सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 133: आदेश 21 नियम 91 के प्रावधान

Shadab Salim

21 Feb 2024 6:20 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 133: आदेश 21 नियम 91 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 91 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-91.विक्रय का इस आधार पर अपास्त कराने के लिए क्रेता द्वारा आवेदन कि उसमें निर्णीतऋणी का कोई विक्रय हित नहीं था- डिक्री के निष्पादन में ऐसे किसी भी विक्रय में क्रेता, विक्रय को अपास्त कराने के लिए आवेदन न्यायालय से इस आधार पर कर सकेगा कि विक्रय की गई सम्पत्ति में निर्णीतऋणी का कोई विक्रय हित नहीं था।

    आदेश 21 का नियम 91 क्रेता को एक अधिकार प्रदान करता है कि-यदि विक्रय की गई सम्पत्ति में निर्णीत- ऋणी का कोई विक्रय हित नहीं था, तो ऐसा क्रेता उस विक्रय को अपास्त कराने के लिए आवेदन कर सकेगा। इसी प्रकार आगे नियन 92 (4) और (5) तथा नियम 93 में क्रेता को क्रयधन की वापसी के उपबंध किए गए हैं।

    किसी डिक्री के निष्पादन में किए गए किसी भी विक्रय में जो व्यक्ति क्रेता खरीददार है, वह इस नियम के अधीन आवेदन कर सकेगा।

    ऐसे विक्रय को अपास्त कराने का आधार यह होगा कि विक्रय की गई सम्पत्ति में निर्णीत ऋणी का कोई विक्रय- fea (Saleable Interest) नहीं था।

    इस आधार के अलावा अन्य किसी आधार पर इस नियम के अधीन आवेदन नहीं किया जा सकेगा और ऐसे क्रेता को अलग से वाद लाना होगा।

    इस बात का हेतुक (कारण) दर्शित करने के लिए सूचना कि विक्रय अपास्त क्यों न कर दिया जाए, परिशिष्ट (इ) के प्ररूप (फार्म) सं. 37 में दी जाएगी।

    नीलाम विक्रय और क्रेता सावधान रहे का सिद्धान्त-नीलाम विक्रय में क्रेता सम्पति को हक (स्वामित्व) सम्बन्धी सभी त्रुटियां के अधीन क्रय करता है और उसे इसके हक की कोई गारन्टी नहीं होती। क्रेता सावधान रहे का सिद्धान्त ऐसे क्रेता को लागू होता है।

    सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 21, नियन 91 में, जैसा दिया गया है, विक्रय सम्पत्ति में कोई विक्रय-हित न रखने वाले निर्णीत-ऋणी का मामला भिन्न है और वह इस सिद्धान्त के अन्तर्गत नहीं आता और क्रेता सावधान का सिद्धान्त वहां लागू नहीं होता।

    विक्रय-हित स्वरूप साधारणतया न्यायालय स्वामित्व नीलाम नहीं करता। वह निर्णीत ऋणी का जो अधिकार, हक एवं हित उस सम्पत्ति में होता है, उसी का नीलाम विक्रय करता है। फिर भी यदि उस सम्पत्ति को उस निर्णीत-ऋणी को बेचने का कोई अधिकार नहीं है, तो न्यायालय ऐसी आपत्ति को स्वीकार कर उस विक्रय को इस नियम के अधीन आवेदन करने पर अपास्त कर सकते हैं।

    विक्रय योग्य हित न होने पर विक्रय अवैध जहां कुर्क की गई स्थावर सम्पत्ति अनुसूचित जनजाति के सदस्य की थी। अत: वह सम्पत्ति सक्षम प्राधिकारी की अनुमति के बिना कुर्क नहीं की जा सकती थी अथवा बेची नहीं जा सकती थी। निर्णीत-ऋणी ने सक्षम प्राधिकारी की अनुमति लेकर प्राइवेट विक्रय द्वारा उस सम्पत्ति को रजिस्ट्री द्वारा बेच दिया और उसके प्राइवेट क्रेता में उस सम्पति का हक निहित हो गया और निर्णीत ऋणी का उसमें कोई विक्रय-योग्य हित नहीं रहा, जिसका न्यायालय द्वारा नीलाम में विक्रय किया जा सकता।

