृत्यु कारित नहीं हुई हो; जारकर्म या शील भंग के लिये प्रतिकर के दावे,

    देषपूर्ण अभियोजन- इसके बारे में न्यायालयों में मतभेद रहा है। बम्बई, मद्रास व पटना उच्च न्यायालय इस अधिकार को समान मानते हैं, जबकि कलकत्ता उच्च न्यायालय दावे का अधिकार शेष मानता है।

    न्यास भंग के लिए नुक्सानी के दावे का वादहेतुक उस मृतक के उत्तराधिकारियों के विरुद्ध जीवित रहता है, क्योंकि यह केवल कर्तव्य के विरुद्ध अपकृत्य ही नहीं है। भारतीय उत्तराधिकार अधिनियन 1925 के अधीन न्यासियों के विरुद्ध कर्तव्य भंग के द्वारा सम्पत्ति को पहुंचायी गई क्षति के लिए दावा जारी रहता है। बाफ्सी या उसके मूल्य के लिए लाया गया दावा भी मृत्यु के कारण समान नहीं हो जाता के विरुद्ध उसकी मृत्यु के पश्चात् दावा लाया जा सकता है। इसी प्रकार सम्मति की कपटपूर्ण कार्यों के दोषी वादी की कोयला की खान पर अतिचार करने के विरुद्ध उस मृत अतिचारी के उत्तराधिकारियों के विरुद्ध वाद लाया जा सकता है।

    संविदा के मामले में वादाधिकार जीवित रहता है, पर अपकृत्य (टार्ट) के मामले में नहीं धारा 306 उत्तराधिकार अधिनियम में शब्दावली अन्य व्यक्तिगत क्षतियों (चोटें) जो पक्षकार की मृत्युकारित नहीं करे को अपनान तथा आक्रमण के साथ-साथ पढ़ना होगा। इस मामले में वाद के उपशमन का प्रश्न इस बात पर निर्भर करेगा कि यह वाद संविदा पर आधारित था या अपकृत्य पर। संविदा पर आधारित दावे का भाग जीवित रहेगा, परन्तु अपकृत्य पर आधारित दावे का भाग उपशमित हो जाएगा।

    निम्न मामलों में वादाधिकार जीवित (बचा) नहीं रहा वाद का उपशमन हो जाएगा

    एक कर्मचारी की अनिवार्य सेवानिवृत्ति के आदेश को अवैध घोषित करने का वाद खारिज कर दिया गया। उसकी अपील के दौरान उस वादी अपीलार्थी की मृत्यु हो गई। अपील का उपशमन हो गया, क्योंकि वादाधिकार निजी-अधिकार था, जो जीवित नहीं रहा।

    अग्रक्रय के वाद में अग्रक्रेता की मृत्यु पर वाद का उपशमन हो जाएगा।

    कानूनी शुफ़ाधिकारी के विधिक प्रतिनिधि को क्या वाद लाने का अधिकार बचा रहता है।

    एक समुदाय के धार्मिक-प्रमुख द्वारा एक व्यक्ति का जाति बहिष्कार कर दिया गया। उसको अवैध करार देने के वाद के विचाराधीन रहते वादी की मृत्यु हो गई। व्यक्तिगत अधिकार व्यक्ति के साथ समान हो जाता है इस सिद्धान्त को लागू किया गया। वाद का उपशमन हो गया।

    बेदखली के वाद में, व्यक्तिगत आवश्यकता का आधार होने पर वादी की मृत्यु हो जाने पर उस वाद का उपशमन हो जाएगा और वादहेतुक जीवित नहीं रहेगा।

    आधिपत्य का वाद-उपशमन से डिक्री शून्य एक आधिपत्य के वाद में किराया की बकाया के आधार पर किरायेदार की बेदखली चाही गई थी, परन्तु इसी बीच एक मात्र वादी (मकान मालिक) का देहान्त हो गया। वाद का उपशमन हो गया, जब उसके वारिसों को रिकार्ड पर नहीं लाया गया। उपशमन को अपास्त करने के लिए कोई आवेदन भी नहीं दिया गया, न मृत्यु की सूचना दी गई। अतः विधि के प्रवर्तन से वाद उपशमित हो गया। ऐसे वाद में मृतक के पक्ष में उसके नाम से पारित डिक्री शून्य तथा अनिष्पादनीय है।

    जहां व्यक्तिगत क्षति के लिए क्षतिपूर्ति (डेमेजेज) का वाद डिक्री कर दिया गया, जिसे पहली अपील में खारिज कर दिया गया और वादी ने द्वितीय-अपील की, तो निर्णय हुआ कि अपीलार्थी की मृत्यु पर उस अपील का उपशमन हो गया।

    द्वेषपूर्ण अभियोजन के लिए प्रतिकर के वाद में डिक्री पारित की गई, परन्तु अपील फाइल करने के बाद प्रतिवादी की मृत्यु हो गई। इस पर निर्णय हुआ कि (1) वाद हेतुक जीवित नहीं रहने से अपील का उपशमन हो गया, और (2) उस डिक्री को प्रतिवादी के वारिसों (उत्तराधिकारियों) के विरुद्ध उनके पास में स्थित प्रतिवादी की आस्तियों के विरुद्ध निष्पादित किया जा सकेगा।

    मानहानि के वाद का उपशमन [आदेश 22 नियम 1 और 2 सपठित भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 306]-

    मानहानि के लिए वाद हेतुक मानहानि के वाद में एकमात्र वादी अपीलार्थी द्वारा की गई अपील के लम्बित रहने के दौरान उसकी मृत्यु हो जाने पर अपील के उपशमन का प्रश्न उद्‌भूत होना जहां मानहानि के लिए नुक्सानी के बाद की खारिजी के विरुद्ध की गई अपील के लम्बित रहने के दौरान वादी अपीलार्थी की मृत्यु हो गई हो वहां अपील का उपशमन हो जाएगा, किन्तु यदि वादी अपने पक्ष में पारित की गई डिक्री की प्रतिरक्षा कर रहा हो तो अपील का उपशमन नहीं होगा। किन्तु जब मानहानि के लिए वाद वादी के पक्ष में डिक्री हो जाए तो स्थिति भिन्न होगी, क्योंकि उस मामले में वाद-हेतुक का डिक्री में विलयन (मर्जर) हो गया है और डिक्रीत राशि उसकी सम्पदा का भाग बन जाती है तथा प्रतिवादी द्वारा अपील में प्रश्न वादी प्रत्यर्थी की सम्पदा को लाभ या हानि का हो जाता है, जिसमें उसका विधिक प्रतिनिधि भी अभियोजन या प्रतिरक्षा कर सकता है। अतः वह मूल प्रत्यर्थी/वादी के स्थान पर प्रतिस्थापित किए जाने का हकदार होता है।

    यदि प्रस्तुत मामले में वादी की मृत्यु प्रथम अपील में वाद डिक्री हो जाने के बाद द्वितीय-अपील के दौरान होती तो उसके उत्तराधिकारी उच्च न्यायालय में प्रतिस्थापन के हकदार होते। किन्तु यहां अपील वाद खारिज करने के निर्णय के विरुद्ध है। अतः प्रतिस्थापन नहीं हो सकता।

    उपशमन-एक प्रतिवादी के सम्बन्ध में जिसने द्वितीय अपील में विवादग्रस्त भूमि के भाग के सम्बन्ध में हित का दावा नहीं किया है किन्तु उसके ऐसे अन्य भागों के संबंध में दावा किया है जो मूल वाद में सम्मिलित था और जिसकी प्रथम अपील के लम्बित रहने के दौरान मृत्यु हो गई थी और जिसके स्थान पर उसके विधिक प्रतिनिधि प्रतिस्थापित नहीं किए गए हैं, प्रथम अपील उपशमित हो जाएगी और सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 22 का नियम 4 लागू होने से विचारण न्यायालय के निर्णय और डिक्री अन्तिम हो जाएंगे।

    एक व्यक्ति ने किसी सोसायटी द्वारा पारित संकल्प को रद्द करने तथा जल प्रदाय की पाइप बन्द करने से रोकने के लिए घोषणा तथा व्यादेश का वाद फाइल किया। इसी बीच वादी की मृत्यु हो गई। अभिनिर्धारित कि-वादाधिकार जीवित नहीं रहा। इस निर्णय को एक डिक्री माना गया।

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