    यह बात प्राथमिक है कि-न्यायालय द्वारा जो कुछ बेचा जा सकता है, वह निर्णीत ऋणी का अधिकार, हक अथवा हित है और इसलिए नीलाम-क्रेता उस अधिकार, हक और हित से अधिक कुछ प्राप्त नहीं कर सकता है। नीलाम विक्रय की तारीख को निर्णीत-ऋणी को सम्पत्ति में बिल्कुल भी कोई विक्रय योग्य हित न होने का कारण ऐसा कोई भी हक नहीं था जो वह नीलाम क्रेता उस निर्णीत-ऋणी से प्राप्त कर सकता था। अत: नीलाम-विक्रय अपीलार्थी के हक में समाप्त नहीं हो सकता था जो कि वही बात कहने के समान है कि अपीलार्थी के हक के और नीलाम क्रेता के तथाकथित हक के बीच अपीलार्थी (प्राइवेट क्रेता) का हक अधिभावी रहना चाहिये। इसका अर्थ यह है कि नीलाम-विक्रय अवैध है और उसे अपास्त किया जाना चाहिये।

    कोई विक्रय हित नहीं आंशिक हित- यह नियम तभी लागू होगा, जब कि निर्णीत ऋणी का विक्रय की गई सम्पत्ति में कोई भी हित नहीं हो। अतः यह नियम उस दशा में लागू नहीं होगा, जब निर्णीत-ऋणी का आंशिक हित उस विक्रीत सम्पत्ति में है, चाहे यह हित कितना ही छोटा क्यों न हो। दूसरे शब्दों में, इस आधार पर कि निर्णीत ऋणी का उस सम्पत्ति के बहुत छोटे से भाग में विक्रय हित है और उसके बहुत बड़े भाग में ऐसा हित नहीं है, क्रेता इस नियम के अधीन उस विक्रय को अपास्त नहीं करवा सकता।

    इस नियम के प्रयोजनों के लिए, एक बंधकदार का बंधक सम्पत्ति में विक्रय हित है, चाहे बंधकिती ने किसी बंधक के प्रवर्तन के लिए डिक्री प्राप्त की हो और यद्यपि बंधक के अधीन राशि उस सम्पत्ति के मूल्य से भी अधिक हो।

    आवेदन कब कर सकेगा-क्रेता द्वारा विक्रय को अपास्त कराने के लिए आवेदन जहां निर्णीत-ऋणी को सम्पत्ति में कोई विक्रय हित न हो, तो नीलाम-क्रेता उस विक्रय को अपास्त कराने के लिए इस नियम के अधीन आवेदन कर सकता है। ऐसा आवेदन विक्रय की पुष्टि होने के पहले करना होगा।

    नियम लागू नहीं होना जहां विक्रय को नीलाम क्रेता द्वारा इस आधार पर अपास्त कराना चाहा जाए, कि उसे दुर्व्यपदेशन और कुछ बातें गुम रखकर (छिपाकर) सम्पत्ति को खरीदने के लिए असली मूल्य से अधिक मूल्य देने के लिए उकसाया गया, तो वही यह नियम लागू नहीं होगा। ऐसे मामले में क्रेता को नियमित वाद लाना होगा।

    भूल पता लगने पर कार्यवाही-

    एक मामले में, डिक्रीदार ने विक्रय करवाकर स्वयं उस सम्पत्ति को नीलामी में खरीद लिया, जो वास्तव में उस निर्णीत-ऋणी की नहीं थी। उसने डिक्री का समाधान भी अभिलिखित कर दिया। जब उसे अपनी भूल का पता चला, तो उसने नया निष्पादन आवेदन प्रस्तुत किया। इस पर निर्धारित कि वह पहले विक्रय को नियम 91 के अधीन अपास्त कराये बिना उस डिक्री का दुबारा निष्पादन नहीं करवा सकता। वह विक्रय न्यायालय की अधिकारिता के बाहर होने के अर्थ में शून्य नहीं है। अतः वह निष्पादन कार्यवाही को पुनर्जीवित नहीं कर सकता और उसे उत्त विक्रय को अपास्त कराने का आवेदन करना होगा।

    सम्पत्ति का भाग नीलाम होने से हुई हानि के लिए प्रतिकर यदि सम्पत्ति के एक भाग से क्रेता को वंचित कर दिया गया हो, तो वह निर्णीत-ऋणी के विरुद्ध सम्पति के उस भाग के लिए प्रतिकर प्राप्त करने का हकदार नहीं है। नियम 91 में दिये मामले तथा कपट के मामले के अलावा, सिद्धान्त यह है कि क्रेता को अपने लेनदेन से नीलाम-विक्रय में बंधा रहना होगा। जो कुछ बेचा और खरीदा गया है, वह उस सम्पत्ति में निर्णीत-ऋणी का अधिकार, स्वत्व या हित है। न्यायालय जो सम्पत्ति को बेचता है, उसके स्वत्व की गारण्टी नहीं देता और क्रेता सावधान (Caveat emptor) का सिद्धान्त यहाँ लागू होता है। इससे कोई अन्तर नहीं पड़ेगा कि सम्पत्ति एक बंधक-डिक्री के निष्पादन में बेची गई थी, जिसे बंधकिती स्वयं ने खरीद लिया।

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